Bhav Nirjharini  |  SantMani  | 
Sahitya
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    22/10/2024   Tuesday
क्या यों ही वियोग में लुट जाऊँगा ? उड़ते पंछी संदेश लेता जा | क्यों प्राणों की सृष्टि की जब वियोग में ही घुल _ घुल कर तुम में मिलना है ? - भाव - 162

दीपावली--

दीप ( शरीर ) जले निर्वाण के लिये | अमर दीप (आत्मा ) जला , अमर संदेश और प्रकाश के लिये | बुझना मुक्त होना कब हुआ ? लय हो रहा है अमर में | प्रकाश स्वयं फ़ैल रहा है | यह अमर ज्योति है |
भाव - 152

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  • कोई आँखों में बसने को कहता है , कोई दिल में समाने को . यहाँ तो सब पूर्ण होते हुए भी तुम्हारे बिना अपूर्ण | | - भाव - 1
  • बाहर की पूजा , संस्कार से मुक्त न कर सकी । - भक्ति की चेतावनी - 1
  • कैसे रिझाऊँ और दिल बहलाऊँ ? बहार ही बहार , जहाँ नहीं हार । - भक्ति - 1
  • प्रकृति के रंगों में सुख-दुःख खोजता है , प्रकृति जिसके रंग में रँगी है उसे भी खोज | - चेतावनी - 1
  • रंगीली दुनिया का रंग मन , रंगीला मन , दुनिया का रंग ही बदल डालता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1
  • निन्दा को निद्रा कहाँ ? प्रशंसा में शंका आई | दोनों के युद्ध में जीवन समाप्त | वाह रे खेल | - चेतना - 1
  • सृष्टि सजी , किन्तु शांति न ली - न सृष्टि ने , न जीव ने - स्रष्टा मुस्कराता रहा | - ज्ञान - 1
  • दिगम्बर का स्नान कैसा ? प्रकृति का प्रेम जलवत् बह निकला दिशाएँ तृप्त - दिगम्बर तृप्त | - ज्ञान - 10
  • जब जीते जीत, मरे क्यों हार ? - भक्ति की चेतावनी - 10
  • वेतन तो ये तन | - ज्ञान की चेतावनी - 10
  • दो शब्द सुना जा | बड़े प्यारे हैं - तू मेरा | - भाव - 10
  • नवीन , नवी कहे या वीण वाली जिसकी हो वह कहे किन्तु यह भी भ्रम है | नवीन में भी वही वीण प्राचीन वीण बज रही है | - चेतना - 10
  • समता में झूलन कैसा ? विषमता झुलाती , रुलाती , हँसाती | - भक्ति - 10
  • सुप्त को छेड़ा गति दिखलाई दी | - चेतावनी - 10
  • सोये हुए निर्जीव नहीं , गति हीन नहीं | ऐसा स्पर्श करो कि गति ही गति | - चेतावनी - 11
  • भक्त को दीन क्यों बनाया ? शायद दीनबन्धु कहलाने के लिये | - भक्ति - 11
  • सजग सज , दिल लगा तो भज , नहीं तज दोनों दीन से जायगा | - ज्ञान की चेतावनी - 11
  • सत्पुरुष ने सत्य और पुरूष के भाव को एक ही जाना और माना | - चेतना - 11
  • सत आ न | सता न | - भाव - 11
  • प्राणी की प्रेम की वाणी प्राणों में मोह भी उत्पन्न करती और मोह का हनन भी करती है । - भक्ति की चेतावनी - 11
  • मुर्दा कौन ? मुद , मुदिता को जो न जानें| - ज्ञान - 11
  • उपस्थिति में अस्वीकृति क्यों ? अनुभूति जो नहीं है | - ज्ञान - 12
  • अवलम्ब चाहता है , अविलम्ब अवलम्ब चाहता है किन्तु विलम्ब क्यों हो रहीं है उस कारण की ओर कब देखता है ? - भक्ति की चेतावनी - 12
  • राधा की बात ही सुनी थी आज जब मेरे श्याम का चित्र अंकित करने बैठा तो राधा ही हो गया | चित्र अब मेरे लिए विचित्र था | - भाव - 12
  • हरियाली क्यों चाहता है ? हरि के अभाव में सब का हरण । व्यर्थ ही जीवन और व्यर्थ ही मरण | - ज्ञान की चेतावनी - 12
  • फकीर को लकीर से क्या ? - चेतना - 12
  • दीनता से परे , बन्धु का बन्धुत्व | - भक्ति - 12
  • सन्देह की दृष्टि से न देख | देह बनी रहेगी , दाह बना रहेगा | - चेतावनी - 12
  • ज्योति - आँख में हो या हृदय में , प्राण में हो या प्रणय में , ज्योति ही है - जिसके अभाव में सब नीरस | - भक्ति - 13
  • धोबी , धो भी | धोता कहाँ है ? बार बार मैल - मेल कहाँ ? - चेतावनी - 13
  • कौन कह सकता है कि बोलने वाला कौन है ? बोल कर नहीं , अनुभव कर ही जान सकेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 13
  • भाग्य कह कर भगा जाता है - भाग्य से भागना कैसा ? जब स्वयं ही उसका कारण है , कर्त्ता है | - चेतना - 13
  • तू इतना प्रिय क्यों है ? तेरे प्यार से पूछ | - भाव - 13
  • सिद्ध की सिद्धि बहुत अच्छी , सिद्धि की विधि भी जान | - भक्ति की चेतावनी - 13
  • यह कैसा स्पर्श है जिसका पता भी नहीं लगता ? सूक्ष्म का स्पर्श , सूक्ष्म गति वाला जानें | - ज्ञान - 13
  • निरादर क्यों ? इनका निरादर ही भला है | आदर में दर क्या है , यह कहाँ जान पाये | - ज्ञान - 14
  • खोज कर लिख | खो कर लिख | - भक्ति की चेतावनी - 14
  • प्राणों में बस गया | बस गया , बस गया | - भाव - 14
  • अंधड़ आया , उड़ने लगे हलके | गुरु तो गुरु ही रहे | - ज्ञान की चेतावनी - 14
  • उसका विश्वास ? जो विचारों से खेलता है | - चेतना - 14
  • बोझा , बेजा कष्टदायक | - चेतावनी - 14
  • भाव और प्राण इतने मधुर क्यों ? प्राण स्थिति भाव गति | - भक्ति - 14
  • दस ने नौमी की तो एक का अन्तर मिटा | भक्त भगवान मिटा | - भक्ति - 15
  • दबा नहीं , रो पड़ेगा | - चेतावनी - 15
  • विश्वास शरीर का भी नहीं , फिर ? उसी का जिसने विश्व बनाया , विश्वास बनाया , विचार बनाया | - चेतना - 15
  • सत्य कब चाहता है ? नाम वाले को पुकारता है | यही सत्य है ऐसा ही समझता है | - ज्ञान की चेतावनी - 15
  • ध्यान से देखा , ध्यान में देखा | प्राण देकर देखा , प्राणों में देखा , फिर ध्यान , समर्पण ? - भाव - 15
  • जल पान कर तृषा मिटे | - भक्ति की चेतावनी - 15
  • फिर भी प्यार ? यही मेरा स्वभाव | - ज्ञान - 15
  • इन्हें चेतावनी दो | नहीं , चेत करें तो चेतावनी भली | - ज्ञान - 16
  • किसी को शाप , किसी को बाप - कहना क्या ठीक है ? - भक्ति की चेतावनी - 16
  • भाव भावे , कुछ न सुहावे | - भाव - 16
  • यह बुद्धि मुझे हँसने नहीं देती , यह मन मुझे शांत कब होने देता है , ये विचार मुझे तरसाते हैं , ये साधन मेरा धन भी पहचानने नहीं देते इसीलिए परेशान और भगवान होता हुआ भी अपने को इन्सान ही समझता हूँ | - चेतना - 16
  • मैंने किसको धोखा दिया ? मैंने किसको धोखा नहीं दिया ? जब ' सोहं ' कहकर भी धोखा ही देता और खाता है फिर कहना ही क्या ? - ज्ञान की चेतावनी - 16
  • किसका आश्वासन ? जिसकी आश न हो , श्वास का पता न हो | आश्वासन उसी का जो आसन लगा कर स्थित है - प्राण जिसमें स्थित है | - चेतावनी - 16
  • उदासीन क्यों ? उदासीन से उदासीन | मैं उन्हें सीने में बैठाऊँ और वे मेरा नाम लेना भी उचित नहीं समझते | - भक्ति - 16
  • हँस मत | हँसा | नजर में आ | दिल नजर हो | - भक्ति - 17
  • जगत का आदर चाहता है | जो गत है उसका आदर ? गत का सोच कैसा ? - चेतावनी - 17
  • सम आज तेरे सभी समाज | - ज्ञान की चेतावनी - 17
  • ग्रहण का नाम कर्म , दान का नाम कर्म , करने का नाम कर्म , चुप रहने का नाम कर्म | वाह रे कर्म | क्या ही अद्भुत कर्म है जो सब अवस्था का साथी है | - चेतना - 17
  • रंग इनको हे रंगीन | - भाव - 17
  • घृणा नहीं , प्यार भी नहीं | कर सके तो प्यार कर , किन्तु इसमें भी धोखा है | - भक्ति की चेतावनी - 17
  • पाषाण में भगवान ? पा , सान , नहीं पाषाण | - ज्ञान - 17
  • तृप्त की पहचान ? तप्त न हो , संतप्त न हो , धीर , वीर , गंभीर , प्रेम का नीर बहता हो , वस्तु के वश में न हो | तू , मैं का स्थान न हो | तृप्ति सहचरी , स्वयं तो स्वयं ही है | - ज्ञान - 18
  • प्यार में धोखा ? हाँ यदि शरीर का प्यार है | - भक्ति की चेतावनी - 18
  • त्रिकालज्ञ मैं हूँ - मैं तेरा था , मैं तेरा हूँ , मैं तेरा ही रहूँगा | - भाव - 18
  • चुप रहता हूँ तो कहता है , उठ बोल | बोलता हूँ तो कहता है , बैठ चुप रह | खूब रहा , किसी करवट चैन नहीं | - चेतना - 18
  • समझ आज , अब कहाँ समाज ? - ज्ञान की चेतावनी - 18
  • शान्ति की भ्रान्ति में न फँसा | तू मेरी ही है | भ्रान्ति की क्लान्ति को दूर कर | - भक्ति - 18
  • व्यक्ति तैने क्या नहीं व्यक्त किया ? पशु की तरह गुर्राता है , पक्षी की तरह चहचहाता है , कृमि की तरह छटपटाता है , पत्थर की तरह स्थिर हो जाता है , फिर भी तेरा पता तू ही नहीं पाता कैसा आश्चर्य है | - चेतावनी - 18
  • प्रकाश पर आवरण किसने फेंका ? तू ने या तेरे विचारों ने ? - चेतावनी - 19
  • हे प्यासे की आशा | क्यों , दिखा रही तमाशा | क्यों , दिला रही दिलासा ? - भक्ति - 19
  • पथ क्यों भिन्न ? जब इष्ट एक अभिष्ट एक | एक वाले का पथ भिन्न नहीं | मन साथ दे तो पथ नीचे मन ऊपर | - ज्ञान की चेतावनी - 19
  • गूंगा अपने ही इशारों में समझता है , वाकचतुर भाषा की चातुरी में | समझना ही काम चाहे गूंगा बने चाहे जिव्हा चलाये | - चेतना - 19
  • रो कर नही कहूँगा , तुम भी रोने लगोगे | - भाव - 19
  • शरीर शरीर है बात न सुन | बहुत कुछ चाहता और बोलता है - फैलता ही जाता है | - भक्ति की चेतावनी - 19
  • पुण्य अज्ञों का | पाप पाजियों का | आप , पाप पुण्य से परे जहाँ स्वतः हो रहा हरे - हरे | - ज्ञान - 19
  • योग में भोग है | भोग में योग है | अन्तर महान | महान से योग , योग और क्षुद्र से ? भोग ही भोग | - ज्ञान - 21
  • इन अन्धों को कौन समझाये , एक के अनेक रूप प्रतिक्षण | - भक्ति की चेतावनी - 21
  • कब तक प्रतीक्षा करुँ ? प्रारंभ से प्रलय प्रतीक्षा है | - भाव - 21
  • मुझे किसने थकाया ? ममत्व ने | मुझे किसने उकसाया ? ममत्व ने | मैं से ममत्व - समझ 'स्व' तत्त्व | - चेतना - 21
  • देख कर सीख , देकर सीख | दे दिल , देख निर्गुणी का गुण | सीख हुई अब लीक | - ज्ञान की चेतावनी - 21
  • प्रीतम की सेज प्रेम | प्यार का दरबार - जहाँ हार की बहार , जीत का श्रृंगार | - भक्ति - 21
  • आया था आश्वासन देने , आसन जमा कर बैठ गया , कैसे छुटकारा ? - चेतावनी - 21
  • शरीर ही संसार | शरीर में नहीं खोजता , संसार में खोज रहा है - शरीर के निर्वाह के लिये धन | व्यर्थ है - भाव ही धन है | - चेतावनी - 31
  • सूरत देखी - तो गीता भूल गया | - भक्ति - 31
  • क्यों बातें बनाता है , साधना कर | साधना करूँ किस की ? भक्त की , भगवान की या निज की ? यह भी भ्रम है मन का | अनेक जन्म की साध पूरी हुई जब तुम मिले | - भाव - 31
  • आकाश ने कहा - अवकाश ग्रहण करना कौन चाहता है | अवकाश ले तो आकाश ही है | - चेतना - 31
  • राम ने स्थूल राक्षसों को मारा | नाम ने सूक्ष्म असुरों को और खुद ने खुदी को मार काम बनाया | - ज्ञान की चेतावनी - 31
  • बिछुड़ा कब ? जो योग हो | - भक्ति की चेतावनी - 31
  • मूल संख्या में मूल जोड़ा तो शून्य हुआ और एक रहा | एक न रहे तो संख्या का आधार कहाँ ? - ज्ञान - 31
  • देखते ही भूलता है | भूलता क्या ? दिल झूलता है | - ज्ञान - 41
  • आज के गीत प्राणों को शांति दें | प्रार्थना नहीं , प्राण चाहते हैं | - भाव - 41
  • यह वाणी - बुद्धि को भ्रमित करने के लिए | - चेतना - 41
  • वश में होता तू , यदि वस्तु में देखता है , बस तू बस तू | - ज्ञान की चेतावनी - 41
  • पूजा तो करनी ही पड़ेगी , ज्ञान की या विज्ञान की या अज्ञान की | - चेतावनी - 41
  • प्रकृति की शोभा ही मुग्ध करती है - फिर प्रभु ? देख पाता तो क्यों भटकता ? न प्रभु भटकता और न भक्त | - भक्ति की चेतावनी - 41
  • कच्चा है , अभी बच्चा है | बड़े चतुर ! पका तो कहा आपका , और हुआ आपका | - भक्ति - 41
  • हृदय है तो हृषिकेश के लिये | - भक्ति - 51
  • रिझाना ही झुकाना है | - भक्ति की चेतावनी - 51
  • अवस्था देख कल्पना न कर कि केवल कष्ट है | दुःख यों है कि न राम जाना न काम जाना | - ज्ञान की चेतावनी - 51
  • डरता है और मरता है | डर हर | - चेतावनी - 51
  • धन्य रे जगत , सत्य से उत्पन्न होकर असत्य ही भासता रहा ज्ञानियों को | - चेतना - 51
  • याद भूल में जीवन बीता | याद करूँ कब | तुम्हारी याद भूल नहीं पाता | - भाव - 51
  • ज्योति जो थी , वह अब भी है | गई कहाँ ? रही यहाँ | - ज्ञान - 51
  • दो का आकर्षण | एक का शून्य | - ज्ञान - 61
  • अब तक किसी ने अपनाया न था | समझता था कौन अपनायेगा ? क्या कहूँ - तुमने अपनाया | भय न रहा , अपने को जाना अब तो तुम्हीं मेरे | - भाव - 61
  • स्नान , बाहर संसार करता है , भीतर तो कोई कोई करता है | - चेतना - 61
  • पहचान " मैं " कौन ? - ज्ञान की चेतावनी - 61
  • काल और कल के लिये विकल | कहाँ गई अक्ल ? - चेतावनी - 61
  • रक्त मांस तो आसक्ति है , प्रेम स्पर्श भी नहीं चाहता , वह तो मिलन चाहता है जहाँ शरीर नहीं , शरीर का भाव नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 61
  • गड़ा धन बना , झगड़ा मिटे | अपने को मिटा , झगड़ा मिटे | - भक्ति - 61
  • कुछ बोलो रस घोलो | - भक्ति - 71
  • पुस्तक पूजा , स्थूल | सूक्ष्म , भाव पूजा | कारण पूजा का जहाँ विकास है | - भक्ति की चेतावनी - 71
  • तीनों लोकों में यह साढ़े तीन हाथ वाला कौन है जो चार हाथ की कल्पना में कलपता है ? - चेतावनी - 71
  • गुरु और गोविन्द में गुरु बड़ा , लेकिन क्यों ? गोविन्द को बताया | जी नहीं - गोविन्द ही बनाया | - ज्ञान की चेतावनी - 71
  • तुम्हारा जन्म ? तुम्हारा जन मैं | मेरे लिये जन्म तो जन मैं | तुम ? क्या कहूँ - कहना नही बनता | - भाव - 71
  • धर्म कर्म में बदल गया | ज्ञान ? ज्ञान ने धर्म , कर्म का मर्म समझाया | - चेतना - 71
  • सुनी तेरी वाणी | है ब्रह्म - नहीं प्राणी | - ज्ञान - 71
  • पूजा थी पूर्णता - और आज पूजा - दूजा | संज्ञा क्रिया बनी | क्रिया ही प्रधान - कर्त्ता को कौन पूछता है किन्तु यह क्रिया किसकी ? - ज्ञान - 81
  • हर्षित मम आत्मदेव , पुलकित मम गुरुदेव | रोग , शोक , दुःख , भय आज नही , स्वयं निर्भय | - भाव - 81
  • बाईं ओर मेरा हृदय और दाहिनी और मैं | हृदय के बिना मैं ? ( कुछ नहीं ) | - चेतना - 81
  • मन के राजा हैरानी ? है , रानी फिर क्यों यह परेशानी ? - चेतावनी - 81
  • पूर्ण का खंड नहीं | मान भी लो तो पूर्ण - पूर्ण ही है | चीनी में मिठास ही मिठास | - ज्ञान की चेतावनी - 81
  • जगमग ज्योति जले | जग , मग ज्योति जले | - भक्ति की चेतावनी - 81
  • ये कहते हैं मैं तेरा नहीं , इन्हें विश्वास दिला दो कि मैं तेरा हूँ | - भक्ति - 81
  • मन चार प्रकार के काम करता है | (१) गधा - केवल राख ही में खेल करता है | (२) मक्खी - मिठाई और मल पर बैठती है | (३) भ्रमर - भिन्न रस पान , एक का नहीं | (४) मेढक - अमृत सर में गोता लगाता है और किनारे पर आता है | - ज्ञान - 90
  • शिष्य चार प्रकार का , - (१) नाम का ( नाम मात्र ) ( २) काम का ( भोग ऐश्वर्य ) ( ३) आराम का ( मानसिक शान्ति ) ( ४) राम का ( रमने के लिये ) | - ज्ञान - 91
  • रज से भी कुछ न सीखा | रज बनता तो संसार को फूल देता , फल देता | - चेतावनी - 91
  • शरमाई नजरों से देखा तुम्हारी ओर , भरमाई नजरों से तुम्हारी माया की ओर | अब तुम्हीं जानो क्या था और क्या है ? - भाव - 91
  • गर्वीली दुनिया ने गर्व दिया , गर्भ दिया | गर्व में फूलती रही , गर्भ से एक अनेक होते रहे , शांति कहाँ ? - चेतना - 91
  • यह क्या प्रीति का उपहार ? सीता - असती कही गई ? राधा - पापिनी , कलंकिनी क्या यही तेरा उपहार है ? - भक्ति - 91
  • ( सीना ) तान कर कह , सीने में तू | - भक्ति की चेतावनी - 91
  • वायु ने दुर्गन्ध को इस प्रकार प्रवाहित किया कि अब उसका पता न चला | - ज्ञान की चेतावनी - 91
  • प्रिया के हृदय में प्रिय का नृत्य - रस विभोर हो गई गोपियाँ | - भक्ति की चेतावनी - 100
  • एक दिन आँख उठाकर देखा मैं न था | - भक्ति - 100
  • आवरण ? आवरण न करूँ तो शुद्ध - बुद्ध पर कौन मुग्ध हो ? - चेतना - 100
  • कमरे में बिजली जल रही थी , रहने वाले का पता न था | जलती हुई छोड़ गया | जलती रहेगी | - भाव - 100
  • खेल का ख्वाब भयानक , खेल- खेल , करले मेल | - ज्ञान की चेतावनी - 100
  • दे मन कि दामन छूटे ( दुनिया से ) | - चेतावनी - 100
  • उपासना केवल प्रकृति ही करती है - पुरूष नहीं | पुरूष तो कृपा करता है , उपासना नहीं | स्वयं पुरूष है , कार्य कारण प्रकृति है | - ज्ञान - 100
  • प्रकृति की उपासना-विज्ञान की उपासना है | ज्ञान में तो जानना मात्र है | - ज्ञान - 101
  • मूल में ही भूल | मिटे कैसे शूल | - चेतावनी - 101
  • काल और गति | क्या काल गति है या गति ही काल है ? लोग कहते हैं काल की गति | - चेतना - 101
  • शक्ति , पशुओं में भयानक , किन्तु शांति में भक्ति ही बन जाती है | - ज्ञान की चेतावनी - 101
  • मैं लुटा जाता हूँ और तुम चुप हो | घर में उपद्रव और तुम मौन ? अब तो बोलो देव - बलदेव | - भाव - 101
  • एक दिन सिर झुका कर देखा मैं न था | - भक्ति - 101
  • रस बरसे , मन तरसे | क्यों न हरसे , जब बरसे | - भक्ति की चेतावनी - 101
  • गो लोक के रास की कल्पना की , क्यों न गो लोक में प्रत्यक्ष रस चक्खा ? - भक्ति की चेतावनी - 102
  • तूती बोले तेरी , थके महाजन हेरी | - भक्ति - 102
  • तुम्हें कौन सी वस्तु चाहिये ? बस , तू चाहिए | - भाव - 102
  • क्षोभ से मोक्ष पाया तो मोक्ष ही मोक्ष | मर कर मोक्ष शरीर का , मन का मोक्ष तो भाव में है | - ज्ञान की चेतावनी - 102
  • ख़ुद न हुआ राजी | जैसा हाजी वैसा पाजी | - चेतावनी - 102
  • दीन तब तक - लीन न जब तक | - ज्ञान - 102
  • कर्त्ता में ही कर्म क्रिया छिपी है | ज्ञाता ही ज्ञान ज्ञेय का स्वामी है | जरा सोच | - चेतना - 102
  • माँ का स्तन पान करने वाला शिशु माँ के स्तन पान की कभी कभी आँटी ( प्रक्रिया ) भूल जाता है | जब तक फिर पीने न लगे - तब तक रोता है | आत्मानन्द की क्षणिक भूल है | - ज्ञान - 103
  • मिठाई और नमकीन जीभ के स्वाद बने , फिर भलाई और बुराई में मन क्यों छटपटाता है ? - चेतावनी - 103
  • भूलूँ तुम्हें ? ऐसा न कर | कीमत दूँगा | ' मत ' की कीमत अदा करूँगा - भाव - 103
  • जो प्यार और ज्ञान के लिये व्याकुल था आज अभिमान क्यों अपना बैठा | प्राप्ति प्यार की , बहार है ज्ञान की , फिर अभिमान ? सन्देह है अभी शंका है | - ज्ञान की चेतावनी - 103
  • लोहा हिला , ताव किसी का कमल खिला , भाव किसी का | - भक्ति - 103
  • भाव जाने तो भावुक | नहीं , भाव में आये तो भावुक | - भक्ति की चेतावनी - 103
  • खिलने वाला खिलता ही रहता है | मुरझाता है शरीर | वह भी रस हीन | - चेतना - 103
  • आध्यात्मिकता में भी संसारिकता की पुट है | - चेतना - 104
  • 'गूंगे का गुड़ ' तो मूक अवस्था है किन्तु गूंगा कब तक ? पा कर भी शांत रहा तब तक | पाया तो पिला | नहीं व्यर्थ बातें न बना | - भक्ति की चेतावनी - 104
  • जब जाना | तब माना | - भक्ति - 104
  • खिलकर झड़ना अच्छा , बिना खिले तो जन्म ही निरर्थक | - ज्ञान की चेतावनी - 104
  • धूली - देख मैं भूली |धूली धाम, धूली विश्राम , धूली धन्य , वही अनन्य | - भाव - 104
  • अरे यह द्रव्य द्रव हो रहा है किसे स्थिर रखना चाहता है ? - चेतावनी - 104
  • सर्वभूषन सम्पन्न सुन्दर स्त्री के स्तनों में दूध न हो तो बच्चे को दूध कैसे पिला सकती है ? विद्या , धन , रूप हो किन्तु हृदय में आनन्द का भाव नहीं तो सब निरथर्क | - ज्ञान - 104
  • लगन - मगन - लगन | प्रथम लगन लगे तो मगन होता जाता है | फिर लगन अर्थात् विवाह ( आत्मा - परमात्मा का एकाकार ) हो जाता है | - ज्ञान - 105
  • श्वास है , विश्वास नहीं ? प्राण है , प्राण पति नहीं ? - चेतावनी - 105
  • पाहन रज बना | सृष्टि बदल गई | लघु - विशाल या विशाल लघु | पता ही न लगा | लगी तो ऐसे से लगी कि भूल गया क्या छोटा क्या बड़ा | - भाव - 105
  • कम्पन क्यों ? मन निर्बल , तन जर्जर | - ज्ञान की चेतावनी - 105
  • अब प्रभात , सुनो बात | तेरा किस्सा , तेरी बात | - भक्ति - 105
  • क्यों पापी | पाया तो पी , नहीं तो पी पी बोल | पिय आये और दिल की जलन मिटाये | पपीहा की पी , पी , की आवाज नहीं सुनता | - भक्ति की चेतावनी - 105
  • भव्य भवन में धन छिपा है - धन नष्ट करो तो धन नष्ट होता है | उचित व्यवहार में धन की सार्थकता है | - चेतना - 105
  • जिसे दुनिया बाहरी कारणों से बड़ा कहती है उसे बड़ा मान | कैसे मानूँ मेरी आँखों में तो कोई और ही बसा है | - चेतना - 106
  • मेरी ओर भी देख | अनेक हैं तो क्या मैं अनेक में नहीं ? - भक्ति की चेतावनी - 106
  • राम आराम क्यों न कर सका ? सभी कहते आ राम | राम को कहाँ आराम ? - भक्ति - 106
  • जल में नमक समुद्र बना | नमक कहता है नम कः ? जल ही गति , जल ही स्थिति | - ज्ञान की चेतावनी - 106
  • मेरी आहें तेरी बाहें | पकड़ पाता तो छूट जाता ( गम से ) | - भाव - 106
  • लक्ष्मी के लिये जहाँ कथा , वहाँ नारायण चुप | - चेतावनी - 106
  • सूर्य चन्द्र जब एक सीध पर आते हैं तो पूर्णिमा होती है | बुद्धि - सूर्य , चन्द्र - मन , पृथ्वी - शरीर तीनों एक सीध पर आ जायँ तो पूर्णता आती है | - ज्ञान - 106
  • मन मरा , मैं नहीं मैं रमा , तू नहीं मैं रमा , वह नहीं जग मरा , यह सही जग मरा , सही वही जग पड़ा , कौन ? कौन ? वह मैं | - ज्ञान - 107
  • शव के रूप में घूम रहा है | शिव का भाव , शव को भी शिव ही बनाता है | - चेतावनी - 107
  • याद में तू - संवाद में तू | विवाद में तू धन्यवाद में तू | - भाव - 107
  • ले और दे , ले दे के क्या करना है ? स्थिति में भी क्रिया , क्रिया ही तुझे कर्त्ता बनाती | - ज्ञान की चेतावनी - 107
  • कृष्ण खींचता था या खिंचा चला जाता था | प्रश्न क्यों ? गोपियों से पूछो - उत्तर मिलेगा | प्रश्न न रहेगा | - भक्ति - 107
  • डर तो मर - नहीं तो अभय हो विचर | - भक्ति की चेतावनी - 107
  • सत्य की पहचान भी बाहरी चिन्हों से लोग करते हैं | क्या यह सत्य है ? तुम्हीं जानो यह सत्य है या उसकी परिछाईं ? - चेतना - 107
  • समीपता प्रभाव डालती है , निसंदेह | देह तो संदेह है | - चेतना - 108
  • पत्ते पत्ते में हरियाली | आली पत्ते पत्ते में हरि | - भक्ति की चेतावनी - 108
  • चले , चले , चेले चले | गुरु भले , हिले मिले | - भक्ति - 108
  • कण ने कहा - कुछ समझे ? मन ने कहा - कुछ समझे ? मैंने मन बनाया , मैंने तन बनाया | - ज्ञान की चेतावनी - 108
  • प्रेम योग का अवतार - कृष्ण | भाव योग तो प्रभु तुम्हारी ही देन है | - भाव - 108
  • चलने की चिन्ता , रहने की चिन्ता , खाने की चिन्ता पड़ी है | चिन्ता का दरवाज़ा बंद | अब निश्चिंत हो | कहीं आना न जाना , मगन रहना | - चेतावनी - 108
  • राम ने सीता त्यागी मैं ने गीता त्यागी अब गाऊँ क्या सुनाऊँ क्या रिझाऊँ क्या कुछ न कहूँ अपने में बहूँ | - ज्ञान - 108
  • निराकार और साकार - मन , बुद्धि , अहंकार , आत्मा का कोई आकार नहीं , शरीर का आकार है | काम निराकार और साकार दोनों में होता है | साकार शरीर निराकार मन से काम होता है | - ज्ञान - 109
  • दुनिया न देख , दिल देख , दिलवर देख , देखने का आनन्द आये | - चेतावनी - 109
  • लीला के मिस तुमने प्रेम लोक बसाया | प्रेम मोह बना , तुम अन्तर्धान हो गये | - भाव - 109
  • तन मन बिका , तन मन के लिये | - ज्ञान की चेतावनी - 109
  • क्यों भाये ? क्यों हरषाये ? जो हरषाये , गुरु आये , गुरु पाये , दिल पाये , दिल हरषाये | - भक्ति - 109
  • विचाराधीन क्यों ? विचार का धनी बन | - भक्ति की चेतावनी - 109
  • गति में व्याकुलता नहीं | गति , गति है , जहाँ विकलता नहीं | परिणाम विपरीत देख छटपटाता है | परिणाम गति नहीं | परिणाम स्थिति है | - चेतना - 109
  • संशय हो तो प्रशंसा ? प्रसन्न हूँ यही प्रशंसा | - चेतना - 110
  • मुस्कुरा हँसी आये | भक्ति है , भगवान आये | - भक्ति की चेतावनी - 110
  • नन्द दुलारे , बाबा हमारे | बन बन आशा ढूँढ़े बनासा हृदय पुकारे || जीवन बीते शरण तिहारे | - भक्ति - 110
  • जन जन का बना , तन मन के लिये | - ज्ञान की चेतावनी - 110
  • युग बीते , योग बदलते गए| तुम्हारा प्यार आज भी नवीन रूप में स्थित है| धन्य तुम्हारा प्रेम | - भाव - 110
  • भूखी - प्यासी दुनिया - वासना की | प्यार का रास्ता ही रस बरसाता , रस में मिलाता , रसमय बनाता | - चेतावनी - 110
  • अर्थ खिलोना - ज्ञानी और भक्त को नहीं दिया | - ज्ञान - 110
  • प्रकृति की साम्यावस्था की स्थिति वाले का जन्म नहीं | अधिक हुआ तो अवतारी | कम हुआ तो अभाव ग्रसित जीव बन आया | है तो वह पुरूष किन्तु अपनी शक्ति से , चेतन की शक्ति से अनजान | प्रकृति की भक्ति का अभिमान लेकर आया | - ज्ञान - 111
  • दु:खी क्यों ? प्रिय को देखा नहीं ? तब तो दु:खी होना स्वाभाविक है | - चेतावनी - 111
  • देर सबेर | मन का फेर | - ज्ञान की चेतावनी - 111
  • नर रूप धारण कर मैने माता - पिता सभी को संदेह में डाल दिया | समझ न सके | - भाव - 111
  • तेरी मेहरबानी ये बानी तेरी कदर दानी ये बानी नहीं परेशानी ये बानी | - भक्ति - 111
  • विश्वास दिला कर घात | फिर न रहे मूल न रहे पात | - भक्ति की चेतावनी - 111
  • दिल की बातें जब दिमाग से कही गईं तो बातों का रस ही न रहा | दिल तो ऐसा दिल चाहता है , जहाँ दिमाग की एक न चले | - चेतना - 111
  • स्मरण शक्ति को भक्ति और साधुता समझना , अनुभव का अभाव है | - चेतना - 112
  • मनमोहन में भी मन नहीं लगता ? कैसे मानूँ ? - भक्ति की चेतावनी - 112
  • मेरे बाबा ने मेरी बात मान ली | मेरे दिल की सही बात जान ली | - भक्ति - 112
  • ग्रहण ने रूप ही बदल दिया | - भाव - 112
  • घट ही घूँघट | घट का घूँघट | - ज्ञान की चेतावनी - 112
  • सूखा पत्ता भी काम का | तू चेतन किस काम का ? जब चेत न हुआ , सचेत न हुआ | - चेतावनी - 112
  • प्रकृति के भजन का अवलोकन करनेवाले को जैसे भजन से फुरसत मिल जाती है । शरीर जो प्रकृति का उद्यान है , उसकी प्रकृति को समझ कर व्यवहार में लाने से रोग से मुक्त हो जाता है तथा पुरूष प्रकृति के नृत्य अवलोकन करने वाले को रोग , शोक , मुक्ति से भी मुक्ति मिल जाती है | प्रकृति का खेल देखो - भूल कर भी खेलोगे तो भूल भी बनी रहेगी और खेल भी बना रहेगा | - ज्ञान - 112
  • रोग से मुक्त वही - जो प्रकृति को शरीर , मन , बुद्धि अहंकार का रोग दे डाले | दवा हवा हो जाती है , सौ की दवा , दया से ऊपर उठकर निज पुरूषत्व को स्वीकार करो | - ज्ञान - 113
  • भ्रम की दवा ? रम | राम में | - चेतावनी - 113
  • विचारों का प्रलेप कर , क्यों प्रलाप करता है ? - ज्ञान की चेतावनी - 113
  • प्रकृति ने गुण दिये किन्तु तुमने गुणातीत बनाया | - भाव - 113
  • आराम भवन , आराम भवन शत शत प्रणाम आराम भवन जुग जुग जीओ आराम भवन हम सुखियों का आराम भवन संत का प्यारा राम भवन आराम भवन , आराम भवन गुरु दरश कराया राम भवन निज रूप लखाया राम भवन आराम भवन , आराम भवन ।| - भक्ति - 113
  • पंथ देखा , ग्रंथ देखा , शांति कहाँ ? संत ने ग्रंथ की ग्रंथी का अन्त किया दर्शन मात्र से | - भक्ति की चेतावनी - 113
  • गुण की पूजा तो ठीक किन्तु गुण ग्राहकता ही पूजा है | - चेतना - 113
  • मिट्टी में सोना चाँदी को छिपाया और सुख शांति को | - चेतना - 114
  • खोये दिल की बात न सुन , कहीं तेरा दिल भी न खो जाय | - भक्ति की चेतावनी - 114
  • चोर नहीं चित्त चोर , ( तोड़ ) तोर नहीं , मन मोर लगी प्राणों की होड़ तोड़ी क्यों ? अब जोड़ , मेरे दिल की कोर , रात नहीं अब भोर - भक्ति - 114
  • कहकर सन्तोष करुँ , यह कैसे हो ? बोलते बोलते शब्दहीन और फिर ? लींन हो गया , तल्लीन हो गया | | - भाव - 114
  • यहाँ की बातें वहाँ ? नहीं यहाँ की बातें यहाँ | कुछ कहते हैं यहाँ वहाँ कहाँ ? है या नहीं जानों तो कहो | - ज्ञान की चेतावनी - 114
  • समय मिला , फिर तू क्यों न मिला ? - चेतावनी - 114
  • लोग कहते हैं कि प्रकृति के खेल का पता नहीं लगता - बात ऐसी नहीं है , खोजी को पता लग जाता है | रोग का निदान हो जायगा , दवा यहीं पीनी पड़ेगी | - ज्ञान - 114
  • दास तो कुछ समय के लिए सेवा करता है और चाहता है सब कुछ | चाहे बोले या न बोले | किन्तु स्वयं को तो दिन - रात काम पर ध्यान रखना पड़ता है जाये कहाँ ? - ज्ञान - 115
  • नेकी के गीत गाये | न एक की तो कैसी नेकी ? - चेतावनी - 115
  • अबोध की बातें अबोध | बातों में बातें , आगे गति नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 115
  • मैं कूड़ा साफ करता रहा - दुनिया फैलाती रही | तेरी ओर देखा तो कूड़े का पता नहीं | - भाव - 115
  • मैंने तो गीत गाये हैं , सुनाये नहीं | - भक्ति - 115
  • भूल शूल | याद शाद | - भक्ति की चेतावनी - 115
  • किताबें पढ़ीं , प्रेम के दीवानों का दिल न पढ़ा , विद्या अधूरी ही रही | - चेतना - 115
  • किसको किस पर न्योछावर करूँ , कुछ हो भी ? था तब भ्रम था | है , तब है ही नहीं | - चेतना - 116
  • " श्वास में वास " कहते सुना किन्तु भीतर बाहर का सम्पर्क आज भी अनजान | - भक्ति की चेतावनी - 116
  • जर जर को तू तर तर कर दे । - भक्ति - 116
  • आज मैं क्या कहूँ किसे कहूँ कि तुम क्या हो , किसके हो ? - भाव - 116
  • " मैं " पसन्द आई , हाँ पसन्द , ना पसन्द , मैं पसन्द आई , जग में मैं पसन्द आई | - ज्ञान की चेतावनी - 116
  • मुँह बनाने वाला यदि मुख देख पाता अपने प्रभु का तो अवस्था ही बदल जाती | - चेतावनी - 116
  • बलहीन , बल भी खो बैठा , हीनता स्वीकार की | किन्तु बलदेव ने बल दिया , देव बना , वेद स्वरुप दिखलाया | है न बलदेव | - ज्ञान - 116
  • ताल तो लता कुंजवाला जानता है | मैं तो अपने ही में गाता हूँ , समाता हूँ | - ज्ञान - 117
  • यह बेचैनी कल्पित | कल्पित के लिये बेचैनी क्यों ? - चेतावनी - 117
  • जरा बैठने दे | जरा जरा करते जरा आया , अब संभाल | - ज्ञान की चेतावनी - 117
  • हँस कर कहूँ या रो कर कि अब तुम मेरे हो | विश्वास मुझे है , जग की बात जग जाने | - भाव - 117
  • बरसत धारा हरषत हृदय हमारा | - भक्ति - 117
  • स्वर्ग , नरक ने हलचल मचा दी - प्यार वाला शांत | - भक्ति की चेतावनी - 117
  • लगा तार तो लगातार , नहीं कैसा लगातार | - चेतना - 117
  • अधिक तो धिक | कम तो नहीं गम | - चेतना - 118
  • सरल से कपट व्यवहार ? गरलवत् सिद्ध होगा | - भक्ति की चेतावनी - 118
  • पीसते पीसते पिस गया | - भक्ति - 118
  • दिखलाऊँ किसे - मेरा दिल तो तुम्हीं में रमा है | - भाव - 118
  • कौन सत्संगी ? मन या तन | मन सत् में समाया , और तन ? तन नत हो गया , और संगी ? संगी असंगी का | - ज्ञान की चेतावनी - 118
  • व्यक्त का वक्त आता है किन्तु अव्यक्त है अतः है ही नहीं , ऐसा क्यों मान बैठा ? - चेतावनी - 118
  • दो में दुनिया , दो से दुनिया | दोनों एक - कर्त्ता , क्रिया , कर्म , एक | - ज्ञान - 118
  • जान दे | जान ले | - चेतावनी - 119
  • सोया सो खोया | किन्तु अब जागा तो पाप भागा , पुण्य जागा | - ज्ञान - 119
  • हड़बड़ाने वाला - हरि बड़ा हर बड़ा कब कहता है | - ज्ञान की चेतावनी - 119
  • युगों की साधना सफल , दर्शन तो हुआ | - भाव - 119
  • गोपी - पीले श्याम - नीले रस पी रास रस में रास - भक्ति - 119
  • गोता लगाता तो गाता न रहता , रिझाता न रहता | - भक्ति की चेतावनी - 119
  • स्वीकृति ने , कृति प्रकृति के बन्धन से मुक्त किया | - चेतना - 119
  • दिवाली में ( ज्ञान ) दीपक जला , होली में ( उसकी ) हो ली | चैत प्रारंभ था फाल्गुन में फाग खेली और अंत हुआ ( कामना का ) | - चेतना - 120
  • ये अधिक बातें अपने को भुलाने के लिये या रिझाने के लिये ? - भक्ति की चेतावनी - 120
  • एक बार तुम मुझे पुकारो , एक बार तुम मुझे पुकारो | - भक्ति - 120
  • दम है तेरे कदमों के लिए | हरदम यह ध्यान बना रहे | - भाव - 120
  • पाप की भावना को पुण्य की भावना से बदल | राशिवाला , राशि वाले को बदलता है | ( कंस को कृष्ण , रावण को राम बदलता है ) - ज्ञान की चेतावनी - 120
  • दिल की शोध हुआ बोध | अब मोद ही मोद | - ज्ञान - 120
  • खुदा ने खुदा ही बनाया | जिनके दिल में खुदा , खुदा ही रहा - खुदा ही रहा | खुदा ही हुआ | - चेतावनी - 120
  • बस , सब मैंने जाना | मैं न जाना | तो आना भी है जाना | - चेतावनी - 121
  • जिसने गले में ग्रन्थ को , अंटी में धन को लगा रखा है उसी को तू धनी समझता है | व्यवहार उत्तम नहीं तो हार है जीवन की | - ज्ञान की चेतावनी - 121
  • प्यार किसने घोला प्राणों में ? तुमने या तुम्हारे प्यार ने | - भाव - 121
  • सुने बैन , खुले नैन | - ज्ञान - 121
  • मोहन , मोह नहीं , तुम कैसे मोहन ? मोह न लो , जादू डार कर , मोह लो , तो सब मोह दूर हो जाय , झगड़ा मिट जाय | - भक्ति - 121
  • ग्रंथों की पूजा की , पाठ भी किया किन्तु लाभ क्या उठाया ? - भक्ति की चेतावनी - 121
  • आकाश की छाया और जगत की माया | दोनों ही दूर | - चेतना - 121
  • छूटा वही त्याग | आया वही भोग | - चेतना - 122
  • प्रेमी की राह न देखी , गुण देखा , अवगुण देखा | प्रेम न अनुभव किया , न राह देखी , भूला कि भूलता ही रहा | - भक्ति की चेतावनी - 122
  • ठाकुर , मत ठुकराओ , दिल के साज सजाओ | ठाकुर कहता है मत ठुकराओ , दिल के साज सजाओ | - भक्ति - 122
  • लौ लगी , युक्त हुआ , मुक्त हुआ | - ज्ञान - 122
  • आली हरि आये - हरियाली छाई | सदा बहार - सदा बहार | - भाव - 122
  • दो पक्ष को एक ( मन ) पर ला , तो गति , स्थिति बनें | - ज्ञान की चेतावनी - 122
  • धर गिरधर या हरिहर | भार न रहे , चार न रहे | - चेतावनी - 122
  • ताना बाना में क्यों बँधा ? तू स्रष्टा , द्रष्टा , तुष्टा फिर कर्म उपासना किसकी ? - चेतावनी - 123
  • दे , ख , फिर देख , यति की ज्योति , सती का सत्य , अलख का लखना | - ज्ञान की चेतावनी - 123
  • देव बनाये , देवी बनाई | जब अपनी बन आई तब ... तब .... कहना क्या ? - भाव - 123
  • शिव जीव से कहता था सब मेरी विभूति - विभूति को विभूति समझ , तू ही शिव है | - ज्ञान - 123
  • उदासी तो तुम्हारी दासी है , उदास बने उदासी के दास बने , प्रभु दास सदा प्रसन्न , चूक नहीं , हूक नहीं | - भक्ति - 123
  • साध लीन - साधना पूर्ण | - भक्ति की चेतावनी - 123
  • विपरीत क्लिष्ट | अनुकूल इष्ट | - चेतना - 123
  • क्षुद्र खेल | क्षुद्र मेल | - चेतना - 124
  • कहता था भक्त बड़ा या भगवान ? न भगवान बना न भक्त | एक बनता तो जानता कि दोनों एक ही है | - भक्ति की चेतावनी - 124
  • एक लहर , एक नजर , एक ही नजर | - भक्ति - 124
  • मृत्यु यौं थी कि मैं तू में मन खेल रहा था | तू अमर है | " है तू है " यही अमर | - ज्ञान - 124
  • जल में मल कमल |जल देख ,कमल देख ,मल का गीत क्यों ? - चेतावनी - 124
  • वाणी बाँसुरी बनी | भक्त की भावना राधा , संत की भावना कृष्ण | दोनों विभोर वाणी में आत्मा परमात्मा का युगल मिलन | - भाव - 124
  • सुरंग में सुरंग खोज | - ज्ञान की चेतावनी - 124
  • रंग बिरंगे फल काम क्रोध लोभ हैं | इनका व्यवहार सीख | काम को प्रिय के काम में लगा | क्रोध से क्रोध कर , लोभ प्रिय दर्शन का | - ज्ञान की चेतावनी - 125
  • क्यों दुनिया बसाई , जब पर्दा ही रखना था ? प्रिय से पर्दा, तुझे शोभा देता है ? - भाव - 125
  • ध्यानी ध्यान में पाता है | क्यों नहीं ,चोर चोरी में पाता है धन | ध्यानी , चोर ? ध्यानी चित्त चोर का ध्यान करता है और चोर का चित्त तो केवल ध्यान ही में , वह भी कहलाने वाले में | - चेतावनी - 125
  • भविष्य अंधकार पूर्ण | गलत है , पूर्ण का भविष्य भी पूर्ण - भूत , वर्तमान का फिर कहना ही क्या ? - ज्ञान - 125
  • जाहिर हो , जहर न बन , तेरी मेहर , कहाँ जहर फिर तो महर ही महर | - भक्ति - 125
  • मेरा दिल देख , मेरा दिमाग देख | झगड़ते क्यों हो ? दोनों में प्रियतम को देखो कि देखने से भी फुरसत मिले | - भक्ति की चेतावनी - 125
  • मानसिक रोग | शारीरिक भोग | - चेतना - 125
  • तर अंग और प्रत्यंग यह तरंग | - चेतना - 126
  • मनन कर मन न रहेगा | भाव ही मन पर न्योछावर होगा | - भक्ति की चेतावनी - 126
  • बाबा ! बच्चों का स्वभाव , तेरा स्वभाव है तेरा नाम प्रिय क्यों है ? दे बल , ले बल , हे बालकों के बलदेव | यह तेरी पुकार | - भक्ति - 126
  • क्या कभी सोचा कि क्या हो रहा है ? सोचने का समय ही कहाँ ? यहाँ तो कर्म ही कर्म| धर्म में भी कर्म, धन में भी कर्म , ध्यान में भी कर्म | कर्म सरिता में मर्म आहत हो रहा है | - चेतावनी - 126
  • देखते देखते क्या डाल दिया आँखों में एक ही दीख पड़ता है | - भाव - 126
  • प्राचीन ऋषि मुनि क्या कहते नहीं आये कि इनको तजो , और तुम कहते हो इनको भजो | नहीं भजना कैसा ? भागना कैसा , इन्हें देखो या उपयोग में लाओ | - ज्ञान की चेतावनी - 126
  • दो को एक कर न सका तो कैसा ज्ञान ? 'ज्ञ ' भी तो दो अक्षरों के संयोग से बना है | - ज्ञान - 126
  • योग्य के लिये योग भी है , भोग भी | विराट के लिये विराट भाव - यही योग्य है | - ज्ञान - 127
  • क्रम ही विकास | ना ह्रास ना प्रकाश | - ज्ञान की चेतावनी - 127
  • कितना प्यासा है तू प्यार का ? पास रह कर भी प्यास नहीं बुझती तेरी और मेरी | - भाव - 127
  • क्या कभी गीता पढ़ी ? गीता पढने की है या गीत गाने की ? नहीं , नहीं गीता न पढ़ी और न गायी | आप ही रोम समाई जब मन भाई | - चेतावनी - 127
  • क्यों कथा ? मैं थका | - भक्ति - 127
  • मोदक का मोद बच्चों के लिये | मोद ही बड़ा मोदक है | - भक्ति की चेतावनी - 127
  • वख्त कहाँ कि भक्त बनूँ | कम बख्त - यदि कमबख्त कहे तो बुरा क्यों मानूँ ? - चेतना - 127
  • प्रण ही प्राण | प्राण ही प्रणव | - चेतना - 128
  • याद कर फरियाद कैसी ? - भक्ति की चेतावनी - 128
  • खता बता , मत सता | - भक्ति - 128
  • चोरी भी सतर्कता से की जाती है , फिर ध्यान लापरवाही से क्यों ? ऊपरी आँख बन्द फिर भीतरी गति , भीतरी ही दिखलाने लगी | क्या यही ध्यान है जिसका अभिमान है ? - चेतावनी - 128
  • बोल अनमोल थे जब हृदय से द्रवीभूत हो रहे थे | आँखों में तरी आई तो लोग कहने लगे - आँसू हैं | - भाव - 128
  • खिलने के स्थान पर रुठना , यह कैसी प्रकृति ? - ज्ञान की चेतावनी - 128
  • परिवर्तन जीवन | गति जीवन | सत्य स्थिति है | - ज्ञान - 128
  • अशरीरी से प्यार क्यों ? आत्मा अशरीरी , प्यार अशरीरी , परमात्मा अशरीरी | समान धर्मी में प्यार स्वाभाविक होता है | - ज्ञान की चेतावनी - 129
  • मुस्कराया तो इधर आया | - चेतावनी - 129
  • युग बदले , योग बदले किन्तु युगल न बदला | आज भी योग से पूर्ण है | अनुभूति है | - ज्ञान - 129
  • प्रेम तो हेम है , आलू नहीं सेम है | प्रेम क्या आग है ? रोटी के लिये शाक है | - भक्ति - 129
  • एक मिनट | नहीं एक मिन्नत | - भक्ति की चेतावनी - 129
  • श्रम विश्राम चाहता है | अनुराग प्राण चाहता है , जहाँ श्रम नहीं , गति में विश्राम है | - चेतना - 129
  • छोटे बच्चे आज तेरी बातें कहते _ कहते तेरे ही रूप में लीन हो गये | कृपा है कृपा | - भाव - 129
  • बाजे बज रहे हैं , लोग पूजा कहते हैं | ध्वनि में तू नृत्य कर रहा है , लोग अनजान हैं | - भाव - 130
  • तेरा नाम पवित्र | नहीं तेरी भावना पवित्र | - चेतना - 130
  • विश्वास पूर्ण न हुआ तो ? फिर भी विश्वास रख पूर्ण होगा | - भक्ति की चेतावनी - 130
  • बिहारी , मैं हारी | तू जीता , मैं वारी | - भक्ति - 130
  • एक ने फैलाया | एक ने बढ़ाया , एक ने मिलाया | एक में मिला - शांत | - ज्ञान - 130
  • शिव के वक्षस्थल पर काली खड़ी है , जब जान जायेगी तो जिव्हा आप ही निकल पड़ेगी | कल्याण पर भयंकर चंचलता का नृत्य हो रहा है | जब जाना कि शान्त हुआ | - चेतावनी - 130
  • फिर अव्यक्त कब व्यक्त ? वख्त आता है जब व्यक्त अव्यक्त का पता लगता है | - ज्ञान की चेतावनी - 130
  • बिन्दु में सिन्धु की कथा प्राचीन है | - ज्ञान की चेतावनी - 131
  • स्वर में स्वर मिलाने की चेष्टा | स्वर रहित कब होगा ? - चेतावनी - 131
  • संहार नही , संग आहार संग विहार , इसे मृत्यु कहूँ ? - ज्ञान - 131
  • हरि , अब क्या रही ? साधना , आराधना कामना , भावना | - भक्ति - 131
  • रागात्मक वृत्तीयाँ क्यूँ बेचैन ? वृत्ति तो वह घेरा है जिसे जाननेवाला ही जाने | - भक्ति की चेतावनी - 131
  • प्यार मर गया | नहीं , प्यार अमर है , आनंद अमर है , आत्मानन्द अमर है | - चेतना - 131
  • अनेक जन्मों की साध आज पूर्ण , जब पूर्ण को देखा , उसकी आँखों से | - भाव - 131
  • आज किससे कहूँ , कि जलता हूँ या प्रकाश देता हूँ ? जानने वाला ही जानता है | - भाव - 132
  • चिथड़ों को चुनने वाला पागल था किन्तु उल्टे सीधे विचारों को चुनने वाला शायद महा पंडित था | - चेतना - 132
  • खेल प्यार से | खेल से ही समाधी | - भक्ति की चेतावनी - 132
  • पिया रे पुकारे , आ रा ध ना | ( प्यारे पुकारे आ राधे ना ) | - भक्ति - 132
  • मैं तू की मृत्यु में , न मैं रहा न तू - ज्ञान - 132
  • विवश की विवशता पर न हँस , शायद विवशता ही न रहे | - चेतावनी - 132
  • अंश में वंश है | ना समझे ध्वंश ( डिग्री का अंतर ) लोम में प्रेम विलोम में घृणा | सरलता - वक्रता | सहानुभूति - जलन | दया - आवेश | करूणा - क्रोध | मुदिता - नापसंदगी | भक्ति - ईर्ष्या | प्रेम - घृणा | ज्ञान - अज्ञान | - ज्ञान की चेतावनी - 132
  • दिल की तरंगो का नाम काम क्रोध लोभ आदि है | तरंगों में बहेगा या उठती हुई को देख , देखने का आनन्द लेगा ? - ज्ञान की चेतावनी - 133
  • क्षणिक आराम भी जीवन की गति विधि बदलता है | - चेतावनी - 133
  • कर्म मकड़ी का जाल है | ज्ञान ने जाल से मुक्त किया किन्तु भक्ति तो डुबा देती है वृत्तियों को | - ज्ञान - 133
  • बाधा थी , राधा न थी | राधा होती तो मय हो जाती | वियोग सहती कैसे ? - भक्ति - 133
  • कदम उठाया उत्थान और रखा उसी को पतन समझ बैठा | यह तो गति है उत्थान पतन कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 133
  • तुम उघाड़ने में लगे हो और मैं ढकने में तुम्हीं बताओ कौन अच्छा ? - चेतना - 133
  • युगों से वर्षण हो रहा था अमृत | आज तुम दिखलाई दिये | - भाव - 133
  • देख कर भूलूँ या फूलूँ ? भूलूँ अभाव , फूलूँ कमलवत् | आज तुम दिखलाई दिये | - भाव - 134
  • स्थूल को छूकर क्या पाया ? छूआ छूत | - चेतना - 134
  • यह वासना , यह अंहकार | तुम इसे भक्ति ज्ञान कहते हो | भाव गिरा , भाव में आओ | - भक्ति की चेतावनी - 134
  • भक्त के हृदय तख्त पर भगवान शोभा पाते हैं | - भक्ति - 134
  • शून्य में भ्रमण करनेवाला ग्रन्थ रचता , फूला नहीं समाता | - ज्ञान - 134
  • गति वाले की गति कैसी ? - चेतावनी - 134
  • विचारों के दलों ने आच्छादित कर रखा है आत्म प्रकाश को , किन्तु कब तक ऐसी स्थिति रहेगी ? हृदय की विकलता ही विलीन कर देगी आच्छादन को | - ज्ञान की चेतावनी - 134
  • बुद्धि की विकलता , मन की चंचलता , तन की अस्थिरता में शांत , अनंत प्रज्ञान का आनन्द देख न सका तो व्याकुल ही रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 135
  • बदलता ही है तो दू को सु में बदल फिर बदलने की इच्छा ही न रहे | - चेतावनी - 135
  • निन्यानवे में एक मिला , सौ में सो जा | एक को लख | फिर शून्य तो शून्य है | एक नहीं तो सभी शून्य है | - ज्ञान - 135
  • गुरु प्रसाद बिन काज न होई | - भक्ति - 135
  • प्यार सन्तोष में स्नान कर , देख सम्मुख देव खड़ा , बलदेव खड़ा | - भक्ति की चेतावनी - 135
  • सजी प्रकृति से तू ने क्या लिया ? क्या लेता , देखा और चलता बना | - चेतना - 135
  • बेचा है तन , मन नहीं | मन मेरा तेरा | तन से चाहे अनेक काम क्यों न हों ? - भाव - 135
  • मन मिला , दिल खिला | प्राणों में जा बसा , अब जन्म कैसा ? - भाव - 136
  • प्रकृति मेरे प्यार को क्यों छीनती है ? वह तेरे प्यार के लिए तरस रही थी | - चेतना - 136
  • प्रकृति नर्तकी नृत्य करे तो करे | नर्तकी नर तकी ( नर तक ही ) नर को ताकती है तू तो पुरुषोत्तम है | तू क्यों सौंपता है धन ? हाव भाव में भूल गया कि तू कौन है ? तू वही है | - ज्ञान की चेतावनी - 136
  • इस प्राणमय लोक में भी मृत्यु ? है , जिनके प्राण प्राणपति के लिये व्याकुल न हों | - भक्ति की चेतावनी - 136
  • सर दे कर रस पाया | - भक्ति - 136
  • नयन दे वह दृष्टि पाई , सब जला नव सृष्टि पाई , आत्म ज्योति जगमगाई - अलख वीणा को बजाई | - ज्ञान - 136
  • गठबन्धन पार्थिव है अतः दोनों ही बन्धन | - चेतावनी - 136
  • कातर , कब तर | - चेतावनी - 137
  • तरी तरी ( जीवन नौका तरी ) तरी तरी ( आनन्द में आनन्द ) हरी हरी ( आनन्दित भाव ) भरी भरी ( पूर्णानन्द ) - ज्ञान - 137
  • बलबलाने वाला बल को क्या जाने ? बलदेव को क्या माने | - भक्ति - 137
  • मोह का हवन हो , प्रेम की सुगन्ध हो , फिर न जीवन हो , न जीव हो | - भक्ति की चेतावनी - 137
  • स्थूल का पुजारी तो प्रकृति पर बलिहारी | सूक्ष्म का पुजारी तो प्रकृति सदा हारी | कारण का रण खोज तो महाकारण में लीन हो | - ज्ञान की चेतावनी - 137
  • जहाँ रस नहीं वहीं बालू , किन्तु बालू में भी रस है , तभी तो खजूर जैसा मीठा फल होता है | - चेतना - 137
  • कैसा यौवन ? यौवन के प्रभात में कितने ही भिक्षुक आये | जीवन की संध्या में तुम्हीं ने अपनाया | कृतज्ञता ने मूक बनाया | - भाव - 137
  • वरण किया है वर्णन नहीं| वर्ण मेरा नहीं तेरा नहीं | फिर आवरण ? यह छल है या परीक्षा ? तुम्हीं जानो | - भाव - 138
  • समान है फिर भी अंतर रखा , समानान्तर है | - चेतना - 138
  • मैं आया | तुम्हे बुलाया | - भक्ति - 138
  • सीमित राग , असीम बैराग | - भक्ति की चेतावनी - 138
  • चंद्र मेरा मन , सूर्य मेरी आँखें | वेद यों भाखे | - ज्ञान - 138
  • वक्ता , यदि नहीं चखता , तो क्या चखायेगा ? यों तो बात बनायेगा -- समय बितायेगा | - चेतावनी - 138
  • स्थूल सूर्य एक ही दीख पड़ता है किन्तु सूक्ष्म आत्म सूर्य शून्य आकाश में अनन्त है | - ज्ञान की चेतावनी - 138
  • मन मानेगा , तब जानेगा | - चेतावनी - 139
  • कल्प कल्पान्त से संकल्प , विकल्प खेलते आये | खेल का अंत कब ? मन ने मना न किया और न माना | - ज्ञान - 139
  • हँसना चाहते हो या आनन्द | रोना चाहते हो या प्रेमाश्रु | - भक्ति की चेतावनी - 139
  • घर में प्रियतम पाये | अब बाहर क्यों मन भाये ? - भक्ति - 139
  • गुण पर मुग्ध , निर्गुण को कौन पूछे ? - ज्ञान की चेतावनी - 139
  • फूल तेरे काँटे तीखे हैं , चुभते हैं और याद दिलाते हैं कि फूल है | - चेतना - 139
  • कहने लगा , बहने लगा | न होश रहा न जोश | दूध में मिश्री - प्राणों में मिठास | अब क्या बात ? - भाव - 139
  • भिक्षुक सम्राट पद पर आसीन | अरे छलिया तेरी वाणी ने मुझे कहीं का न रखा | - भाव - 140
  • मिलती जुलती चीजों ने भ्रम पैदा किया | पहचानने लगा और भ्रम अब मर्म बतलाने लगा | - चेतना - 140
  • अरी , सुन तो | ना , री मेरा प्रियतम आया | न सुनूँ न सुनाऊँ | कैसे प्रियतम के मन भाऊँ , या वाही में समाऊँ ? - भक्ति - 140
  • धर्माचार्यों ने झाड़ू ली तू जल ले | जो काम झाड़ू से न हुआ वह जल से होगा | कर और देख | - भक्ति की चेतावनी - 140
  • माया - जान गई शान गई ब्रह्म - तो जान गया तो जान गया , मान गई जान गया , तो जान गया पहचान गया | - ज्ञान - 140
  • मन मानी , कब जानी ? - चेतावनी - 140
  • गुणातित ही निर्गुण , फिर यह कहना न बन पड़ेगा " प्रभुजी मेरे अवगुण चित्त न धरो " - ज्ञान की चेतावनी - 140
  • सम्बन्ध - ही बन्ध , भावना में - अन्ध , क्यों बिन्दु ? क्यों सिन्धु ? हे बन्धू ? - ज्ञान - 141
  • मन - मनमोहन सोहं सोहं | - चेतावनी - 141
  • स्पर्श कर चरण हृदय से , रोम रोम पुलकित हो | - भक्ति की चेतावनी - 141
  • बाबा ! लोग साधना की कहते हैं | मुझे तो तेरा सा धन मिला | - भक्ति - 141
  • शरीर रहते निर्गुण कैसे हो ? शरीर तो साधन है | गुण और निर्गुण तो भाव है | भाव से ऊपर | - ज्ञान की चेतावनी - 141
  • अब किसकी निन्दा किसकी स्तुति जब समझा की विपरीत और अनुकूल का झूला चक्कर में है | - चेतना - 141
  • भुलावे में न डाल | देख दुनिया ने मेरी शांति छीन ली | तू तो मेरे प्राणों का ग्राहक है | - भाव - 141
  • चुप रह कर सब पाया | भक्त पाये , आनंद पाया | - भाव - 142
  • कर्म को प्रधानता दूँ या धर्म को या मर्म को या प्रणय को ? - चेतना - 142
  • अतीत कैसे हो ? बिता सो अतीत | बीत-राग , अहा भाग्य | - ज्ञान की चेतावनी - 142
  • मैं क्या चाहता हूँ ? एक का होना | तुम क्या चाहते हो ? मैं में समाना । - भक्ति - 142
  • माला में दाने देखे , फूल देखे , एकता न देखी जिसने सब का हृदय एक कर दिया | - भक्ति की चेतावनी - 142
  • समुद्र का नमकीन जल मीठा जल बन गया , कैसा चमत्कार है ? किन्तु तू न बदल पाया मन को , प्रकृति को | - चेतावनी - 142
  • बनना नहीं , होना | तुम हो न , यही वेद का मर्म है | - ज्ञान - 142
  • लागी रे , अब लागी रे , भागी रे , दुर्मति भागी रे , जागी रे , ज्योति जागी रे | - ज्ञान - 143
  • ये प्रकृति के खेल हैं -- खेल कह कर , खेल न कर | - चेतावनी - 143
  • प्यार बलि चाहता है अहं की | बलि दे या बलिहार जा | - भक्ति की चेतावनी - 143
  • खेलते खेलते , कहाँ चले गये ? गया कहाँ ? तुम खेलते चलो , मैं हूँ न | - भक्ति - 143
  • पुराना - पुराण पुराना , वेद पुराना | फिर नया ? न या , यह नहीं - कुछ नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 143
  • सरल को समझदारों ने गरल सा बनाया पुस्तकों के आधार पर | - चेतना - 143
  • शरीर में हृदय है यह सुना और देखा तस्वीर में | यदि तस्वीर हृदय में खिंच जाय तो क्या हो ? होना कैसा - कहेगा तुम हो न अब मैं क्या कहूँ ? - भाव - 143
  • कान्त! क्यों आग लगाई दिल में ? एकान्त चाहता हूँ | नहीं तो दिल का राज जान पायेगी दुनिया | - भाव - 144
  • एक सोता है और एक जागता है , कैसे जानूँ कि दोनों एक ही हैं | एक भक्त बनता है और एक भगवान , कैसे जानूँ की दोनों एक ही हैं | - चेतना - 144
  • और की ओर फिर अपनी ओर कब देखेगा ? - ज्ञान की चेतावनी - 144
  • शंख किसने फूंका ? बाबा ने | बच्चे नाच उठे | हरि हर बोल | - भक्ति - 144
  • फूल चंदन में ही भक्ति बह गई तो , हृदय का स्थान कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 144
  • आगे बढे तो प्रकृति अनुसरण करे , अनुकरण करे | - चेतावनी - 144
  • क्यों हैं न मेरा रूप ? धूप जला अब धूप | - ज्ञान - 144
  • अब घर पाया | या अब घर आया | भरम मिटाया | हाथ में हाथ मिलाया | - ज्ञान - 145
  • प्रकृति प्रधान तो पीछा करता - करता थक जाएगा | - चेतावनी - 145
  • मैंने सूर्य की किरणों के रूप में तुम्हें स्पर्श किया | तुम भी भाव की भाप बन ऊपर उठो और बरसाओ प्रेम जल को प्यासी दुनिया तृप्त हो | - चेतना - 145
  • और का कब ओर छोर ? - ज्ञान की चेतावनी - 145
  • किससे कहें किस्से , कहानी अपने दिल की | - भाव - 145
  • दास क्यों उदास ? प्रभु दर्शन बिना | - भक्ति - 145
  • मम बन , मर्म जानें , धर्म जानें , कर्म जानें | - भक्ति की चेतावनी - 145
  • फाल्गुन फिर आया | गुण , निर्गुण का खेल छोड़ | खेल फाग , हो जा बाग-बाग | - भक्ति की चेतावनी - 146
  • लिखना उनके लिए जो खिलना जाने | - भक्ति - 146
  • प्राणों में पाया , जब तुमने दिखाया , तुम्हारी बातों ने रिझाया | - भाव - 146
  • मैं की ओर ' मोर ' | मन मोर नाचा , शोक भय भागा | - ज्ञान की चेतावनी - 146
  • बह कर जायगा कहाँ ? समुद्र में | तो बहने दे भाव , बदलने दे भावना | - चेतना - 146
  • देखता नहीं तू कहाँ स्थित है | सूर्य पीछे , चन्द्र आगे | - चेतावनी - 146
  • वाह रे , हरे हरे भरे भरे | - ज्ञान - 146
  • व्यक्त होते होते व्यक्ति , व्यक्ति ही समष्टि , यह दृष्टि ही वह दृष्टि , इसकी पुष्टि ही संतुष्टि | - ज्ञान - 147
  • चन्द्र तेरी परिछाँई , सूर्य का प्रकाश तुझे स्पर्श न कर सका | - चेतावनी - 147
  • कर्म का क्रम रहा , कम न हुआ , जब तक भोगेच्छा है | - चेतना - 147
  • याद आँसुओं में बदल गई | गई कहाँ? बदल गई कहाँ? याद बनी रही तरो ताजा | तुम्हारी याद थी , मेरे स्वामी| | - भाव - 147
  • उत्साह में भी आह खोजता है ? तो फिर शरीर भंग , मन भंग | - ज्ञान की चेतावनी - 147
  • सदा एक रस प्रतीत क्यों नहीं होता ? अपनी दशा देखो , समझ सकोगे | - भक्ति - 147
  • बच्चे ही सच्चे | और ? मिथ्या गाल बजाते | - भक्ति की चेतावनी - 147
  • मित्र को निमित्त बनाता , महाभारत रचाता , वह कौन है ? तुम्हारा सखा , श्याम | - भक्ति की चेतावनी - 148
  • अगाध क्या है ? आनन्द सागर | - भक्ति - 148
  • चंचल मन चल , जहाँ गति शांत हो | - ज्ञान की चेतावनी - 148
  • सब पर आवरण देखा । आवरण को बताने वाले पर भी आवरण । आवरण हटा , जब आई निर्मल की छटा । दिल तेरे चरणों में सटा , अब हटा , अब हटा । जब आई निर्मल की छटा । - भाव - 148
  • बुलबुला देखा , वायु का खेल देखा | अभी खिलाती , अभी मिटाती | - चेतना - 148
  • ध्यान देगा तो ध्यान आयेगा | - चेतावनी - 148
  • तुम्हारे स्वप्न कब प्रत्यक्ष ? वह रूप कब समक्ष ? जीवन का अब वही लक्ष्य | आवे समक्ष होकर प्रत्यक्ष | - ज्ञान - 148
  • ये पुकार , क्यों बेकार ? लक्ष्मीपति तू ही | - ज्ञान - 149
  • मन के पीछे बुद्धि या बुद्धि के पीछे मन | - चेतावनी - 149
  • कह बाबा की बात | माँ सब जानती है | बाबा मेरा मैं बाबा का , कहूँ क्या ? यह भी क्या कहने की बात है ? - भाव - 149
  • वाणी गुँजी , घट झंकृत | जड़ में चेतन गूँज रहा है | - चेतना - 149
  • तुम सुनते भी हो ? मुझे पुकारता ही कौन है ? - भक्ति - 149
  • चंचल तो चलता ही है | नहीं , चलता नहीं , चक्कर काटता है , छटपटाता है | चाल निश्चित लक्ष्य की ओर , और तो चाल नहीं , बेहाल | - ज्ञान की चेतावनी - 149
  • गुलाब ने कहा गुलाल ले | अबीर ने कहा - अब देर न कर | प्राण गुलाल , दिल अबीर | - भक्ति की चेतावनी - 149
  • हाथ पैरों से तैर कर पार करना चाहता है , जानता नहीं , ये तो यहीं पड़े रह गये | अरे मन से तैर कि दोनों किनारे एक हो जायें | - ज्ञान की चेतावनी - 150
  • बलहीन , बल भी खो बैठा , हीनता स्वीकार की | - भक्ति - 150
  • मुझे कपडा़ न दिखा , गहने न दिखा | दिखा मुख , जिसके बिना कहाँ सुख | सुख से आनंद में समाऊँगा , तब दुनिया भूल जाऊँगा | ऐसा सुना था - अब देखा है| - भाव - 150
  • मन मलीन तो बुद्धि प्रधान | मन निर्मल तो बुद्धि समाधान | - चेतावनी - 150
  • पंचम तल्ला - परमात्मा चौथा तल्ला - आत्मा तीसरा तल्ला - अहंकार दूसरा तल्ला - बुद्धि प्रथम तल्ला - मन आँगन - स्थूल सड़क - खेल | - ज्ञान - 150
  • तरंग में ' तू ' रंग , तरंग में तुरंग , तरंग में मैं रंग | तरंग व्याकुल नहीं - कूल किनारा पाती है और लौट आती है | - चेतना - 150
  • मल गुलाल मैल न रहे | होली तो होली | - भक्ति की चेतावनी - 150
  • ग्रहण न किया - कहता रहा चन्द्र ग्रहण , सूर्य ग्रहण | स्नान से ही फुरसत | ग्रहण से क्या ग्रहण करता | - भक्ति की चेतावनी - 151
  • कथन में भी क्रिया है किन्तु कथन मात्र | - चेतना - 151
  • दल बाँध कर बादल आये | सिर पर घिर आये | किन्तु चली पवन , हुआ ( उनका ) हवन | मँडराने वाले घबड़ा उठे | अच्छा प्रकृति का खेल है | ( विपत्ति के भाव ) - ज्ञान - 151
  • घाव में चीनी भी घाव पैदा करती है | - चेतावनी - 151
  • तुम्हे पाने के लिये मैंने आज हृदय दीप जलाया , श्वास की सुगंध फैलाई! मेरे रोम रोम के स्वामी मैं विवश हूँ अब तो मेरा कहने को कुछ भी न रहा | - भाव - 151
  • किन्तु बलदेव ने बल दिया , देव बना , वेद स्वरुप दिखलाया | है न बलदेव | - भक्ति - 151
  • हाथ पैर पर विश्वास , अपने पर विश्वास नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 151
  • ग्रन्थ ग्रन्थी खोलेंगे , पागल है | खोलने बाँधने वाला तो तू है | - ज्ञान की चेतावनी - 152
  • बलहीन आत्म प्रसाद खो बैठा , बलदेव ने आत्म परिचय दिया और प्रसाद भी खिलाया , प्रस्फुटित किया , है न , बलदेव | - भक्ति - 152
  • गति के गीत | कहाँ प्रेम कहाँ मीत ? - चेतना - 152
  • दीप ( शरीर ) जले निर्वाण के लिये | अमर दीप (आत्मा ) जला , अमर संदेश और प्रकाश के लिये | बुझना मुक्त होना कब हुआ ? लय हो रहा है अमर में | प्रकाश स्वयं फ़ैल रहा है | यह अमर ज्योति है | - भाव - 152
  • वाणी का वाण , प्राणों में विकलता , चंचलता , स्थिरता का भाव पैदा करता है , फिर प्रयोग सीख , योग सीख | - चेतावनी - 152
  • भाड़ में चना नाचता है , क्योंकि यह उसका अन्तिम नाच है | - ज्ञान - 152
  • गीत से रिझेगा कौन ? अर्पण कर , शांत हो | - भक्ति की चेतावनी - 152
  • पाप पुण्य भय से | प्रेम तेरा धन है | - भक्ति की चेतावनी - 153
  • नटी और नट ने नाचते नाचते नचा डाला दर्शकों को , इनका तन नाचता था और उनका मन | - ज्ञान - 153
  • ऊँचा वही , जो पहुँचा | ऊँचा प्रथम अक्षर ही अक्षर बनाता है | - चेतावनी - 153
  • आँसुओं का अर्ध्य अर्पित करूँ ? और क्या चाहते हो ? - भाव - 153
  • बातों की दुनिया से परे , और भी है | - चेतना - 153
  • तू कौन याद कर , दया क्यों चाहता है ? याद भुलाई , दया का पात्र बना | - भक्ति - 153
  • खुश होता है पढ़ कर , खुश होता है दे कर | वाह क्या खूब ? खुशी किसकी है जरा देख | - ज्ञान की चेतावनी - 153
  • भोग शरीर , तो योग आत्मा | शरीर का भोग रोग | आत्मा का योग योग | - ज्ञान की चेतावनी - 154
  • दरशन दे , अभी तरसन दे | अब तो दरशन दे , मन हरषन दे | दे , दे , दिल दे , अरमान दे , अभिमान दे , प्राणों का भान दे | - भक्ति - 154
  • बात का चक्र चला , चलता ही रहा | स्थिति , गति बातों में नहीं | - चेतना - 154
  • स्वामी ! ऐसी बात न कहो - मेरे प्राण व्याकुल हो रहे हैं | - भाव - 154
  • वह कौन सी बिजली जली जिसने रोम रोम को प्रकाशित कर दिया | वह बीज की बिजली थी जिसमें चर अचर व्याप्त थे | - ज्ञान - 154
  • पत्र रिक्त नहीं - भय क्रोध से पूरित कर रखा है | उढ़ेल आसुओं से | - भक्ति की चेतावनी - 154
  • प्रशंसक भी यदि शंका रखता है तो दुःख है | शंका की निवृत्ति कैसे हो ? - चेतावनी - 154
  • शोक कोसों दूर , यदि राग अनुराग को समझे | - चेतावनी - 155
  • ना उड़ना है न छिपना | प्रकाशित कर अपनी प्रेम सत्ता को | - भक्ति की चेतावनी - 155
  • शब्द से संसार , शब्दमय संसार , शब्द की झंकार , यह इस पार यह उस पार | - ज्ञान - 155
  • मन कहाँ लीन जो " मैं " का पता नहीं | - चेतना - 155
  • ये गालियाँ , ये गलियाँ याद रहेंगी - अलविदा | ये समुद्र की लहरें, ये लोरियाँ याद रहेंगी - अलविदा | - भाव - 155
  • तू है तो राधा भी है , श्याम भी सीता है राम भी - तू न होता तो कुछ न होता , कौन गाता ? कौन रिझाता ? - भक्ति - 155
  • बादल बदला - हवा हवा हुई | आकाश शाबाश | - ज्ञान की चेतावनी - 155
  • बादल टकराये | बिजली चमकी - तूफान उठे | आकाश शाबाश | - ज्ञान की चेतावनी - 156
  • आराम ही आराम | काम का क्या काम , न चाम और न दाम , न श्याम और न राम , आराम ही आराम | - भक्ति - 156
  • कुछ निराकार कुछ साकार के गीत गाते हैं | और तू ? क्या कहूँ वह दोनों से परे समाया हुआ है | वह ज्ञानी कैसा जो अभिमानी हो ? वह भक्त कैसा जो व्यक्त करने के लिये बेचैन? - भाव - 156
  • चींटी का क्या मत ? मीठा चाटना | - चेतना - 156
  • हास , उपहास का इतिहास ? जिस दिन से जीव ने खास को अपनाया कि शिव के नृत्य को समझा | - ज्ञान - 156
  • मन - वर्त्तमान | भूल - भूत | निश्चित - भविष्य | - भक्ति की चेतावनी - 156
  • उदाहरण , उधार ही है | - चेतावनी - 156
  • उदार का काम कब उधार | - चेतावनी - 157
  • प्रेम की पगडण्डी पर न घूम , पागल हो जायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 157
  • भरा तो झरा सूखा तो मरा सुना तो जरा हिला सो बहा | - ज्ञान - 157
  • उपदेशक का क्या मत ? रिझाना ( सत्य ? क्यों बक ? ) - चेतना - 157
  • श्याम कहाँ , श्यामा कहाँ ? श्यामा परवाना बन गई , श्याम शम्मा बन गया | प्रेम के दीवाने ऐसे ही जलते जलाते हैं | - भाव - 157
  • मेरे मीत आ , मेरे गीत आ , तू मुझमें समा , तू मुझी में समा , मेरे गीत गा , मेरे मीत आ | - भक्ति - 157
  • आकाश - नहीं तलाश | सब नीचे - सब सींचे । | - ज्ञान की चेतावनी - 157
  • यह विराट शून्य | जहाँ सूर्य चंद्र भी शून्य | सुन , उस सम्राट की सुन | - ज्ञान की चेतावनी - 158
  • बारस को वा रस बरस रहा - जो रस रास में नहीं , हुलास में नही - विलास में नहीं - आस पास में नहीं | - भक्ति - 158
  • रो कर , पद धोकर , पूजा करूँगा तुम्हारी | क्यों स्वीकार है न ? - भाव - 158
  • वाचक का क्या मत ? वचन बनाना , बातों में लुभाना | - चेतना - 158
  • आया प्रीतम लाया प्रीत , गाओ गाओ अनहद गीत | - ज्ञान - 158
  • देख दिल से | मान मन से | - भक्ति की चेतावनी - 158
  • उदार अधीर है , जब तक लाभ नहीं पहुँचाता | - चेतावनी - 158
  • लाभ में भला है जरा सोचो | - चेतावनी - 159
  • खुशामद कैसी ? प्रिय के प्यार ने वेद बनाये , शास्त्र रचे | प्यार के शब्द स्त्रोत के रूप में बहने लगे | - भक्ति की चेतावनी - 159
  • और न कोई , अब तक सोई . - ज्ञान - 159
  • श्रोता का क्या मत ? इधर उधर की सुनना | - चेतना - 159
  • गोपनीय कुंज में गोपिन के कुंज में कृष्ण _ कृष्ण हो रहा | कृष्ण राधा हो रहा | अद्भुत | - भाव - 159
  • जिसको गुरु सजाये | वही भक्तों को भाये | जिसको आप सजाये | वही बाबा को भाये | - भक्ति - 159
  • शून्य में आवाज गूँजती है | आवाज ही आवाज है | जीव , प्रयोग कर योग में समाते | - ज्ञान की चेतावनी - 159
  • भय का भूत | भाव का भगवान | भय भी भाव है | भगवान से भयभीत क्यों ? भाव रखो | - ज्ञान की चेतावनी - 160
  • प्रियतम की बातें प्रेम भरी | प्रेम भरी आनन्द झरी | प्रेम भरी अँसुवन की लरी | कायिक मानसिक चिन्ता जरी | - भक्ति - 160
  • नूपुर की मधुर ध्वनि ने पुर को पुरूष को प्रकृति को ध्वनित किया | बजता है ,हृदय सजता है , मन ही मन भजता है तजता है | एक ध्वनि , अपूर्व आनन्द | - भाव - 160
  • फिर काम और राम ? काम बनाना , राम भुलाना | - चेतना - 160
  • ज्योति कैसे ? तू जो है | - ज्ञान - 160
  • प्राण स्पर्शी ध्वनि धुन में समाई , क्रिया भीतर बाहर | यही लाभ | - भक्ति की चेतावनी - 160
  • जरा - जरा में राज ( रहस्य ) छिपा है , जरा देखो | - चेतावनी - 160
  • खो दे तो , खो दे , क्या ? सुख - दुःख , जरा देखो | - चेतावनी - 161
  • भक्ति को तुच्छ समझना , समझ की तुच्छता है | भक्त तो बह जाता है , फिर स्थिरता ? बुद्धि की बातें , क्या मूल्य रखती है ? - भक्ति की चेतावनी - 161
  • निरख , परख तू , अलख निरंजन | - ज्ञान - 161
  • फिर बने कैसे ? ये बनते हैं पंडित बनाते हैं मूर्ख | स्थूल में बार- बार चक्कर खिलाते हैं | - चेतना - 161
  • धन्य वह घड़ी , जब तेरी नजर पड़ी | क्या था ? क्या हो गया ? तू ही जाने मेरे श्याम | - भाव - 161
  • हद अनहद का भेद मिटाया , ऐसा सदगुरु पाया | - भक्ति - 161
  • जय हरिहर बोल | जहर क्यों उगलता है ? निन्दा स्तुति की तूती बोलती है | यहाँ आवाज है , इस आवाज से बाज आ | - ज्ञान की चेतावनी - 161
  • वाही से ब्याही और वाही में समाई , ऐसी थी मीरा बाई | - भक्ति - 162
  • क्या यों ही वियोग में लुट जाऊँगा ? उड़ते पंछी संदेश लेता जा | क्यों प्राणों की सृष्टि की जब वियोग में ही घुल _ घुल कर तुम में मिलना है ? - भाव - 162
  • इनकी बातें क्यों मोहक ? मोह की कहते हैं मोहन की नहीं | मोहन की कहें तो मोह हन हो जाय | - चेतना - 162
  • घट को घटा , सौदा पटा | - ज्ञान - 162
  • रूप ने पागल बनाया | नाम ने क्या - क्या दिखाया ? - भक्ति की चेतावनी - 162
  • आनन्द के नगीने न गिने | भूल की धूलि में खोये | मति होती तो कीमत समझता | - ज्ञान की चेतावनी - 162
  • लाभ समझ कर ही उल्टा तो भी भला ही है | - चेतावनी - 162
  • मोह का होम हो , तो महोत्सव है | - चेतावनी - 163
  • सम्पर्क ने रुलाया | सम्पर्क ने हँसाया | रोना धोना निरर्थक | - ज्ञान की चेतावनी - 163
  • नत क्यों होता है ? क्या उन्नत के लिये ? - भक्ति की चेतावनी - 163
  • शिव को काम से क्या काम ? काम को भस्म नहीं किया , भस्मी लगाई शरीर पर कि शरीर का भाव भी भस्म हो गया | काम , देव न रहा , काम न रहा , भस्म हो गया , भस्म | - ज्ञान - 163
  • आखिर सभी झूठे ? कहते तो हैं कि आखिर सभी झूठे | - चेतना - 163
  • सृष्टि संयोग से ही बनी और एक दिन संयोग होकर ही रहेगा | व्याकुलता प्रिय का आह्वान है , निराशा नहीं | - भाव - 163
  • राधा - प्रेम में धारा बन गई और मीरा ? मीरा - रामी या राम ही में रम गई | प्रेम अहं को नहीं चाहता | वह मिश्री बन कर पिघल जाता है | नमक जलमय हो जाता है | - भक्ति - 163
  • गुरु कहता है - मेरी आँखों में देख , मेरी आँखों से देख , मुझे देख | बिना आईने के तस्बीर , गुरु ही दिखलाते हैं | - भक्ति - 164
  • कदम चूम कर दम लूँगा | तू चल कदम - कदम , मैं हूँ तेरा हरदम | - भाव - 164
  • फिर सत्य ? सत्य में फिर नहीं , हेर फेर नहीं | - चेतना - 164
  • ब्रह्मा - वेद गाते | वेद बताते - ब्रह्म जताते | - ज्ञान - 164
  • पीपल में देव देखे , भूत देखे | पी , पल ( भर ) के लिये रस कि देव , भूत रस में लीन हो जायँ | - भक्ति की चेतावनी - 164
  • जागती थी परम के लिये | सोती थी शर्म के लिये | - ज्ञान की चेतावनी - 164
  • हाथ ने साथ न दिया | मलता ही रह गया | - चेतावनी - 164
  • घर बनाया था | धरने के लिये या उजाड़ने के लिये ? - चेतावनी - 165
  • बचाते ? क्या चाहते ? बच - सच ? - ज्ञान की चेतावनी - 165
  • चिन्ह प्यार के , पदचिन्ह भगवान के | - भक्ति की चेतावनी - 165
  • सरस्वती - सरस वती - भीतर बाहर सरस वती | - ज्ञान - 165
  • तो क्या यों ही होता आया ? क्या होता आया ? कुछ हो भी , जो होता आया | - चेतना - 165
  • रानी ने वाणी और राजा ने बाजा बजाया | फिर क्या था ऐसा समा बँधा कि बँधा न रहा कोई जिसने सुना और समा गया स्वर में , जहाँ सुर असुर सभी समाये | - भाव - 165
  • संत चाह पीते , राह दिखाते | - भक्ति - 165
  • भक्त और भगवान प्यार | - भक्ति - 166
  • श्वास के झूलन में झुलाऊँ मेरे श्याम | आज यह श्वास की डोरी भी टूटना चाहती है | - भाव - 166
  • ये बातें क्यों काटते हैं ? काटने कुत्ते का , दो रोटियों के लिये | - चेतना - 166
  • कहते कहते कह गये - तू कौन ? अब रह गये मौन | - ज्ञान - 166
  • दर - दर भटका ? क्यों नही पटका ( भावों का बोझ ) ? - चेतावनी - 166
  • शंख फूँका , ढपोरशंख की तरह प्रार्थना की | क्या , आया ? क्या पाया ? - भक्ति की चेतावनी - 166
  • उठी कहाँ से ? लीन - तल्लीन - बज उठी वह वीण | - ज्ञान की चेतावनी - 166
  • नियम बनाकर फँस गई ? चातुरी ? यही बात री | - ज्ञान की चेतावनी - 167
  • नाच , बिना साज | नाच ? बिना साज ? हाँ , नाच बिना साज | ताज झुकेगा , राज मिलेगा | - भक्ति की चेतावनी - 167
  • मत में मस्ती | सत्य की हस्ती | - चेतावनी - 167
  • मेरी मौत कहाँ ? मैं मौज हूँ - मौत क्यों ? शरीर - शरीर है । नाचता है , छटपटाता है | - ज्ञान - 167
  • ये विद्वान हैं | ये कहाँ विद्यमान हैं , जरा पूछ | - चेतना - 167
  • प्रिय की बाँसुरी अधरों पर आई अधर कम्पित | अधर ही नहीं श्रोता भी विमुग्ध | वाह री बाँसुरी | - भाव - 167
  • जड़ का जीवन प्यार | - भक्ति - 167
  • प्राणी का प्राण प्यार | - भक्ति - 168
  • शब्द , ब्रह्म - दो ही बातें | जब तक शब्द , प्रकृति अभिनय , शब्दातीत - फिर क्या कहना ? - ज्ञान - 168
  • जमाते - जमाते जमाना आया | जमाना आया , बहाना आया | - चेतावनी - 168
  • वाणी ही बाँसुरी बनी , हृदय स्पन्दन ने प्रेम घोला | अब स्वर ईश्वरमय | अद्भुत बाँसुरी | - भाव - 168
  • प्रभु के गीत गाते | इनका प्रभु अहंकार है | सोऽहं नही | - चेतना - 168
  • तन मन अब तन्मय हो | - भक्ति की चेतावनी - 168
  • बनाता बनाता बन गया | झूठा बन गया , सच्चा बन गया | - ज्ञान की चेतावनी - 168
  • लंका जली | शंका कब जली ? - ज्ञान की चेतावनी - 169
  • मन्मना भव , उन्मना क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 169
  • कैसे जाना ? भाव देख , भंगी देख , खुद जान जायगा | - चेतना - 169
  • बध स्वीकार , बद्ध न कर | बार बार मिलन के लिये बेचैन होंगे ये प्राण | - भाव - 169
  • कवि हुआ | कभी हुआ | आज तेरा राज -- बज उठे सब साज | - चेतावनी - 169
  • शरीर जला कपूर की तरह | मन फैला सुगंध की तरह | बुद्धि का निर्णय ? निर्णायक के साथ | अहंकार अब बेकार | - ज्ञान - 169
  • सबका चुम्बक प्यार | - भक्ति - 169
  • रो कर क्या खोया क्या पाया ? खोया दुःख पाया सुख | - भक्ति - 170
  • प्रथम युक्त फिर मुक्त | उक्ति और मुक्ति की कथा अनन्त । - ज्ञान - 170
  • तेरी तन्त्री -- तू ही बजा | निज को रिझा | कवि भाये | क्या काम आये ? - चेतावनी - 170
  • आज कण कण अभिव्याप्त था , पूर्ण का सम्पूर्ण रूप हँस रहा था कण में | क्या कहता मन ? आनंदित हो लीन हो गया महान में | - भाव - 170
  • निन्दा करता है | किसकी ? अबोध की | अबोध की निन्दा कैसी ? - चेतना - 170
  • श्याम सलोने , कोने - कोने | - भक्ति की चेतावनी - 170
  • रोटी रुलाती भाव घटाती , निरर्थक सताती | कहीं , न आती न जाती | - ज्ञान की चेतावनी - 170
  • ऐसा नचा ऐसा नचा | फिर न चाह | फिर न चाह | - ज्ञान की चेतावनी - 171
  • भाव की दुनिया बनी है , भाव का भगवान है | भाव में तू आप ही है , भाव और सब भाव है | - भक्ति की चेतावनी - 171
  • इन्हें अबोध कहते हो ? नहीं - बातें तो बोध वालों की सी है किन्तु बातें ही हैं | - चेतना - 171
  • अमर दीप का नाम आत्मा है तो अमर गीत का नाम प्रेम है | - भाव - 171
  • उत्थान - पतन तराजू - समानता के लिए | - चेतावनी - 171
  • भय संसार का , जन्म मरण का | अभय कब ? जब जाना कि न आना है न जाना | - ज्ञान - 171
  • क्रिया क्यों प्रिय ? प्रिय के लिये क्रिया | - भक्ति - 171
  • कर्म में कौन रमा है ? कर्त्ता का प्राण | - भक्ति - 172
  • रस सूखा तो पत्थर बना , रस बहा तो समुद्र | पत्थर से बालू या बालू से पत्थर यह समझ का फेर है | - ज्ञान - 172
  • उत्थान-पतन झूला- आनन्द के लिये क्रम में विक्रम कैसा ? - चेतावनी - 172
  • एक वाणी हृदय की गीता कहलायी | एक वाणी मस्तिष्क की वेद कहलाई | एक वाणी - वाणी नहीं उद्गार थे संत के , प्राणी को मोहित कर गए | - भाव - 172
  • ये बड़े-बड़े ग्रंथ | ये बड़ी-बड़ी ग्रंथी | - चेतना - 172
  • अचरज को रज में मिला | - भक्ति की चेतावनी - 172
  • ( माया ) ऐंठती , इठलाती | क्या पाती ? लजाती | साधती - सधाती | क्या पाती ? समाती | - ज्ञान की चेतावनी - 172
  • मुँह मीठा क्यों नहीं करते ? मधु वर्षा - अब भी तृषा , मुख में मोम - मधु कहाँ ? - ज्ञान की चेतावनी - 173
  • सन्त उपदेश नहीं देता , देश दिखलाता जो अपना है | - भक्ति की चेतावनी - 173
  • ग्रंथ को ग्रन्थी कहना उचित ? उचित अनुचित तुम्हीं जानों | - चेतना - 173
  • मुँह लगी मुरली अधरों को छोड़ती ही नहीं , बावरी हो गई | प्रिय का मधुर भाव पाकर कौन मतवाला न हो जाय ? - भाव - 173
  • आलस्य को आराम न मान | - चेतावनी - 173
  • दूर ( पृथ्वी , आकाश ) मिलता दिखलाई देता है | समीप पहुँचा , फिर भी दूर | यह दूरी कैसी दूर हो ? दृष्टि भ्रम - मन भ्रम , दूरी ही दूरी | विराट का प्रत्येक कण हृदय | देख , स्पर्श कर , सभी स्पष्ट | - ज्ञान - 173
  • प्रिय का प्यार पा निहाल | व्यर्थ ही बेहाल | - भक्ति - 173
  • उदय , अस्त में कितने ही अस्त हुए किन्तु तुम्हारे प्रेमोदय में अस्त कहाँ ? न अस्त न अस्त व्यस्त | - भक्ति - 174
  • अंधेरे में मिश्री घोली | ( आत्मा ) अब कहा मैं तेरी होली | - ज्ञान - 174
  • अणु - अणु में अनुभूति | परमाणु में प्रेम प्रकाश | फिर क्यों उदास | - चेतावनी - 174
  • मत नहीं जानता , तुम्हें जानता हूँ अनेक युगों के पश्चात् तुम्हारे दर्शन तो हुए | - भाव - 174
  • आज तक गीत गाता था , अब मन को रिझाऊँगा , गीत न गाऊँगा | - चेतना - 174
  • संत ने क्या दिया ? संत ने क्या नहीं दिया ? पहचान चाहिये | - भक्ति की चेतावनी - 174
  • अरे नादान , अरे नादान | यह दाना है - यह दाना है | ( तू नादान और यह दाना ) - ज्ञान की चेतावनी - 174
  • दल पर दल | नहीं दल दल | - ज्ञान की चेतावनी - 175
  • विचारों का भी घेरा ? घेरा है तो दम घुटेगा | - भक्ति की चेतावनी - 175
  • पूजा पहाड़ , माला निराधार , और जंजाल , मन बेहाल , अब ? मन को रिझाऊँगा , गीत नहीं गाऊँगा | - चेतना - 175
  • हे शून्य महल के प्रियतम ! बरसा प्रेम रस कि भीतर बाहर की जलन शांत हो | - भाव - 175
  • मति बिगड़ी | गति बिगड़ी | - चेतावनी - 175
  • हरिद्वार , गुरुद्वारा , ग्रन्थसाहब | द्वार द्वार हरिद्वार | मुखद्वार , गुरुद्वारा | साहब का ग्रंथ , ग्रन्थ साहब | फिर भी शब्दों के फेर में पड़ा | - ज्ञान - 175
  • तेरी मर्जी - मैं राजी | - भक्ति - 175
  • तुम्हारे नाम में नशा है | यह मादक , मोदक , मोहक है | - भक्ति - 176
  • समझाता था , मन दौड़ पड़ता था | मन माना , अब कहीं आना न जाना | - ज्ञान - 176
  • परमाणु में ( ज्ञान की ) आग लगानेवाली सदगुण की वाणी | - चेतावनी - 176
  • धूम्र और कुहासा प्रकाश पाकर बदल गया प्रकाश में | महान की शक्ति महान | क्षुद्र पर दया रखता है वह महान है | - भाव - 176
  • पृथ्वी तपती है तो तर भी होती है | - चेतना - 176
  • शान्त कब बैठा ? जब कल्पना न रही | नकल तो विकल बनाती | - भक्ति की चेतावनी - 176
  • कौन बुलाता ? दिल का नाता | कौन भुलाता ? दिल को भाता | - ज्ञान की चेतावनी - 176
  • किस्मत को , किश्त मात दे | काम से क्यों विश्राम ? भाग्य की भावना भागी , जब तू जागा | - ज्ञान की चेतावनी - 177
  • किसका आधार ? जरा सोच तो सही किसका आधार | खुद का आधार खुद , जिसे लोग कहते खुदा | - भक्ति की चेतावनी - 177
  • पेड़ कटता है तो बढ़ता भी है | - चेतना - 177
  • महा हानि है कि महान को न जाना , न पूछा कि कौन महान है ? प्रथम तू नही , प्रथम तू | - भाव - 177
  • दिल मिला | पंचांग क्या मिलाता है ? - चेतावनी - 177
  • झीनी चदरिया ज्यों की त्यों धर दीनी | क्यों ? मैली हो जाती व्यवहार से | दी उसी ने ली ( मैं ने ली तू ने दी ) मैं में लीन होती तो मैली होती | - ज्ञान - 177
  • दूसरी दुनिया बसा दे | प्यार में मुझको सुला दे | लुभा ले | - भक्ति - 177
  • करूँ ? ना | तुम्हारी करुणा | - भक्ति - 178
  • रूप का ध्यान - साकार | गुण का ध्यान - निराकार | बातें ? बेकार | - ज्ञान - 178
  • हृदय पर दया कर खिल उठे | - चेतावनी - 178
  • संतोष और शांति दो प्रबल अस्त्र है | प्रयोग अचूक , जप तप तो साधन मात्र है | - भाव - 178
  • कवि की लेखनी और मिलन का वर्णन ? असम्भव है । - चेतना - 178
  • हड़बड़ानेवाला - हरी बड़ा हर बड़ा कब कहता है | - भक्ति की चेतावनी - 178
  • कर से कर | मन से मनन | तन से न तन | - ज्ञान की चेतावनी - 178
  • धन की धुन | तब सिर धुन | ध्वनि की धुन , तब धन धन | - ज्ञान की चेतावनी - 179
  • कौन और क्यों ? कौन और क्यों में ही सब राज है ? राज चाहे तो राज पहिचान | - भक्ति की चेतावनी - 179
  • अलख लखा जाता है , अलख आँखों से | - चेतना - 179
  • आनंद स्पर्श के भाव से जीव का जड़त्व भाव कहाँ रहा ? रोम रोम पुलकित हो उठा | - भाव - 179
  • मैं ब्रह्म हूँ तो भ्रम भी हूँ । भ्रम हूँ बुद्धि के लिए और ब्रह्म हूँ आत्मा के लिए | - ज्ञान - 179
  • प्यार भी यदि आता तो पागल हो जाता | - भक्ति - 179
  • आकाश की तरह भावों को आच्छादित कर | वायुवत् प्राणों को स्पर्श कर नव प्राण दे | अग्नि का ओज तेरी वाणी करे | जलवत् बह निकले प्रेम करुणा | पृथ्वी धन्य हो तेरी लीला देख | - चेतावनी - 179
  • वाह की हवा में बहते अनेक | राह पर कर निगाह | - चेतावनी - 180
  • मेरा भी हक है , कह न ? - भक्ति - 180
  • अज्ञेय कौन ? मैं ? सब मिथ्या | न मैं अज्ञेय और न मैं अज्ञात | - ज्ञान - 180
  • मेरे छटपटाते हुए पँखो को देख , मेरी गर्दन को देख , दम घुट रहा है , प्राण छूट रहे हैं | क्या अब भी दर्शन न देगा ? तो क्या तेरी याद , मेरी फरियाद वृथा होगी ? - भाव - 180
  • खुद ही गर्म होती है और खुद ही बरसाती है कैसी पगली है | ( प्रकृति ) । - चेतना - 180
  • मत मति - अब ? कब गति ? - भक्ति की चेतावनी - 180
  • वस्त्र कोई अस्त्र नहीं | शास्त्र कोई शस्त्र नहीं | और है कुछ और | - ज्ञान की चेतावनी - 180
  • वह मत क्या जो हिम्मत न दे | वह कर्म क्या जो कम न करे ( अशांति - अज्ञान ) - ज्ञान की चेतावनी - 181
  • सर की पगड़ी पैरों पर रगड़ी , अब भी अभिमान ? - भक्ति की चेतावनी - 181
  • पगली नहीं , पागल बनाती है उसे जो इसे देखने लगता है | - चेतना - 181
  • आनन्द मय विश्व की निन्दा करूँ ,क्यों ? सुख , दुःख तन मन के खेल , चिन्तित क्यों? - भाव - 181
  • आनन्द के लिए पंचमकार की पूजा की , राधा कृष्ण की आराधना की , सन्यास लिया , वैरागी बने , किन्तु वाह रे आनन्द | वासना , कामना का पुजारी बना कर छोड़ा | आनन्द तो अपना रूप है | पहचाने तो त्याग भोग समान हो जाय | - ज्ञान - 181
  • हक नहीं स्वत्व है | स्व राज्य है | स्व राजा , स्व दास , स्वदेश | नहीं वेश , न क्लेश , सब शेष | - भक्ति - 181
  • लहर -- मेहर पर | - चेतावनी - 181
  • जो तुझसे छिपा , वाही रहस्य बना | वह तेरे लिये -- तू उसके लिये | - चेतावनी - 182
  • क्यों जलते है ? जल लेते तो न जलते | - भक्ति - 182
  • प्रति मुहूर्त प्रकृति बदलती , पट परिवर्तन करती , मैं शांत । प्रकृति बदले , पुरूष तो पुरूष है , बदलना नहीं जानता | - ज्ञान - 182
  • तुमने मुझे दिल दिया , दिमाग दिया , प्रेम दिया , भाव दिया , दिया दिया | इतना दिया की भूल गया , क्या क्या दिया | - भाव - 182
  • पुरुषार्थ और प्रारब्ध बीज और वृक्ष हैं | पहले कौन हुआ ? प्रश्न ही क्यों ? दोनों ही ओत प्रोत हैं | - चेतना - 182
  • अब न झुकूँ - न रुकूँ | - भक्ति की चेतावनी - 182
  • सुन यदि सुनना चाहे | ऐसा सुन कि संसार स्वतः शून्यवत् प्रतीत हो | कहना न पड़े - जगन्मिथ्या | - ज्ञान की चेतावनी - 182
  • वही शब्द जो प्रारम्भ में था - वही शब्द जो मध्य में है | वही , शब्द जो कल्पान्त में सुन पड़ेगा | अभी क्यों नहीं सुन लेता ? - ज्ञान की चेतावनी - 183
  • दश का रक्षक एक , दश का भक्षक एक ( मन ) | - भक्ति की चेतावनी - 183
  • सफेद पर रंग ही रंग , क्यों ? रंगों को दिल में रखता है , दिखलाता नहीं | - चेतना - 183
  • फूला न समाया जब तल्लीन अवस्था में कुछ पाया | सब कुछ तो सर्वव्यापी का है | तू भी कुछ दे कि तुझे शांति मिले | - भाव - 183
  • पता नहीं कौन पत्नी है , आत्मा कि - परमात्मा | मत है , अपना अपना मत है | पत्नी , पति में "प " है आदि में | आदि में जहाँ प्रेम था तो अब अन्त में भी बना रहे - तभी बनी | नहीं तो कैसी बनी ? पति पत्नी का झगड़ा तो दुनिया हँसेगी | - ज्ञान - 183
  • सुस्ती कब मस्ती बने ? जब तू दिखलाई दे | - भक्ति - 183
  • द्रव्य चुना - उपद्रव बढा़ | चिन्ता आई - जलती चिन्ता लाई | - चेतावनी - 183
  • गर्व खर्व , जब तू सर्वत्र | - भक्ति - 184
  • सोता _ झर - झर बहता | जगती - जगती | तू जगता न सोता - क्या करता ? - चेतावनी - 184
  • आ मा तम दूर हो - आत्मा अमर में लीन हो | आ मा आत्मा - आत्म स्वरुप | - ज्ञान - 184
  • प्रेम को किसी ने देखा है , मूर्तिमान ? प्रेम मूर्ति बन जाता है उपासक के लिये , आशिक के लिये | - भाव - 184
  • दास , आस पास और सब उदास | - चेतना - 184
  • विधि , निषेध का चक्कर खाये , प्यार की विधि तब कौन बताये ? - भक्ति की चेतावनी - 184
  • सुनाते कान में | ठीक है कान ? पवित्र है कान ? तभी तो होगा कल्याण | नहीं तो कान पकड़ा | - ज्ञान की चेतावनी - 184
  • तुम से कहना है - अहंकार से नहीं | जरा मेरी भी सुनो | अहंकार को न जगाओ | सुनना बेकार होगा | - ज्ञान की चेतावनी - 185
  • उदास है या उदासीन ? - चेतना - 185
  • यदि उस ध्वनि को सुन पाता जिसे सुन राधा प्रेम विभोर हो गई , कृष्ण बेसुध तो आज निर्द्वंद विचरण करता | प्रेम लीला गाता और गाते गाते स्वयं में लीन हो जाता | - भाव - 185
  • मौन मन मुनी - ध्वनि रहित धुनी | - भक्ति की चेतावनी - 185
  • मां रंग में तू | मां रग रग में तू , अब मार्ग पूछूँ पुस्तकों से ? अनादर है , अज्ञान है , मन का भ्रम , पूर्ण खेल है | - ज्ञान - 185
  • शब्द यज्ञ में कल्याणमय शब्दों की आहुति दो | - चेतावनी - 185
  • प्यार का दीपक जला | न दीपक जला न प्यार | - भक्ति - 185
  • गुण क्या देखूँ , तुम तो गुणातीत हो | - भक्ति - 186
  • हित और हेतु निरर्थक | - चेतावनी - 186
  • संयोग से योग हुआ प्रकृति पुरूष का | अब क्या कहना , सृष्टि अपूर्व थी | - ज्ञान - 186
  • कारण का रण क्यों ? मरण का रण क्यों ? शरण का रण कहाँ ? वरण का रण कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 186
  • प्रणव प्रणय में परिवर्तित हुआ , प्राणी उन्मत्त हो गए | प्राणों में प्रणय की झंकार , अब बेडा़ पार | - भाव - 186
  • सड़ी का सदुपयोग ? तत्व में मिलने दे | - चेतना - 186
  • जगा सको तो उन वृत्तियों को जगाओ | जो सोती हुई जागने का नाम नहीं लेतीं | दैत्य जागे , उपद्रव आगे | देव जागे , शांति आगे | - ज्ञान की चेतावनी - 186
  • बिजली भी जली | न जली - न जली वह कौन ? ( आत्मा ) - ज्ञान की चेतावनी - 187
  • वियोग ने इसे सड़ाया | संयोग से रूप ही बदल जाय | - चेतना - 187
  • माँगा न था , दिया | किसने ? जिसके पास था , जो पास था प्रेम , विश्वास | - भाव - 187
  • सन्त विद्वान ? यदि , नहीं अच्छा है | भाषा अलंकार से सत्य सजाया तो व्यर्थ ही आया | - भक्ति की चेतावनी - 187
  • नभ न अब , मही मैं ही | सूक्ष्म स्थूल तो खेल मात्र है | - ज्ञान - 187
  • आवेश -- कब शेष ? कर प्रवेश -- हो शेष | - चेतावनी - 187
  • तुम्हारे प्यार में ' मैं ' जला | - भक्ति - 187
  • यन्त्रणा में निमन्त्रण दूँ ? कष्ट तो दूर होगा - फिर प्यार कब ? - भक्ति - 188
  • गुण क्या ? अवगुण -- निर्गुण या सगुण ? - चेतावनी - 188
  • हीन नहीं मैं वह वीण हूँ , जिसे सुन मन सर्प भी क्षणिक शांत हो जाता है | - ज्ञान - 188
  • जीवन दीपक जलता रहा प्रतीक्षा में | किसकी ? अपने की , अपनी | इसे जलना कहा जाये या प्रकाश फैलाना ? - भाव - 188
  • मन को न मार , मन रो पड़ेगा | मनाना होगा , रिझाना होगा , तुम्हारा ही हो जायगा | - भक्ति की चेतावनी - 188
  • सड़ी बातें ? प्रफुल्लता कहाँ ? - चेतना - 188
  • क्यों प्रकाश - क्यों विकास ? क्यों विनाश ? क्यों विहास ? था वही | है वही | है सही - है यही | - ज्ञान की चेतावनी - 188
  • ब्रह्म , भ्रम का भ्रम दूर कर | फिर ? फिर कुछ नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 189
  • काया का भाव कायर | प्रेम का भाव शायर बन बैठा | - भक्ति की चेतावनी - 189
  • प्रयोग कर नहीं तो सड़ जायेगा शरीर | - चेतना - 189
  • मेरे प्रियतम ! आज मैं अकेला हूँ , बात कर मेरा दिल घबडा रहा है | दुनिया की कथा सुनते सुनते मैं ऊब गया | - भाव - 189
  • अनुभूति कैसी ? मन की एक झंकार जो बार - बार बजी और नवीन सृष्टि सजी ? - ज्ञान - 189
  • विनायक को माना , किंतु बिना एक के क्या ? - चेतावनी - 189
  • सत्कार करूँ - सत कार्य करूँ | यही सत्कार | - भक्ति - 189
  • आगमन - आ , गमन तो है ही | - भक्ति - 190
  • पाकर , पाखण्ड क्यों ? पा कर खण्ड- खण्ड कर पाखण्ड का | - चेतावनी - 190
  • झंकार में संस्कार और संसार डूबे . तल्लीन था - धर्म और अधर्म कैसा . - ज्ञान - 190
  • तू अपने में मुझको खोज , अकेला रहता हुआ भी अकेला न रहेगा | दुनिया तेरी सूक्ष्म हो चली है | किसी की कृपा का फल है | - भाव - 190
  • सड़ और झड़ में कौन अच्छा ? - चेतना - 190
  • आरत - आ रत | अर्थ यही है | कैसी जिज्ञासा ? जब अति पासा | देख , जान , अब ज्ञान यही है | - भक्ति की चेतावनी - 190
  • कहता ही है , देखा नहीं - सुख , दुःख देखा नहीं | कर्म देखा | - ज्ञान की चेतावनी - 190
  • अहंकार ने ही रुलाया , जलाया | - ज्ञान की चेतावनी - 191
  • झड़ा वही - सड़ा गिरा | - चेतना - 191
  • प्रभो ! बसंत आया , प्रकृति ने स्वागत किया नये पत्तों से | मेरे पास तो आज भी जीर्ण शीर्ण विचार है , कैसे तुम्हारा स्वागत करूँ ? अरे ! स्व का आगमन पहचान सदा बहार रहेगी तेरे चमन में , मन में | - भाव - 191
  • उठ न सका तो कैसा भाव | जग न सका तो कैसा चाव ? - भक्ति की चेतावनी - 191
  • नरक से घबराता नहीं ? पण्डित घबड़ाये , जिनकी सृष्टि है | स्वर्ग की इच्छा नहीं करता ? यह इच्छा ही तो तंग कर रही है सब को | स्वर्ग नहीं , स्व वर्ग ही मेरा स्वर्ग है - जहाँ वर्ग नहीं , जाति नहीं | - ज्ञान - 191
  • घमण्ड में बोलना , अण्ड -बण्ड समझ | मण्डप में मण्डित कर वाणी को | घमण्ड शोभनीय नहीं | - चेतावनी - 191
  • आज स्व गत ही स्वागत | - भक्ति - 191
  • मुझे गरीब नहीं , धनी बना | तेरे धन का धनी बना | निर्धनता दूर हो - तन की , मन की , धन की , जन की | - भक्ति - 192
  • क्यों चमत्कार को नमस्कार ? हैं जब विकार तो चमत्कार | कर अविकारी को नमस्कार | - चेतावनी - 192
  • आमन्त्रित हूँ अनाहुत नहीं | भावना खींच लाई भव मे | कहती थी स्वर्ग के देवता पृथ्वी पर चल , प्रेम मिलेगा | प्रेम की पिपासा ने मृत्यु लोक दिखलाया | प्रेम न मिला तो मैं चला | खेल बहुत देखे लोक में , दिव्य लोक में | - ज्ञान - 192
  • मिल न सका तो कैसा नाम | हँस न सका तो कैसा धाम | - भक्ति की चेतावनी - 192
  • मेरे प्रियतम ! आँसू विफल मनोरथ हो रहे है | क्यों संदेश भेजा संत के द्वारा , जब योंही विकलता के हाथ सौंपना था ? विकलता प्रेम लता को पल्लवित करेगी प्रेमाश्रुओं से सौंपा नही किसी को , तू तो मेरा ही है | - भाव - 192
  • गिरा सड़ा ? तो उपयोग ? क्षण भी बर्बाद नहीं , फिर न गिरा न सड़ा | - चेतना - 192
  • कम्पित क्यों ? कर्म तो देखने ही पड़ते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 192
  • बहलाता रहा - किन्तु बहाया कब ? - ज्ञान की चेतावनी - 193
  • स्वर्ग - नरक की कथा पुरानी | छोड़ आज , कर तू मनमानी | - भक्ति की चेतावनी - 193
  • विचार शरीर पर सवार | - चेतना - 193
  • तेरी मेरी जोड़ी सृष्टि के पूर्व थी और पश्चात् भी रहेगी | दुनिया के लोग भक्त और भगवान के नाम से याद करते रहेंगे | - भाव - 193
  • शून्य मे स्थित सूर्य को पृथ्वी पर कौन लाया ? निर्मल जलवत् अंतःकरण | - ज्ञान - 193
  • पड़ी परिछाई | भूल बैठा स्वरुप | - चेतावनी - 193
  • गीता गा कर भी भूल न सके गीत को तो क्या जाने कि भूलना ही मिलना है | - भक्ति - 193
  • रुलाता क्यों है ? मिलता क्यों नहीं ? मैं थका चला जा रहा हूँ | - भक्ति - 194
  • विचार विकार बना | विकार फैला - -संसार फैला | अब विकार का कर विचार | विचार पर आये | - चेतावनी - 194
  • ज्ञानेन्द्रियों का प्रभाव जब कर्मेन्द्रियों पर पड़ा तो कर्म का रूप बदल गया | आरोह अवरोह का कार्य पूर्ण हुआ | - ज्ञान - 194
  • मैं जलता हूँ तेरे नाम पर |मैं चलता हूँ तेरे नाम पर | दुनिया जलती है और चलती है तेरे प्यारों के नाम पर | - भाव - 194
  • सवार निर्बल तो शरीर ही सवार | - चेतना - 194
  • बाँह डाले तो वाह निकले | दूर तो अज्ञान के नशे में चूर | - भक्ति की चेतावनी - 194
  • अज्ञात ? क्यों साथ | - ज्ञान की चेतावनी - 194
  • प्यार अज्ञात का | जो यार से मिलाता - बहार लाता | - ज्ञान की चेतावनी - 195
  • सूक्ष्म और स्थूल के अभाव में खेल कहाँ ? - चेतना - 195
  • शब्द मुझे बाँध न सके | प्रेम ने मुझे पाश में बाँध लिया | बिक गया किससे कहूँ ? - भाव - 195
  • सब मिले तुम्हें सताने को - सत्य मिला तुम्हें रिझाने को | - भक्ति की चेतावनी - 195
  • अनिर्वचनीय का वर्णन कौन कर सका ? अपूर्व अनुभूति ने झंकार उत्पन्न की , शब्दमय ब्रह्म मुखरित हो उठा | - ज्ञान - 195
  • दुर्बलता की लता न लगा | बल की बेल का खेल देख | बल ही बल | दू:सु को न पकड़ | - चेतावनी - 195
  • वासना - कामना तुम जानो , किसी ने प्रेम से पुकारा तो भूल गया अपने को खिंचा चला आया | सुख , दुख मेरे साथी बने | - भक्ति - 195
  • कहाँ स्नान करूँ कि सागर में गंगावत् मिलन हो ? - भक्ति - 196
  • सत्य के तीन पद | संत - साधक - स्वयं | - ज्ञान - 196
  • अ से ज्ञ तक पढा़ | अज्ञ ही बना | अ उ म अंकित होता हृदय पर | ज्ञ का ज्ञान होता | अज्ञ न रहता | - चेतावनी - 196
  • सत्य भी एक नहीं ? तो फिर एकता कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 196
  • मैं मांगता हूँ अपने लिए , अपनों के लिए |मैं भी चाहता हूँ अपने लिए , अपनों के लिए | क्या ? प्रेम | - भाव - 196
  • स्थूल में गति कैसे आई ? परिचालक ने पता न दिया , गति दी | - चेतना - 196
  • दुःखी दिखलाई दिये | दुःख छोड़ना नहीं चाहते | भूत दुःख , भविष्य दुःख , कहाँ सुख ? - ज्ञान की चेतावनी - 196
  • धूप आई ( प्रकाश ) - धूप जली ( आनन्द ) | - ज्ञान की चेतावनी - 197
  • गति स्वतः भी देखी जाती है । तो यह दृष्टा का सम्पर्क है । - चेतना - 197
  • अब कैसे रहूँ , कैसे सहूँ , कैसे कहूँ जिसका आधार था आज वही छिप कर बैठ गया कण कण में , नीले आकाश में | न इतना सूक्ष्म बन पाता हूँ और न इतना महान | न सही , उसका तो है इतना ही यथेष्ट है | - भाव - 197
  • अज्ञ , कृतज्ञ कब हुआ | - भक्ति की चेतावनी - 197
  • प्रमाद , कर बाद | सुन नाद , कर याद | - चेतावनी - 197
  • ॐ तुम्हारा संकेत है | अक्षर में कहाँ गति कि तुम अक्षर तक पहुँचे | - ज्ञान - 197
  • मिलन मन का जहाँ मैल नहीं ? - भक्ति - 197
  • तेरा मिलन तन , मन का | तन नत हुआ , मन नम हुआ , अहं लीन | - भक्ति - 198
  • संकेत में भी भ्रम मान बैठा | आगे आग पीछे विचारों का नाग | - ज्ञान - 198
  • वृत्ति शान्त नहीं क्लान्त | नहीं भ्रान्त , न वृत्तान्त | - चेतावनी - 198
  • सजाने आया - फिर सजा क्यों न पाया ? सजा पा रहा है , मजा पा रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 198
  • तेरा मिलन न शरीर से हो सकता है और न मन बुद्धि से | फिर कैसे मिलूँ ? अपने को भूल जा फिर तू मेरा ही है , मेरा ही है , मेरा ही है | - भाव - 198
  • चेतन प्रत्येक जड़ पदार्थ में गति पैदा क्यों नहीं कर देता ? जो जड़ चेतन के अति समीप आया गति ही गति है | - चेतना - 198
  • भोग की इच्छा की , भोक्ता बना | कर्त्ता बना , भोक्ता बना | भोग भागे | भाग्य जागे | भाग्य जागे - भाव जागे | भाव जागे - भगवान आगे | - ज्ञान की चेतावनी - 198
  • पथ बना | पथिक बना | पाथेय बना | क्या - क्या न बना ? - ज्ञान की चेतावनी - 199
  • कल्पना की उड़ान में बुद्धि कहाँ ? बुद्धि पीछे चलती है , प्रथम कल्पना है | - चेतना - 199
  • मिलन सह न सकी दुनिया | ऐसा प्रकाश फैला की अँधेरा सा प्रतीत हुआ संसार के लोगों को | - भाव - 199
  • मिट्टी को पकड़नेवाला भी मजबूत , फिर सत्य के रूप को कौन हिला सकता है ? विचारों की हवा से व्यर्थ ही भयभीत | - भक्ति की चेतावनी - 199
  • मिला कान्त | हुआ शान्त | - चेतावनी - 199
  • आत्मा , शरीर को चेतन कर , अमर है | प्रेम मन को बेहाल कर अमर है | - ज्ञान - 199
  • कहूँ या सहूँ या बहूँ या यों ही रहूँ ? - भक्ति - 199
  • हे कुम्भकार ! कुम्भ फोड़ | मिट्टी में मिट्टी और प्रकाश में प्रकाश मिले | - भक्ति - 201
  • एक तेरा रूप | भीतर देख , बाहर देख | कहाँ विधान , कहाँ लेख | - चेतावनी - 201
  • आज्ञा दाता अनेक | त्राता कौन ? स्वयं , यदि समझे | - ज्ञान - 201
  • प्यार को प्यार में खोज | - भक्ति की चेतावनी - 201
  • भामिनी - कामिनी - सौदामिनी की तरह चमकी | आँखें चकाचौंध | पथ भुला | - ज्ञान की चेतावनी - 201
  • दुःखी दुनिया को कुछ ऐसा दिखा कि दुःख भूल जाये | लोक दिया , आलोक दिया किन्तु फिर भी सुख स्वरुप को न देखे न पहचाने तो क्या किया जाये | - भाव - 201
  • गा , गाकर रिझाना चाहता है , पूछूँ किसको ? स्वयं प्रसन्न , फिर गाना रोना कैसा ? - चेतना - 201
  • आनंद की लहर | जय हरिहर | - चेतना - 210
  • मेरा अपमान ? तू माने तो मान भी है , अपमान भी है | नहीं तो कैसा मानपमान ? - भक्ति की चेतावनी - 210
  • एक था दो बना , फिर एक ? एक ही आदि अन्त है | - ज्ञान - 210
  • शिव यह तुम्हारी शक्ति है कि शक्ति की शक्ति है कि तुम शिव हो | माँ की अद्भुत शक्ति दिगंबर रूप में | तुम्हारी महिमा धन्य है , तुम ने आवरण ही रहने दिया | - भाव - 210
  • त्यागी ने ऐसा त्यागा कि पूर्व पश्चात् का झगड़ा न रहा | - ज्ञान की चेतावनी - 210
  • भूल हुई शूल | - चेतावनी - 210
  • तुझे लोग भूत ( बीता काल , लिखे ग्रन्थ ) में खोजते और कहते हैं तू कहाँ - तू कहाँ ? वर्त्तमान में देखते तो जान पाते | - भक्ति - 210
  • देखा ? अब दे या ले | - भक्ति - 211
  • अवस्था बढ़ी -- सुधरी कब ? व्यवस्था किसी और की | - चेतावनी - 211
  • अभिमान छोड़ा कि प्रकृति के अभिमान का विषय बना | रास्ता और भी है | - ज्ञान की चेतावनी - 211
  • जो साथ ही रहे दिल से दिमाग से वही साथी | यों तो आंशिक भाव वाले आये और गये | मीरा का भी एक साथी था जो जन्म और मरण का साथी था | - भाव - 211
  • सभी मिथ्या , सभी सत्य | मिथ्या कहकर त्याग करने की चेष्टा करता है और सत्य तो भगवान है ही | - ज्ञान - 211
  • दिल में व्याकुलता क्यों ? शान्त नहीं हो पाया | - भक्ति की चेतावनी - 211
  • आँखे कहाँ ? साख कहाँ ? लक्ष्य चूके | - चेतना - 211
  • ये मारने वाले - राम में क्यों नहीं रमते ? काम बने । मारने वाला भी कभी फलता , सफलता पाता है ? - चेतना - 212
  • प्रिय के वियोग की तड़पन कब निरर्थक | - भक्ति की चेतावनी - 212
  • गुण गाऊँ या दिल बहलाऊँ , एक ही बात है | गुण में समाऊँ या गुणातीत हो जाऊँ ? कहना नहीं बनता - होना है जहाँ शब्द नहीं | - ज्ञान - 212
  • जो तुम्हारे प्राणों को स्पर्श करता और तुम्हें अनुभव भी नहीं होने देता वह कौन है ? अज्ञात प्रेमी | - भाव - 212
  • दिल में लगी आज आग | अब तो जाग | - ज्ञान की चेतावनी - 212
  • हाथ पर हाथ धरे बैठा है | हाथ पर हाथ मार | - चेतावनी - 212
  • पिया तुमने पिया , मुझे भी पिला | पी , कहाँ ? पिया कहाँ ? ( हिया हिला , पिया मिला ) - भक्ति - 212
  • मैं कहने गया , अंहकार आया | तू तू मैं मैं होने लगी | - भक्ति - 213
  • मौन का रहस्य आज भी मौन | मौन कौन ? मुख या मन | - चेतावनी - 213
  • यह वह हवन कुण्ड है जिसकी आग प्रज्वलित ही रहेगी यदि सन्तोष का जल सींचन न किया | - ज्ञान की चेतावनी - 213
  • तुम मुझे प्रकाश में ला रहे हो या दूर पहुँचा रहे हो ? मैं ज्ञान विज्ञान कुछ नहीं जानता | - भाव - 213
  • प्रकाश और छाया की जगत में क्या चमत्कार देखा ? यों कुछ नहीं , यों सब कुछ | - ज्ञान - 213
  • आज की माला कल बन्धन मुक्त हो जाती है | माला भंग | माला - माल लाती है | - भक्ति की चेतावनी - 213
  • मारने वाले रमते राम को जानते तो भूलकर मार का नाम न लेते | - चेतना - 213
  • सोने जागने में , ज्ञान अज्ञान देखा गया | - चेतना - 214
  • गाने में भी रोना ? - भक्ति की चेतावनी - 214
  • दुनिया की ताल पर नाचने वाला बेहाल | किन्तु स्रष्टा का आदेश भी ताल ही था | नाचने वाला जगत को नचा रहा था | न चाह , न नाच , न वाह वाह | - ज्ञान - 214
  • किसी ने कहा श्याम कह | किसी ने कहा राम | ख़ुद ने कहा - खुदा बन , सब चले आयेंगे तेरे द्वार पर | - भाव - 214
  • स्तर तर | जय हरि हर | - ज्ञान की चेतावनी - 214
  • सज आओ , मुरझाओ क्यों ? कब तक व्याकुल ? आया अन्त अब तो शान्त | - चेतावनी - 214
  • तेरे करुण गीत ,हृदय स्पर्श करते | - भक्ति - 214
  • वर्ष पर वर्ष बीता | बरषा मेघ , बरसी प्रकृति | प्रकृति वर और तुम वधु ? तरसते रहो | - भक्ति - 215
  • क्या गाता ? रोना मिटा - भाव समेट , भाषा लपेट | देख काल का चपेट | - चेतावनी - 215
  • विकार का प्रसार | ' स्व ' का कब विचार | - ज्ञान की चेतावनी - 215
  • कहता हूँ तो बुरा लगता है दुनिया को | न कहूँ तो दिल को बुरा लगता है | अब तू ही बता क्या करूँ ? - भाव - 215
  • वस्त्र तुझे कब सजा पाये ? तू तो स्वयं ही प्रकाशमय है | ये वस्तुएँ कब सत्यं शिवं सुन्दरम् को सजा पाई | - ज्ञान - 215
  • रोना ही जानता है , गाना क्या जाने ? - भक्ति की चेतावनी - 215
  • पल प्रलय - कब अभय ? - चेतना - 215
  • मिथ्या की शिक्षा दी गई जगत के लिये | शिक्षा का प्रतिकूल प्रभाव क्यों ? जगत मिथ्या - आज भी कल्पना का विषय बना | मिथ्या , स्वप्नवत् कहने पर भी विश्वास कहाँ ? - चेतना - 216
  • चमक अन्धकार में थी . चमक में अन्धकार का पता कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 216
  • नस नस में वह रस है जिसे काल कवलित न कर सका | अमर का पुत्र अमर , वस्त्र फटा नवीन आया | - ज्ञान - 216
  • छिपा न सका दिल का राज ( रहस्य ) | चाहता था किसी से न कहूँ कि मैं भी किसी का हूँ किन्तु उसके प्यार ने राज को ऐसा प्रकाशित किया कि छिपाये न छिपा | - भाव - 216
  • क्षुब्ध क्यों , शुद्ध ? शुद्ध शान्त | क्षुब्ध भ्रान्त | - ज्ञान की चेतावनी - 216
  • बुद्धि खो दी , समझने में - समझा कब ? - चेतावनी - 216
  • आनन्द कहते ही हो | आ नन्द दुलारे | स्वप्न हमारे | - भक्ति - 216
  • तुम राम भी कृष्ण भी - राम कृष्ण भी | विवेक और आनन्द तो तुम्हारे शिष्य हैं | - भक्ति - 217
  • प्रकृति में तो सभी रमते हैं | कुछ और भी है | - चेतावनी - 217
  • क्यों ललचावे , फिर शरमावे ? नाचे गावे , ताल बजावे , फिर भी शान्ति नहीं क्यों पावे ? - ज्ञान की चेतावनी - 217
  • भूलता तो हूँ मैं किन्तु तू मुझे भुला नहीं पाता | शायद यही बेचैनी का कारण है | - भाव - 217
  • भोग के तार इतने तीव्र क्यों ? योग के लिये | शारीरिक योग यंत्रणा | आत्मिक योग आनन्द | - ज्ञान - 217
  • प्राणों में गति नहीं तो शरीर का नाश | भावो में प्रेम नहीं , फिर निरर्थक आश | - भक्ति की चेतावनी - 217
  • मिथ्या क्या है ? जग या जगन्नाथ ? जग कहाँ माना , नाथ ही नाथ हिला रहा है | जगत की जय हो रही है | नाथ तो न था न है | ऐसा ही कहा सुना जाता है | - चेतना - 217
  • बात की क्या औकात ? यदि धरातल सत्य न हो | - चेतना - 218
  • जीर्ण शीर्ण बदलेगा , पहले ही काम बना | - भक्ति की चेतावनी - 218
  • किसके लिये बेचैनी ? खुद को भूला हुआ हूँ , क्या बताऊँ ? - ज्ञान - 218
  • मुझे किनके हाथों सौंप दिया बेरहम जो मेरा खून पीकर भी शांत नहीं हो पाते | वाणी सुनाते सुनाते मैं थक गया किन्तु ये न थके खून पीने से | - भाव - 218
  • क्या ? समझा ? जो समझाते हो | - ज्ञान की चेतावनी - 218
  • जहाँ उबासी , वहाँ हवा सी | - चेतावनी - 218
  • प्रतिज्ञा या प्रति आज्ञा | प्रतिज्ञा तुम्हारी प्रति आज्ञा हमारी | - भक्ति - 218
  • कौन तुमको जानता है ? को न तुमको जानता है ? - भक्ति - 219
  • चटनी चट कर | मोदक पाये | - चेतावनी - 219
  • जान पर जान दे | ज्ञान क्या , जो अभिमान दे ? - ज्ञान की चेतावनी - 219
  • तेरा शयन मेरा आगमन | यह प्रतीक्षा थी या उपेक्षा | सोई दुनिया को जगाने वाला आया तो सोती दुनिया को बुरा लगा | - भाव - 219
  • जीवन स्थिरता है या चंचलता ? हिलता है पत्ता , मूल तो रसमय है , समझता क्यों नहीं ? - ज्ञान - 219
  • काम में भ्रम पैदा न कर बुद्धि रोयेगी , तन सूखेगा | काम में आराम | - भक्ति की चेतावनी - 219
  • सुनाने का बहाना है | कहना - कह ना - फिर क्यों सुनाता , क्यों कहता ? - चेतना - 219
  • विश्वास भी किया तो मिथ्या का ? - चेतना - 221
  • चुप रह कर देख | चुप्पी में मजा है , बोले तो सजा है | - भक्ति की चेतावनी - 221
  • रिझाऊँ तुम को या अपने को ? परिचय न था , पूछता फिरता था सत्य को , प्यार को किन्तु संत ने संदेह का अंत किया प्रथम दर्शन से | अब मन शांत , तन शांत | - ज्ञान - 221
  • रोने वालों को हँसा दे मेरे प्रभो ! यही मेरी अंतिम प्रार्थना है | हँसना छोडा़ रोना आया ,मैं क्या करूँ ? - भाव - 221
  • थका मन , थका तन | - ज्ञान की चेतावनी - 221
  • ख़ुद को न जाना | दुःख मोल लिया - सुख देकर | - चेतावनी - 221
  • प्यार आये , प्यार जाये , किन्तु तुम नजरों में रहो | - भक्ति - 221
  • जब बज उठता है तार | तो भूल गया संसार | - भक्ति - 231
  • विराट मंदिर के पुजारी , उसकी पूजा कब ? - ज्ञान की चेतावनी - 231
  • देव ! मैं बोल नहीं पाता जो कुछ तेरा है | देख नहीं पाता जो कुछ मेरा है | क्या इसी का नाम माया है ? - भाव - 231
  • कुत्ते की भों भों से चोर डरे । साह चलता ही रहेगा , भोंकना बंद होगा ही | - ज्ञान - 231
  • सतगुरु ने तुझे सत् की जानकारी दी | अब ? तू जान दे , जानकारी में जान दे | - भक्ति की चेतावनी - 231
  • विद्या - विदा हुई , जिस दिन से तुच्छ की पुच्छ लगाई | - चेतना - 231
  • शोक का शौक है | हर्ष के लिये तरसता है | - चेतावनी - 231
  • क्या भक्ति में यह शक्ति ? शक्ति , भक्ति दो बहनें | तरल हुई वह भक्ति , सख्त हुई वह शक्ति | - चेतना - 241
  • शरीर आज छूटे या कल मुझे गम नहीं | किन्तु तू पछतायेगा क्यों ? तुझे याद करते करते ही तेरे .... मरते हैं क्या यही तेरी भक्ति है ? - भाव - 241
  • रस लिया , थूका , तू कैसा रस लेता है ? थूकता भी नहीं | यह थूकने वाला रस नहीं | - ज्ञान - 241
  • ( वेद ने ) कहा है | लेकिन कहाँ है ? खोज | - भक्ति की चेतावनी - 241
  • ये दिल पर दाग ? मनुष्यता के | बड़े मीठे हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 241
  • काँपता था भय से प्रेम में नहीं | नाचता था अभाव में , भाव में नहीं | - चेतावनी - 241
  • कानों से जूठा न सुन , मुझे अनहद सुनने दे | - भक्ति - 241
  • जलाया ( ज्योति ) | जल आया ( प्रेम ) | - भक्ति - 251
  • तुझे जब देखना आया , तू उसको देख न पाया | क्यों ? ( तत्त्वमसि ) - ज्ञान की चेतावनी - 251
  • पूजा करते न मिला ? जप करते न झुका | वन्दना करते बन्द न हुआ | तो क्या पूजा क्या बन्दना ? - भक्ति की चेतावनी - 251
  • स्थूल में संज्ञा एक | सूक्ष्म का संसार असीम | न बन्धन , न वन्दन , न क्रन्दन , न मन्थन | केवल तृप्ति | त्रास नहीं , ह्रास नहीं , प्यास नहीं , वास नहीं | - ज्ञान - 251
  • तू माँ भी , माली भी , मालिक भी | मैं क्या कहूँ ? कुछ पता नहीं | - भाव - 251
  • आज काम होता है | मन को विराम दे , तन को विश्राम दे | - चेतना - 251
  • बुद्धि ने भय भगाया - मन ने न माना | भय की दुनिया भय की गाती | अभय की कब सुनाती | - चेतावनी - 251
  • कह न, सह । - चेतावनी - 261
  • एक बार भी तेरा नाम गूँजने लगता इन प्राणियों के कानों में तो निंदा स्तुति भूल जाते | - भाव - 261
  • किरण - जड़ चेतन से बात करती , हँसाती और मिलाती | सूर्य , किरणों का समूह | - चेतना - 261
  • प्रेम को किसने जाना ? कोई वासना समझ बैठा कोई भक्ति | आज भी प्रेमी कहलाने के लिये व्याकुल | प्रेम सरल भी , गरल भी | - ज्ञान - 261
  • फूलों की माला पहनाई | वरमाला हाथ में ही रही | दिल किसी को - माला किसी को | यह उपहास ? कहते उपहार | - भक्ति की चेतावनी - 261
  • जब तू आप से अनजान , कैसा ज्ञान का अभिमान ? - ज्ञान की चेतावनी - 261
  • शब्द की व्यापकता है , किन्तु तुम्हारी व्यापकता शब्दातीत है ? - भक्ति - 261
  • शब्द बड़े कि तुम ? तुम | तो शब्दों में क्यों रमा रखा है ? - भक्ति - 271
  • निरोध में प्रबोध ? शोध - प्रतिशोध और विरोध | - ज्ञान की चेतावनी - 271
  • रास लीला ? लीला आनन्दमयी - जब लाल पीला न हो | नस नस में रस तभी रास | - भक्ति की चेतावनी - 271
  • प्रेम किसी की हस्ती बरदाश्त नहीं कर सकता | - ज्ञान - 271
  • रूप का प्यासा , स्वरुप को क्या जाने ? रूप बाहर स्वरुप भीतर | - चेतना - 271
  • क्या विचार , क्या विकार , जिसने देखा प्रेम संसार | - भाव - 271
  • आ, दर कर, भाव में ले, सौदा पटे। - चेतावनी - 271
  • प्रकाश पर आवरण और कितने दिन ? एक दिन प्रकृति पराजित होगी | स्वयं प्रकाश से प्रकाशमय हो जायेगी प्रकृति | - भाव - 281
  • काम ने किया परेशान | इन्सान से हैवान | - चेतना - 281
  • नेक और वद | दो अक्षर और दो शब्द | अक्षर का नाश नहीं | शब्द गूँजते हैं विश्व ब्रह्माण्ड में | वाणी यदि मधुर तो मुग्ध करती रहेगी अनादि काल तक , यदि बद तो बद दुआ देगी प्राणी को | - ज्ञान - 281
  • संकेत तो केतु है , मन का , तन का , धन का | - ज्ञान की चेतावनी - 281
  • सदा दास , कब उल्लास ? - भक्ति की चेतावनी - 281
  • मन कहता है - जब मैं न , तब त , न , तें , न .( तू नहीं ) - चेतावनी - 281
  • नयन नहीं , आपका अयन है | - भक्ति - 281
  • धन दे |साधन ले | - भक्ति - 291
  • जब तक हार, कैसा आहार ? कैसा विहार ? - चेतावनी - 291
  • प्रेम का मर्म ? न धर्म और न कर्म | - चेतना - 291
  • अमर को स्मर | अमर नाम , अमर काम | मर , यदि नहीं जाने कौन अमर ? - भक्ति की चेतावनी - 291
  • नाम तेरा या उसका ? तेरा नाम मना , उसका नाम जमा | - ज्ञान की चेतावनी - 291
  • यह ' मैं ' कौन है ? जो शरीर त्याग के पश्चात् भी बना रहता है | यह " मैं " स्वयं है , जो अविनाशी है , कालातीत है | - ज्ञान - 291
  • वर्णन ने कहा वर्ण उसका क्या वर्णन करेंगे ? वर्ण वह रहने नहीं देता , न शरीर का और न जाति का | उसके खेल ही ऐसे हैं | - भाव - 291
  • चिन्ता दबाती है , सुख उठाता है , आनन्द मिलाता है | चिन्ता सूक्ष्म होते हुए भी घनीभूत करती है रक्त को | सुख तरंग उठाता मन में | आनन्द - सूक्ष्म , स्थूल के भाव के परे की अवस्था | - चेतना - 301
  • दूज की सूझ अनोखी दूज का चाँद , दर्शन मात्र से , हृदय कली खिलाता | - भाव - 301
  • खोल दरवाजा , दर - दर न भटक | - भक्ति की चेतावनी - 301
  • भगवान को भग, न कहो भगाओ मत | - चेतावनी - 301
  • क्यों गाऊँ ? दुःख के गीत | वियोग तो योग का सोपान | - भक्ति - 301
  • दुःख का भाव धुआँ है और बुद्धि का भाव कुहासा । दोनों ही अवरोधक हैं प्रकाश के | धुआँ दम घुटाता है और कुहासा अति समीप को भी नहीं देखने देता - प्रकाश क्या करे ? - ज्ञान की चेतावनी - 301
  • कब जाना , कहाँ जाना आज भी रहस्य बना हुआ है | कब जाना यह सब ने कब जाना ? कहाँ जाना ? जहाँ-जहाँ न हो | यहाँ वहाँ न हो | हाँ ना , न हो ? - ज्ञान - 301
  • लज्जा के जाल में बेहाल न हो | मान का नाम न ले | भय कैसा ? क्या अभय को भी भय ? मान , लज्जा , भय - इन तीनों से परे कौन है ? उसे जान , पहिचान | - ज्ञान की चेतावनी - 310
  • तू कर्ता भी अकर्ता भी ? सन्तान को कार्य देकर निश्चिन्त दर्शक बन बैठा | - भाव - 310
  • मृत्यु क्या है ? कष्ट दायक प्रसव | मृत्यु क्या है ? दीपक निर्वाण | मृत्यु क्या है ? रूपान्तर | मृत्यु क्या है ? कयामत | मृत्यु क्या है ? स्थूल सूक्ष्म का वियोग | मृत्यु क्या है ? महा प्रस्थान , महा मिलन | - ज्ञान - 310
  • कब तक ? बक मत - अभी, अब | - चेतावनी - 310
  • तेरा तरा - नहीं मरा | यों जीता मरा , मरा मरा | नहीं रमा , नहीं रमा | - भक्ति - 310
  • पवन पावन | मनन श्रावण | - चेतना - 310
  • फाटक तक फटकने न पायेगा यदि यों ही गला बाजी करता रहा | - भक्ति की चेतावनी - 310
  • अर्जुन सरल था , ज्ञान का अधिकारी हुआ | और राधा ? राधा तो वह आधा अंग था कृष्ण का , जिसके अभाव में कृष्ण आकर्षण न कर पाते | - भक्ति की चेतावनी - 311
  • यश क्या गाना , रस पी जाना | - चेतना - 311
  • सती और संत की समाधी सत्य में स्थित है | सत्य में खिले हुए दो सुमन हैं , जो सदा खिले रहते हैं | ( कभी मुरझाते नहीं ) - ज्ञान की चेतावनी - 311
  • सरलता, क्यों विफलता ? इतनी सरल कि आँखों में आती नहीं | - भक्ति - 311
  • आगे को आग लगा । पीछे को गर्भ में छिपा , अभी तो किये जा । - चेतावनी - 311
  • शिक्षा ज्ञानियों के लिए , दीक्षा मतावलंबियो के लिए , भिक्षा मानसिक भिखारियों के लिए | मेरे लिए तो प्रेम पथ है जहाँ विधि निषेध नहीं | - भाव - 311
  • मैं सिद्ध नहीं , मेरा अंत नहीं क्या इसी को सिद्धान्त कहना उचित जान पड़ता है ? यदि हाँ तो यह बुद्धि की बात हुई | मन कहता है सिद्ध का अंत है , सिद्धांत का अन्त है , किन्तु मैं अनन्त | - ज्ञान - 311
  • हवा में तैरता हुआ प्राणी एक दिन हवा में ही विलीन हो जाता है | हवा प्राण हवा मृत्यु | वाह री हवा तैने सबको हवा में उड़ा दिया | - ज्ञान - 312
  • विधि ने कहा-विधि , निषेध संतो के लिए नहीं | संत संतान तो सत्य के लिए और अंत भी होता है शरीर का सत्य के लिए | - भाव - 312
  • घटा नहीं -- छटा देख । - चेतावनी - 312
  • इधर टप टप बूँदे - उधर पट न था - पट बन्द न था | - भक्ति - 312
  • एकम को कोई झगडा़ न था | द्वितीया को दो हुए , महाभारत हुआ | तृतीया को - तीनों गुणों के खेल ने खेल दिखलाया | चतुर्थी को चारों पदार्थों की इच्छा हुई | एक में रहता तो इन तिथियों का तथा वारों का वार न होता | इस पार उस पार को पार करता , मझधार न होता | - ज्ञान की चेतावनी - 312
  • तेज , भेज | भाव सेज | - चेतना - 312
  • लोग कहते हैं राधा कल्पना थी | भई कल्पना ही तो राधा की तरह प्रिय है | - भक्ति की चेतावनी - 312
  • कृष्ण की कल्पना , राधा बन कर करो | कल्पना साकार हो | अपनी कल्पना निराकार हो | - भक्ति की चेतावनी - 313
  • ये बेचैनी क्यों ? तार किधर लगा है ? - चेतना - 313
  • शब्द सुना और बेंध दिया त्रिलोक को | उसी का सुनना सार्थक | आकाश के पार की बातों से क्या ? यदि भेद न जाना , बेंधना न जाना | - ज्ञान की चेतावनी - 313
  • क्या खाऊँ ? जो तुझ में समाऊँ | गम खाऊँ या रम जाऊँ ? - भक्ति - 313
  • मिर्चा का बघार नाक जलाता | कपाट बन्द कर, पड़ोसी प्रभावित न कर दे | - चेतावनी - 313
  • मुझे चुप रहने दे | झूठा राग मुझसे गाया न जायेगा | सत्य मेरा प्रभु | व्यवहार संसार के लिए । मुझे शांत रहने दे | - भाव - 313
  • सृजन और विसर्जन , जन-जन को हर्षित और आकुल करता है | संत जन इसका रहस्य जान , ज्ञान ध्यान में जीवन सफल करते हैं | - ज्ञान - 313
  • स्वछन्द = ' स्व ' का छन्द असीम , पर का कष्ट दायक | है तो छन्द किन्तु ' स्व ' का है अतः आनन्द दायक | - ज्ञान - 314
  • गुण गा गा कर मैं थक गया | मुझे तो निर्गुणी बना कि तेरे जैसा मजा पाऊँ | - भाव - 314
  • धोखा--धो कर खा, धोखा न रहे | - चेतावनी - 314
  • मन्दिर - मन देर न कर | मस्जिद - मत जिद्द कर | गिर्जा - गिर चरणों में जा | विहार - हार न मान , विहार कर | - भक्ति - 314
  • मेरी गुड्डी कहीं अटक गई है | सूता मेरे हाथ में है , मैं टानूँ ? - ज्ञान की चेतावनी - 314
  • प्रतिक्रिया नहीं , यह परिछाई मात्र है | आईने में क्रिया नहीं , यह छाया मात्र है | - चेतना - 314
  • आज वचन सुनता है , कल बच न सकेगा | सावधान | - भक्ति की चेतावनी - 314
  • प्यार , कोई खेल नहीं , यद्यपि खेल के लिये प्यार करता है | - भक्ति की चेतावनी - 315
  • इस पार , उस पार , यही व्यापार | - चेतना - 315
  • स्वर में ईश्वर है | बेसुरी माया है | - ज्ञान की चेतावनी - 315
  • साजन ! सत् जन मिले | तुम ही मिले | - भक्ति - 315
  • तू अपने में खेल, आनन्द पायेगा, जग सपने में खेल, मजा पायेगा | दिल भरमायेगा, तू लजाएगा | न हाथ आयेगा, समय बीत जायेगा | - चेतावनी - 315
  • जीवन का एक दिन भी महान जब प्राणी महान के प्रकाश से प्रकाशित हो | - भाव - 315
  • यह शरीर दीपक , रक्त स्नेह (तेल) आयु वर्तिका , वायु प्राण प्रज्वलनकर्त्तृ | - ज्ञान - 315
  • नेति-नेति कह कर यदि वेद न पुकारते तो लेखक लिखता क्या , पाठक पढ़ता क्या ? कवि की कल्पना निरर्थक न होती | - ज्ञान - 316
  • साथ का आनंद अंतरंग साथी से पूछो | प्रत्येक पद और क्षण आनन्द दायक | - भाव - 316
  • क्या नहाया ? क्या धोया ? क्या यों ही थूक बिलोया ? मन नहाया , दिल धोया , नहीं , यों ही जनम बिताया | - चेतावनी - 316
  • खल कौन ? लख | सभी मखमल बन जाते हैं , जब लखना , खेलना आ जाता है | - ज्ञान की चेतावनी - 316
  • शरीर में सुगंध ? संत के लिये - असम्भव क्या ? - चेतना - 316
  • पुकारने के स्थान से तुम्हें कब पुकारा ? क्या आर्त स्वर तुम्हें अति प्रिय है ? - भक्ति - 316
  • यह कैसा ध्यान है जो लगाना पड़ता है | ध्यान कैसा होता है यह मां से पूछो , बच्चे से पूछो | ध्यान सहज है | - भक्ति की चेतावनी - 316
  • बसाना या बसना - पूछ दिल से | - भक्ति की चेतावनी - 317
  • गीत गाते , दिल लुभाते | जाग जाते , प्यार पाते | - चेतना - 317
  • सप्त स्वर में संगीत है | राग-रागिणी | सप्त भूमिका में भूमि और आकाश के सभी भावों पर विजय है | - ज्ञान की चेतावनी - 317
  • क्या सुन रहा है बैठा तराना जिन्दगी का , आया है छलकने पर पैमाना जिन्दगी का | इस दम का क्या भरोसा दम पर न छोड़ नादां , अभी से ख्याल कर ले मस्ताना जिन्दगी का | हालाँ , अजल से ताकत चलती नहीं किसी की , क्यो मौत ही से करता याराना जिन्दगी का | - चेतावनी - 317
  • आनंद का जन्मदिवस कब ? आनंद के लिए ही जन जन उत्सव मनाता है , भाव की थाली सजाता , प्रेमाश्रु की माला पहनाता | - भाव - 317
  • बदहोशी हुई दोषी - होश ने दोष दोषी दोनों से मुक्त किया | - ज्ञान - 317
  • वाणी सत्य - स्थान विशेष की | वाणी - वाणवत् चली | - भक्ति - 317
  • मौनी ने मौन धारण की | क्यों ? मोह नहीं है बोलने का , सुनने का | - ज्ञान - 318
  • संसार का सार तेरा नाम | यदि इसी से वंचित रहूँ तो मेरा आगमन वृथा तेरा अवतार किस काम आया ? - भाव - 318
  • अरे बातें करते - करते तबाह हो रहा है | कुछ ध्यान भी है , क्या कहता था और क्या कर रह है ? - चेतावनी - 318
  • फेर - माला फेर - निनानबे का फेर . - ज्ञान की चेतावनी - 318
  • नकली सोना , पीतल से भी बदतर | - चेतना - 318
  • प्रकाश में प्रकाश | प्रकाश में उल्लास | - भक्ति - 318
  • हवा कहती है - है | फिर क्यों तवाह ? - भक्ति की चेतावनी - 318
  • क्यों चिल्लाता है ? क्यों ? चित् लाता है , या यों ही चिल्लाता है ? - भक्ति की चेतावनी - 319
  • क्यों वृथा गाल बजाऊँ जब तुम ही प्रसन्न नहीं ? ऐसा न कहो तुम मेरे प्रकट रूप हो | छिपा छिपा रमण करता हूँ योगियों के हृदय में , भोगी भोग में मस्त | - भाव - 319
  • इशारे पर सारे | ( जब ) बाबा हमारे | वाह वाह हमारे | इशारे पर सारे | - भक्ति - 319
  • प्यार की दीवार है , तोड़े तो बेड़ा पार है | - चेतना - 319
  • काल का ख़याल है , उस कालोऽस्मि का नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 319
  • विश्वास नहीं तो विश्व को क्या जानें , विश्वेश्वर की आशा क्यों करने लगे ? आश को विश्व के लिये छोड़ , तू विश्वास से काम ले | विश्व तेरे पाने की आशा करे , यदि विश्वासमय हो जा | - चेतावनी - 319
  • पागल , बकवास क्यों करता है ? मैं पागल यह तो तुम कहते हो तुम्हें अधिकार है कहने का | बक (वगुला) नहीं , वास मेरा नहीं यहाँ फिर बकवास कहना क्या उचित होगा ? - ज्ञान - 319
  • " मैं " और " तू " ने दुनिया को चक्कर में डाल दिया अन्यथा व्यथा न होती , कथा न होती | - ज्ञान - 321
  • पद चाहता है , प्रभु पादुका नहीं , पद नहीं प्रभु पद , मद नहीं हरि मद , हद नहीं , अनहद , वद नहीं , कर , मर । - चेतावनी - 321
  • किसी की चाह ने मुझे यह राह दिखलाई | आज वह तो अन्तर्धान हो गया किन्तु अन्तर्दाह कैसे मिटे जब तक कि उसके दर्शन न हों | - भाव - 321
  • भाषा की सीढ़ियाँ तुम्हें भाव तक पहुँचा न सकेंगी | भाव की तरंगोंवाला भगवान भाव में ही लीन किन्तु भावातीत तो कोई और है | - ज्ञान की चेतावनी - 321
  • गति शरीर में , गति मति में , फिर ? फिर नहीं , स्थिर | स्थिर में गति , अगति दोनों ही | - चेतना - 321
  • बोलती बन्द , अब आनन्द | - भक्ति की चेतावनी - 321
  • स्थूलता क्यों खींचती है ? सूक्ष्म तो उसमें समाये , जान जाये , भेद पाये | - भक्ति - 321
  • मीत , गाते गीत | मीत ही है प्रीत | - चेतना - 331
  • जीवन , जीव न , शिव | - ज्ञान की चेतावनी - 331
  • जीवन की प्रथम रश्मि ने नवीन प्रभात का स्वागत किया |यह दिव्य जीवन है जहाँ जीव नहीं - शिव ही शिव है | - भाव - 331
  • सम - समीप | और ? भीत | - भक्ति की चेतावनी - 331
  • हार कर हरि आया | उसकी हार ही जीत है | - चेतावनी - 331
  • " हूँ " क्यों कहता है ? " मैं " क्यों कहता है ? स्वयं को जताने के लिए " मैं हूँ " शब्द मात्र है | - ज्ञान - 331
  • मीरा के नैनन वाण पड़ी , इधर वाणी को वाण पड़ी | देखा जाय किसका वाण किस पर चलता है | - भक्ति - 331
  • सात (लोक) यदि साथ दें तो मजा ही मजा | नहीं , सत्य यदि साथ दे तो आनन्द ही आनन्द | - ज्ञान - 341
  • रातें और बातें बीती | वह दिन कब आया जब दीनता न रही,वह दिन सुदिन | - चेतावनी - 341
  • आँख की बंद | यही हुआ फंद | - भक्ति की चेतावनी - 341
  • पान कर , पान करा | - ज्ञान की चेतावनी - 341
  • प्रथम दर्शन-अंतिम भेंट | प्राणों की जगत की | - भाव - 341
  • दशरथ आज राम खोज रहा है | मन राम तो तन आराम | - चेतना - 341
  • देवता | दे बता - बता दे - देवता | - भक्ति - 341
  • द्रष्टा - स्रष्टा बना | न देखने की इच्छा होती और न सृष्टि होती | - चेतना - 351
  • चमक कम , चमत्कार कम , धमक कम , धर्म का अभिमान कम | - ज्ञान की चेतावनी - 351
  • फँसना नहीं , हँसना है ( झंझटो में ) | - भाव - 351
  • विश्व खो | विश्वास न खो | - भक्ति की चेतावनी - 351
  • मोहब्बत नहीं - मोह का व्रत मोह वत| - चेतावनी - 351
  • सर्वव्यापी की हृदय में ही स्थापना क्यों ? पहले भीतर देखना तो जानें । समय आने पर बाहर भी देख सकेगा । बाहर से ( मूर्तियाँ ) भीतर , फिर भीतर से बाहर । - ज्ञान - 351
  • बेकली ही कली को खिलायेगी | - भक्ति - 351
  • मिलन में वियोग कहाँ ? यदि है तो शरीर का | - भक्ति - 361
  • मतलबी तो अनेक देखे , मतवाला एक देखा जिसने अपने प्यार से मतवाला बना दिया | - ज्ञान - 361
  • समय -- स मय हो | - चेतावनी - 361
  • घर भीतर भी, बाहर भी | बाहर का घर हरण करता रहा शांति का | हरि का नाम लेना भी कठिन किन्तु जिस दिन संत ने भीतर वाले घर का रास्ता बताया तो आनन्द आया | - भाव - 361
  • क्यों नींद ? लय में लय हो रहा है | जागृत जाग , रत हो जा , तल्लीन हो जा | - भक्ति की चेतावनी - 361
  • पर से पक्षी उड़ते हैं | बे पर भाव | पक्षी ससीम , भाव असीम | कुछ भाव एसे भी आते हैं जो बे सर पैर के होते हैं | किन्तु बेचैन क्यों ? ऐसे भाव भी आयेंगे जब किसी का अभाव न रहेगा , न खटकेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 361
  • शिव - वशीभूत - भूत , भूत न रहा | - चेतना - 361
  • साह को उत्साह | चोर करे शोर | - चेतना - 371
  • कहानी में क्या हानि ? कहा नहीं कि हानि ही हानि , कहा - यह कहा , वह कहा किन्तु किया भी या कहते ही रहे | - ज्ञान की चेतावनी - 371
  • आज - आ , जा | कल काल की चिन्ता न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 371
  • प्रसार तो प्रचार नहीं , प्रचार चारों दिशाओं में उत्तेजना फैलाता है | प्रसार स्वयं फैल जाता है , उसे फैलाना नहीं होता | - भाव - 371
  • तू मेरा तो जग मेरा - नहीं तो सब झूठा सब मिथ्या | - भक्ति - 371
  • ये खटमल तो शरीर मन दोनों को काटते हैं -शांति की दवा छिड़के तो फुरसत मिले | - चेतावनी - 371
  • किस-किस की सुने प्राणी - दुनिया की या नवीन प्राचीन मतों की | तंग आकर उसने निराला मार्ग अपनाया भोग का | तंग ही आना है तो भोग का ही , क्षणिक सुख का ही इच्छुक क्यों न बनें | वाह रे मनुष्य | - ज्ञान - 371
  • मौन की प्रेरणा कहाँ से मिली ? अज्ञात से | अज्ञात ने कहा - सब कुछ करता हुआ भी मैं मौन हूँ , तू भी मौन रह कर देख कि मजा है या कजा है | - ज्ञान - 381
  • मित्र कौन ? जो कहे अत्र , तत्र , क्या सर्वत्र मेरा प्रेम राज्य है | - भक्ति - 381
  • यह सृष्टि कैसे बनी , तन-मन कैसे बना ? यह ग्रन्थों से पूछ , विद्धानों से पूछ | कौन कैसे बना इसका उत्तर कौन दे | यह तू ही जानता है | मैं तो यही जानता हूँ कि तेरे सिवा मेरा कोई नहीं | - भाव - 381
  • अक्षत चढ़ाते चढ़ाते अक्षत न हो सका तो क्या अक्षत चढ़ाये ? - भक्ति की चेतावनी - 381
  • चाँदनी आई - चाँद कहाँ छिपा रह सकता है | - ज्ञान की चेतावनी - 381
  • ऋषि मुनियों की असम्भव बातें करते किन्तु अपना पता नहीं | यह न पुण्य है न पाप | - चेतावनी - 381
  • आ , लागी रे , या लागी रे | आला गिला में आग लागी रे | आ लागी रे | - चेतना - 381
  • नचा रही तुम कौन ? मैं भगती , भक्ति , भक्त + ई | नाच रही तुम कौन ? मैं भगती , नहीं भगती भक्ति , भक्त + ही | और तू ? जान मुझे पहिचान | मैं ज्ञान - नहीं अभिमान , मैं जान , तेरी जान , मुझे पहिचान | - चेतना - 391
  • मैं में लीन - मलीन | तुम में लीन - तल्लीन | - चेतावनी - 391
  • श्रीतल , शीतल | - भक्ति - 391
  • धर्म का नाश | धर्म का नाश , ह्रास , उपहास कभी होता नहीं , मान्यता बदलती है , अविनाशी का धर्म भी अविनाशी है | - भाव - 391
  • मुझे सोने दे , किसी का होने दे | दे कहने से कुछ न बनेगा | ले , यदि ले सके | - ज्ञान - 391
  • छिपा , प्रकाश में आया , उसी दिन प्रकाश मय | - ज्ञान की चेतावनी - 391
  • रक्षा उसी की जो क्षार हो जाये | क्षार बना आँखों का सुरमा बना | बन्धन की क्षार , विचारों के बन्धन की क्षार तो गुरु ही करते हैं | आज रक्षा का बन्धन गुरु के चरणों में अर्पण करो | - भक्ति की चेतावनी - 391
  • ताव में न आओ | भाव में आओ | ताव स्वयं बेताब हो जायेगा , झल्ला कर रह जायेगा , भाव में आओ | - भक्ति की चेतावनी - 401
  • किसी पागल ने कहा - पूजा कर | ना बाबा , कहीं मैं भी पागल न हो जाऊँ | पागल की पूजा भगवान को भी पागल बना देती है | - ज्ञान - 401
  • तुम मन में हो तो यह मन क्यों दौड़ रहा है | मन खेल खेलता रहता है और मैं खेल देख रहा हूँ मन का | मन थकेगा मैं नहीं थकता | - भाव - 401
  • उपवास कर कहाँ वास करूँगा ? अब तो वास करूँगा , उपवास उसी में वास करे | - भक्ति - 401
  • क्या जग में जगते हुए देखे ? या कर्त्तव्य पथ से भागते हुए ? - चेतना - 401
  • अज्ञेय कह कर , रहस्य की सृष्टि मानी | दृष्टि पाता , रहस्य छिन्न - भिन्न हो जाता | - ज्ञान की चेतावनी - 401
  • मवाद पर बैठी मक्खियाँ मनुष्य की घ्रुणा का कारण बनीं | मक्खियों ने कहा -- यह तो मानव कार्य है | - चेतावनी - 401
  • मिट्टी से खेला | मिट्टी में खेला | न आनन्द से खेला , न आनन्द में खेला | अंत मिट्टी या अंत आनन्द ? सोच | - चेतावनी - 410
  • तप किया तन के लिये कि मन के लिये ? यदि तन के लिये तो अपूर्ण है | - ज्ञान की चेतावनी - 410
  • जो माँ से अधिक प्यार करे , पिता से अधिक स्नेह रखे , वह कौन है ? वह तू है | ऐसा व्याप्त कि त्रिविध ताप क्षण में हरण कर , शरण में ले मानसिक रण से मुक्त करता है फिर भी जन तुझे न जाने तो भ्रान्ति ही मिलेगी , शान्ति तो तेरे नाम में है | - भाव - 410
  • किसी को माना भी तो चमत्कार के कारण | राम यदि रावण का वध न कर पाते तो शायद राम की भी पूजा न होती | ज्ञान भक्ति भी तभी पूजित जब चमत्कारपूर्ण हो | - ज्ञान - 410
  • कल जो मस्तक पर थी आज चरणों में | इसे तपस्या कहा जाय या समर्पण ? ( गंगा ) - भक्ति - 410
  • आप को पा , कहाँ पाप ? आप ही आप फिर कहाँ शाप ? कहाँ ताप ? कहाँ जाप ? - भक्ति की चेतावनी - 410
  • जान (ज्ञान ) के लिए प्राण | - चेतना - 410
  • गुरु के लिए प्राण | - चेतना - 411
  • क्यों न वारी ? यों ही हारी | - भक्ति की चेतावनी - 411
  • कुछ के लिये तो रहस्य बना है और कुछ के लिये रस , अधिक तो तेरी परवाह भी नहीं करते | तू सुखी वे दुःखी | - भक्ति - 411
  • न शांति चाहिये और न भक्ति | चाहिये चमत्कार | प्रत्येक क्षण प्रकृति अपने खेल दिखला रही है | क्या यह चमत्कार नहीं ? इसे चमत्कार कौन मानता है ? सर पर हाथ रखे और रोग दूर हो जाये | सिंह को गाय बनता देख कर दुनिया नमस्कार करती है | वाह रे दुनिया | - ज्ञान - 411
  • कौन आया , जिसने अंतरात्मा को जगाया ? विषय वासना कहाँ जब तेरा वरद हस्त मस्तक पर है | - भाव - 411
  • लोग तप देख कर चकित किन्तु स्वयं तो खेल ही देखता रहा | - ज्ञान की चेतावनी - 411
  • दिल चाही हाथों हाथ न हुई , तो लगा गालियाँ देने , निज को , भगवान को , भाग्य को | किन्तु अपराधी कौन ? - चेतावनी - 411
  • उत्सुकता उपस्थित करती , उपेक्षा दूर करती | इसमें आश्चर्य क्या ? - चेतावनी - 412
  • पूजा कर पवित्र बना | अभी पूजा अपूर्ण | पवित्र तू है | पूजा भी तेरी है | - ज्ञान की चेतावनी - 412
  • सरल को क्यों बनाया , जब दुनिया टेढ़ी ? घबडाता क्यों है ? विजय सरल की ही है | - भक्ति - 412
  • राही ने राह पूछी , कौन बताता , सभी तो गुमराही थे | तेरी प्रिय सन्तान सन्त आया , राह ही नहीं , शाह से मिलाया | यह तेरी कृपा या तेरी सन्तान की , तूही जानें | - भाव - 412
  • चतुर्भुज भगवान न होता तो कौन नमस्कार करता किन्तु दो हाथ वाले ने तो चार भुजा वाले को प्रेम , भक्ति से अपना प्रेमी , सखा , दास तक बना दिया | यह क्या कम चमत्कार है ? - ज्ञान - 412
  • पुकार सुन | हुँकार न भर | - भक्ति की चेतावनी - 412
  • रूह के लिए प्राण | - चेतना - 412
  • अनन्त ही अनन्त है | शांत है अनंत है | भ्रांत कब अनन्त है , क्लान्त कब अनन्त है ? - चेतना - 413
  • यदि भूखा , तो क्यों रुका ? - भक्ति की चेतावनी - 413
  • जो मैं में लीन उसका हृदय मलिन होगा ही , इसमें आश्चर्य क्या ? - ज्ञान - 413
  • पुस्तकें नहीं , तुम्हें देखता हूँ | खता तो नहीं , खफा तो नहीं | तेरा वियोग असह्य | - भाव - 413
  • एक को अनेक में देख न सका तो कैसी भक्ति ? - भक्ति - 413
  • जब द्रष्टा ही स्रष्टा है तो भ्रम क्यों ? जाने तो पहचाने | - ज्ञान की चेतावनी - 413
  • अल्प को ही कल्प समझना मन बुद्धि का धोखा है | - चेतावनी - 413
  • शिव का विष पान सरल , वासना का अधर पान विष से भी भयानक | बार-बार जन्म बार-बार यातना | - चेतावनी - 414
  • लय में गा | लय हो जा | पल पल प्रलय | - ज्ञान की चेतावनी - 414
  • तेरा नाम क्या कुनाइन है जो मुख में कड़वी पर जब गले के नीचे उतरी कि चीनी सी मधुर हो गई ? - भक्ति - 414
  • जो प्रणय को नहीं जानता , प्रणव को नहीं मानता और प्रवीण बन बैठा उसकी अवस्था क्या होगी ? शोचनीय कह कर भी संतोष नहीं होता | - ज्ञान - 414
  • प्यार को कभी देखा है ? प्यार को देखा नहीं , प्यार के दिवानों को देखा है जिन्हें भले बुरे की पहचान नहीं । अन्त अनन्त का घ्यान नहीं । - भाव - 414
  • बातें न बनाओ | सीधी राह पर आओ | - भक्ति की चेतावनी - 414
  • लेखनी क्यों ? कथनी क्यों ? करनी क्यों ? छोड़ गाथा , तोड़ नाता | न कोई आता , न कोई जाता | स्वयं दिखाता , स्वयं लखाता | - चेतना - 414
  • लाल भाल पर बाल बाल पर हाल बेहाल किया | - चेतना - 415
  • हाय यहाँ , तो बाँह कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 415
  • खता मुआफ हो , सर्वव्यापी की तौहिनी क्यों ? हीन ही दीन | तेरा दीन धर्म तो मैं हूँ | ये धर्म कर्म वाले इसी में लगे रहेंगे | तू तो मेरा है , न दीन न हीन | - भाव - 415
  • अन्तर्यामी | बाहर क्यों चक्कर खिलाता है ? तुझे भी भय है कहीं अन्तर वाले के दिल में न बैठ जाऊँ ? - भक्ति - 415
  • कहो कथाकारों से कि वे बुद्धि , बल तथा तर्क के द्वारा ईश्वरीय लीला को समझा न सकेंगे | उनका प्रयास बौने का आकाश छूना जैसा है | - ज्ञान - 415
  • ( वेद व्यास ) वेद ( जान ) और वास कर | भारत में ही महान नहीं , विश्व में तू महान है | - ज्ञान की चेतावनी - 415
  • गर्भ से प्रकाश में आकर भी न प्रकाश जान सका और न देख सका | फिर मृत्यु अनिवार्य - गर्भ तैयार | हाय विधाता , कैसा खेल ? - चेतावनी - 415
  • माँ के स्तन में रस , प्रकृति के अणु अणु में , फिर नीरस जीवन वाहन करता है , यह अज्ञान है | - चेतावनी - 416
  • आँखों में जादू है | किसी आँख वाले से पूछो | - ज्ञान की चेतावनी - 416
  • प्यार का द्वार केवल तेरे लिये तू मुझे चाहता जो है | - भक्ति - 416
  • अहं को अहंकारी कब समझ पाया ? अहं नम्र हो जाता है जब शरणागत हो जाता है महाशक्ति से | - ज्ञान - 416
  • आज तेरी तस्वीर देखी , पेड़ों में , पत्तों में , लताओं में , पहाडों में , पत्थरों में , देखता ही रह गया | बला का आकर्षण है , फिर भी ये पण्डित , ये विद्धान , निराकार , साकार के झगडे़ में लगे हुए हैं क्या बात है ? बात कुछ नहीं , विवाद ही इनकी जीविका है | - भाव - 416
  • क्यों फूला ? क्यों भूला ? जग भुला | दे धूला | - भक्ति की चेतावनी - 416
  • पथ देख , पथ पाया | पथ से इस राह आया | - चेतना - 416
  • क्षण क्षण क्षय क्षय रण का क्यों भय तू है निर्भय , तू है निर्भय | - भक्ति की चेतावनी - 417
  • सूझ उसकी , जिसने सूझ दी | बूझ भी उसी का प्रसाद है | - भाव - 417
  • खिलौने न दे , प्यार दे | तुझे जानूँ अपना मानूँ | - भक्ति - 417
  • भोग मानसिक रोग है , इसे अति अल्प व्यक्ति ही जानते है | भोग से रोग उत्पन्न होता है यदि अति मात्रा हो | सर्व विदित है | - ज्ञान - 417
  • देखते - देखते मोह बढ़ाया | मोह बढ़ाया , यह जीवन पाया | - चेतना - 417
  • अणु ने कहा - मैं आज महान से मिलूँगा | महान ने कहा - पागल ‘ मैं ‘ छोड़ तू ही महान है | - ज्ञान की चेतावनी - 417
  • राह-गुमराह - फिर राहत कहाँ ? - चेतावनी - 417
  • पुरुष है तो पुर में रह | और में रत तो औरत | - चेतावनी - 418
  • ऐसा मिल कि खिल जाये दिल | - ज्ञान की चेतावनी - 418
  • त्याग भी सूक्ष्म अहंकार पूर्ण है | प्रेम में भी सूक्ष्म वासना है | सूक्ष्म का त्याग और प्रेम भी अति सूक्ष्म है किन्तु इस सूक्ष्म की व्याख्या तो अति सूक्ष्म है | जहाँ स्थूल प्रधान वहाँ सूक्ष्म की बातें अर्थहीन | - ज्ञान - 418
  • क्या बताया ? क्या दिखाया ? कुछ भेद भी पाया ? हाँ पाया , खोया धन घर ही में | - चेतना - 418
  • प्रतिदिन अमावस्या ही है जहाँ अंधकार देखा | तेरा पूर्ण चन्द्र मुख छिपा न देखा | - भक्ति - 418
  • माँ हर इसका तम , यह तो माहिर बन बैठा | - भाव - 418
  • बन तू रेणु , बजे अब वेणु | - भक्ति की चेतावनी - 418
  • अब मूक हो जा , अब तो सो जा | - भक्ति की चेतावनी - 419
  • जलसा-जल सा था उसके लिए , जिसने प्यार का जलवा देखा था | जलसा नहीं , उसे जलवा आनन्द देता है | विषयों में बहने वाला , दिल बहलानेवाला प्राणी तेरा जलसा तुझे मुबारक | - भाव - 419
  • दुनिया कहती मुझे मान , तू ही बता , तुझे मानूँ या तेरी दुनिया को ? - भक्ति - 419
  • शक्ति दासी है जो उसका व्यवहार जानता है | शक्ति की उपासना , अपने को दास मान बैठता है | - चेतना - 419
  • प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि प्राणी का मुक्त होना सरल नहीं | भक्त की भी प्रकृति है तथा आसक्त की भी | भक्त की कोमलता प्रकृति को भी द्रवीभूत कर देती है , तभी वह पुरुष को पाकर पुरुषत्व प्राप्त कर सका है | - ज्ञान - 419
  • मानव - मान नव - नित्य नवीन | मान अभिमान करना सीखा , अब कुछ नम्र होना सीख । - चेतावनी - 419
  • निश्चित हो , अनिश्चित समझ घबड़ाता है | काल कार्य को प्रधान समझता है | स्वयं ही कर्त्ता , भोक्ता है - घबड़ाता क्यों है ? - ज्ञान की चेतावनी - 419
  • निर्माण हो रहा है तो निर्वाण भी हो रहा है | क्रम चालू | पूरा हुआ - फिर न अधूरा हुआ | - ज्ञान की चेतावनी - 421
  • जगदीश भी गुप्त है तो क्यों प्रदर्शन के लिए व्याकुल ? प्रत्येक क्षण में रण का क्यों आव्हान करता है ? - चेतावनी - 421
  • वरसात में सात वर है ( सप्तलोक ) | जान सका तो तर हो गया और अनजान तरसता गया , तड़फता गया | - ज्ञान - 421
  • कब समय आयेगा जब दृष्टि मात्र से तुम्हारी अनुभूति होगी ? - भक्ति - 421
  • यह जटा नहीं छटा है प्रभु की , जिसने अपने अबोध बालक को बाल बाल बचाया है जग के प्रलोभनों से | - भाव - 421
  • क्या कह दूँ अपना हाल ? मै हूँ - तेरे सवाल का जवाब | - भक्ति की चेतावनी - 421
  • निरोगी - वह जो निराकार , साकार के राग को एक माने | - चेतना - 421
  • महान जब साधारण जन की ओर आता है तो महान कहलाता है | साधारण जन जब महान बन जाता है तो बन नहीं जाता , जन-जन में महान के गुण फैलाता है | - भाव - 431
  • भगवान को किसने बनाया ? भक्त ने | और भक्त को किसने बनाया ? भगवान ने | - भक्ति - 431
  • प्रकृति ने मुख चूमा अपना लिया , पुरुष की ओर घूम कर न देखा | थी न काया , माया से मिली किन्तु पुरुष को देखती तो मुग्ध हो जाती , शान गुमान न रहता | - चेतना - 431
  • कल जब आज की चिन्ता की तो आज ने कहा - अब कल की चिन्ता न कर , नहीं तो इस चिन्ता का अंत नहीं | - चेतावनी - 431
  • नाचते देखा वृत्तियों को , गाते सुना अन्तर्वृत्तियों को | आनन्द ही आनन्द | - ज्ञान की चेतावनी - 431
  • कपूर की तरह जला काया माया को , यही आरती है | - भक्ति की चेतावनी - 431
  • नीचे क्यों ? ऊपर देखें | - भक्ति की चेतावनी - 441
  • एक रंग ऐसा है , जिसमें सभी रंग हैं | किन्तु उसका अपना रंग नहीं | ( स्वच्छ , सफेद ) । - चेतना - 441
  • अरे मान तो अरमान पूरा हो | कर जान पहिचान तो अरमान पूरा हो | नहीं तो ? नहीं और तो कहते कहते आज कुछ न रहा | तो मैं क्या करूँ ? यही 'नहीं तो' की कहानी | - चेतावनी - 441
  • हलचल | हल कर जीवन प्रश्न , नहीं तो यहाँ से चल | यहाँ हलचल है | - ज्ञान की चेतावनी - 441
  • ये फूल मेरे हृदय की कोमलता बतलाते हैं | कोमलता न जान मुझ पर चढ़ाकर प्रसन्न होने वाला ही प्रसन्न हो जाता हैं | मैं ? क्या कहूँ ? - भक्ति - 441
  • तेरे जीवन का तीर ( किनारा ) मैं , रथ मैं , तीर्थ मैं , तुझे तीर्थों से क्या काम ? भ्रम वाले इनकी यात्रा कर भी , भ्रम निवारण न कर सके | - भाव - 441
  • विशाल है तेरे मन्दिर - किन्तु तू कितना विशाल है , यह मन्दिर वाले नहीं जानते | धन्धा है क्षुधा निवृत्ति का | क्षुधा मिटी - खुद आया | खुदा जो है | - भाव - 451
  • बड़े - बड़े ग्रन्थ क्यों ? ग्रन्थकार की मानसिक ग्रन्थी भी इतनी ही विशाल थी | - चेतना - 451
  • इन आँखों को क्या हो गया ? ये तो एक ही में रत हैं , तर है | - भक्ति - 451
  • अभाव की भिक्षा अभाव उत्पन्न करती , किन्तु भाव का प्रभाव अद्भुत है | भूत शिव में अन्तर कहाँ ? हृदय हाथ में अन्तर कहाँ ? एक गति उत्पन्न करता और छिप रहता और एक निमित्त बनता गति का | - ज्ञान की चेतावनी - 451
  • दर्श में भी रस , स्पर्श में भी रस , कर्ष में भी रस , हर्ष में भी रस | पृथ्वी रसा फिर भी नीरस बन घूम रहा है , बलिहारी है | - चेतावनी - 451
  • लिखना , बोलना | लिख कर यदि खिल सके तो लिख | बोल कर यदि भूल सके तो बोल , नहीं तो चुप रहो | - भक्ति की चेतावनी - 451
  • मिलन का आनन्द , मिल न , हिल मिल जा , आनन्द , फिर जाये कहाँ आनन्द ? - भक्ति की चेतावनी - 461
  • याद करने वालों को कौन भुला सकता है ? न नर न नारायण | - चेतावनी - 461
  • जलन भी जल चाहती है किसी हृदय का जो आँखों में समाया हुआ हो | - ज्ञान की चेतावनी - 461
  • एक दिन तेरे मुख से सुना था कि ' वह तू है ' और आज इस मुख से निकल रहा है - वह तू है – सदगुरु वह तू है | जिसने तू मैं का रहस्य समझाया | - भाव - 461
  • यार को देख प्यार भूला | - भक्ति - 461
  • थको मत - कथो , कहो | अपनी कहो – दिल की कहो , दिमाग की कहो , अहंकार की कहो | कहो इतना कहो कि और कहना न रह जाये | - चेतना - 461
  • गुरु गुड़ था और चेला शक्कर | अब भी शंका थी मैं बड़ा़ कि गुरु | गुड़ न होता तो शक्कर बनती कैसे ? - भाव - 471
  • हजम कर सुनी बातें नहीं तो यह दुनिया हजामत बना कर ही छोड़ेगी | - चेतावनी - 471
  • कौवे की काँव-काँव भली क्योंकि ये पक्षी हैं | इनको क्या कहूँ जो दिन रात काँव-काँव कर समय बरबाद करते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 471
  • खिलाड़ी को खिलौना बना दिया | अब खेल कहाँ ? - चेतना - 471
  • कर तलाश नहीं विनाश | - भक्ति की चेतावनी - 471
  • सरकार का बल पाकर निर्बल भी सबल | तुम्हारे प्यार का बल पाऊँ तो सम्राट कहलाऊँ | - भक्ति - 471
  • सोया तो जगा , चिर जागृत को स्वप्न कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 481
  • यह बालिका प्रकृति की छाया है | ऐसा दिखलाती खेल कि बालक देखता ही रह जाता है और यह बालक पुरुष का बाल भी न जान पाया | मोहित हो इशारे पर नाचता है | वाह रे खेल ? - चेतावनी - 481
  • गाड़ी आती तो चलता | डिगने वाले के लिये कहाँ गाड़ी ? - चेतना - 481
  • क्यों कहूँ तुम अज्ञात , तुम अज्ञेय | अज्ञेय होते तो अज्ञेय कहता कौन ? है न ज्ञेय की भावना जो अज्ञेय कहलवा रहा है । - भक्ति - 481
  • इसे कौन समझाए यह अपनी समझ के सामने किसी की भी नहीं सुनता न धर्म की और न कर्म की | दयालु इस पर भी दया कर शायद समझ जाए अपने जीवन का मूल्य | - भाव - 481
  • शुष्क पंक्तियाँ दिल को हरा कैसे करे | शुष्कता , नीरस भाव वहाँ ग्रहण भी शुष्क | परिश्रम की प्रधानता ही रह जाती है | - ज्ञान की चेतावनी - 481
  • जब मैं चला तो गति ने साथ दिया और जब ठहरा तो स्थिति ने | दो महान शक्तियाँ मेरे साथ थीं , फिर भी दुनिया न जान पाई मैं कौन हूँ | - ज्ञान की चेतावनी - 491
  • जगत ने मुझ में अवगुण देखे किन्तु हे दया के समुद्र तू ने हृदय से लगाया अवगुण को गुण में बदला | हृदय विशाल है तेरा | - भाव - 491
  • देकर भी न माँग | माँग बुरी | मिले उसी में कर सबूरी | - चेतावनी - 491
  • तेरे नाम में 'मैं' रमा - यही भजन | - भक्ति - 491
  • कल मैं था , कलम होता , आज मैं नहीं अमर हुआ | - चेतना - 491
  • अवतार का तार खटखटाते हैं - बेतार का तार कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 491
  • भजन तो प्रेम पूर्वक , बल पूर्वक नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 501
  • इच्छा ने सृष्टि बनाई , अब इच्छा से संसार का बन तो पता चले इच्छा अच्छी या बुरी | - चेतावनी - 501
  • यह छोड़ , वह ग्रहण कर , सुनते-सुनते कान पक गए | सीधा रास्ता बता | सीधा हो जा रास्ता ही रास्ता है | - चेतना - 501
  • अंधेरा कहाँ ? दृष्टि पड़ी , प्रकाश ही प्रकाश | - भक्ति - 501
  • घूमकर देख , कौन प्रतीक्षा कर रहा है ? तुम कौन हो जो मेरे पीछे पड़े हो ? तुम्हारा सदगुरु | - भाव - 501
  • आघात प्रत्याघात ने ऐसी अवस्था बनाई नहीं तो यह नन्दन कानन था जहाँ आनन्द ही आनन्द था और है | - ज्ञान की चेतावनी - 501
  • अरे पूर्ण ! अपूर्ण की भावना ही क्यों ? यदि कृपा हो तो मुझे भी थोड़ा - सा स्थान दे देना | - ज्ञान की चेतावनी - 510
  • बन्द कर दाह की कथा तू खुदा का बन्दा है जो खुद राह बताता और खुद आता | - भाव - 510
  • वास , ना अभी वासना | - चेतना - 510
  • प्यार की नजरों ने दुनिया बदल दी | प्यार की ही दुनिया है | - भक्ति - 510
  • यह अंग अनंग के लिये नहीं | संग के लिये , सत्संग के लिये है | - चेतावनी - 510
  • मन को मनाना आसान भी कठिन भी | मन मनन में लगा , शान्त हुआ | कठिन तब , जब विकल हो भ्रमण करे | - भक्ति की चेतावनी - 510
  • भक्ति , मुक्ति नहीं चाहती | सामीप्य चाहती है , जो नाचता रहे , नचाता रहे | - भक्ति की चेतावनी - 511
  • दौलत में दो लत है | वासना बढ़ाना , सर पर सवार होना | - चेतावनी - 511
  • पीछा कर्त्ता , कब छिपा | - चेतना - 511
  • सोचता है करूँ या न करूँ | क्या ? प्यार | प्यार के बिना जीवन दुश्वार | - भक्ति - 511
  • गिन कर देखा , गुण कर देखा , कहाँ दिखलाई दिया | दिया जला , दिया जला किसी ने मन का विकार , अब सर्वत्र तू ही तू था और है | दिया जिला | - भाव - 511
  • पागल ! सब शून्य है - वायु है , पूर्ण तो तू है | - ज्ञान की चेतावनी - 511
  • शांति आनन्द की पूर्व अवस्था | भाव का प्रभाव अपूर्व था | - ज्ञान की चेतावनी - 512
  • आज मैं तुम्हे बतलाता हूँ , मैं किसका हूँ | उसी का जिसने मुझे दिल से चाहा और पाकर और कुछ न चाहा | - भाव - 512
  • अर्गल - कब बगल ? - चेतना - 512
  • प्राणों में प्रणय | रक्त दुग्ध बना | - भक्ति - 512
  • उत्तर में स्वर्ग यदि उत्तर ठीक हो | - चेतावनी - 512
  • शक्ति ( मानसिक ) से भक्ति मुक्ति ? युक्ति का प्रयोग सफल | - भक्ति की चेतावनी - 512
  • उषा , सूर्य का आगमन सूचित करती है - मधुर भाव प्रेम का | - भक्ति की चेतावनी - 513
  • रुष्ट न हो - कष्ट तो है ही जब तक सन्तुष्ट न हो | - चेतावनी - 513
  • पथ पथ्य चाहता है प्यार का | नहीं तो रोगी अनुरागी कब बनेगा ? - भक्ति - 513
  • महत्व पूर्ण क्या है ? पूर्णता में महत्व निहित है | - चेतना - 513
  • सिद्ध देखे , सन्त देखे किन्तु तुझसा न देखा | भाव से ही सृष्टि बदल देता है | तू कौन है ? तेरे प्राणों का साथी | - भाव - 513
  • शून्य कैसे गूँज उठा ? सोया हुआ जाग उठा | - ज्ञान की चेतावनी - 513
  • किसकी आवाज थी ? प्रेम की पुकार थी जिसने शून्य में हलचल मचा दी | - ज्ञान की चेतावनी - 514
  • प्राण पखेरू उड़ जाते हैं तो तू भी क्या अदृश्य हो जायेगा ? नहीं , किसी को पकड़ता नहीं , पकड़ता हूँ किसी को किसी की दया के बल पर तो छोड़ता नहीं | पकड़ने वाला , छोड़ बैठे , यह उसकी इच्छा | - भाव - 514
  • जगत के सम्मुख तुम्हें वरण किया है तुम्हे कैसे भूलूँ | - भक्ति - 514
  • मानसिक रुग्ण - गुण निर्गुण को क्या जाने ? - चेतना - 514
  • जीना चाहता है , जिलाना चाहता है । जीने पर कदम बढ़ा , शायद जिलाने वाला भी कहीं दिखलाई देगा | - चेतावनी - 514
  • झुका खोजता है | खड़ा , चढ़ा | पड़ा , लड़ा | - भक्ति की चेतावनी - 514
  • बोलता , बोलता चला | - भक्ति की चेतावनी - 515
  • ताना ( नाता ) बाना ( बाण , आदत ) से यह शरीर रूपी वस्त्र बना जिसे कबीर ( किसी वीर ) ने ही ज्यों की त्यों रखा | अन्य आये अन्न और वस्त्र की चिन्ता में मर मिटे | - चेतावनी - 515
  • नस-नस नाचती है | नाश का नशा है | - चेतना - 515
  • जिसे दूध में नहलाया और पिलाया वही भूल बैठा ? किन्तु मैं कैसे भूलूँ वह मेरा अंश है , उसी से मेरा वंश है | - भक्ति - 515
  • धोखा न देता हूँ और न खाता हूँ | दुनिया चाहे जो समझे | कृपा पात्र को धोखा कैसे ? खुद ही दे , खुद ही खाये | यहाँ धोखे का काम नहीं , नाम नहीं | - भाव - 515
  • शव शिव हुआ | लाश कैलाश बना जब शिव का भाव आया | - ज्ञान की चेतावनी - 515
  • प्रकाश का कण भी प्रकाश ही फैलाता है | पूर्ण प्रकाश तो पूर्णता का भाव उदय करता है | - ज्ञान की चेतावनी - 516
  • अब भी तेरा मेरा ? तेरा मेरा है तभी तो भजता हूँ तजता हूँ | - भक्ति - 516
  • पूजा पूज्य की या प्रतिमा की | पूज्य पुकारता है अनोखी वाणी से और प्रतिमा स्थूल सौन्दर्य का आकर्षण बनती है | - चेतना - 516
  • “ मेरे साथी “ नहीं- “ मेरा साथी “ | कौन है ? प्रश्न न कर , अनुभव कर प्राणों की व्याकुलता दूर होगी | - भाव - 516
  • वस्त्र मैला क्यों ? धो न सका विचार रूपी साबुन से | सा ( साफ ) बुन ( बुनता ) और रखता तो मैला शायद न होता | - चेतावनी - 516
  • परिछाई ( प्रतिमा प्रेम ) से व्याकुल , छाया तेरी ही थी | श्वान न बन , जल से न डर | - भक्ति की चेतावनी - 516
  • नृत्य की ताल पर बेहाल हो उठा ? अब सम्भाल अपने को , प्रभात हुआ | - चेतावनी - 517
  • तू इष्ट है , अनिष्ट कैसे देख सकता है अपने प्रिय का । - भाव - 517
  • बुलाता है - लजाता है | - चेतना - 517
  • तेरे रंग ने मेरा रंग ही भुला दिया | - भक्ति - 517
  • देख कर मूल्य अंकन करता है | मूल्य चुकाने में यदि मूल धन ही खो डाला तो वस्तु बड़ी महंगी पड़ी | - ज्ञान की चेतावनी - 517
  • चित्त चारों खाना चित्त हो जाये | अहंकार की हार हो तो सत् चित् , आनन्द में गोता लगाये | - भक्ति की चेतावनी - 517
  • अरे ओ उपदेशक ! चुप रह , क्यों बकवाद करता है ? शांति स्वयं को शांति दे शांत होने वाली है | यह भी तो उपदेश ही है | - ज्ञान की चेतावनी - 518
  • समुद्र ने कहा - मेरी गति ही तेरी गति | नदी ने कहा - गति नहीं , स्थिति ही मेरी स्थिति | - भक्ति - 518
  • अंधे का क्या धंधा ? - चेतना - 518
  • कोई मेरे दिल से पूछे कि मैं क्या चाहता हूँ ? सदा (आनन्द ध्वनि ) चाहता हूँ , दया चाहता हूँ | - भाव - 518
  • घर वर को देखने चला तो घर शरीर को ही देखता रहा और वर विषयों की प्रशंसा करने लगा | कन्या कुमारी ही रही , लौट रहा था पश्चाताप को साथ लेकर | - चेतावनी - 518
  • रंग ले रंगीले | प्राणों का प्रिय रंग ले | रग रग में राग रंग ले | फाग में सुहाग यही | - भक्ति की चेतावनी - 518
  • पिता का प्यार पी | माता का मोह पी | पी , ऐसा पी , प्यास न रहे , तलाश न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 519
  • आज अपमान करता है अनजान में | जब जानेगा तो आँसुओं से पवित्र हो जायेगा हृदय ( बाहर भीतर ) बाहर वक्षस्थल भीतर कोमल हृदय | - चेतावनी - 519
  • बलवान भाग्य या बलदेव ? भाग्य का विधाता बलदेव | भाग्य था , सौभाग्य था , तभी तो बलदेव के दर्शन हुए | - भाव - 519
  • छुआ और मुआ | - चेतना - 519
  • नजरों में रह , कहीं जमाने की नजर न लग जाय | - भक्ति - 519
  • पाँचों का झगडा पंचों को दे | खुद मुद हो खुदा में समा | न वाह वाह न आह आह | - ज्ञान की चेतावनी - 519
  • याद में साध और स्वाद | - भक्ति - 521
  • भाव का बहाव जानें , तो भाव , अभाव को जानें | - चेतना - 521
  • आज साज सजा | अब कुछ ऐसा राग बजा कि राग द्वेष को भूल उस देश में प्रवेश करे प्राणी जहाँ अनुराग का राग आठो प्रहर बजता रहता है | - भाव - 521
  • विष से अमृत कर दे | विष को अमृत कर ले , शिव बन | जीव भाव है , तब तक विष अमृत | - ज्ञान की चेतावनी - 521
  • अवसर दिये अनेक | किन्तु तू ने सर न झुकाया , उठाया अभिमान से | क्या बार-बार अवसर मिलता है ? - चेतावनी - 521
  • हाथी सा शरीर | चींटी सी चेष्टा | हाथी पर हाथ मार | कर विचार , हो पार | - भक्ति की चेतावनी - 521
  • इतना दुर्बल क्यों बना ? सभी तुझे घबडा़ देते है ? दुर्बल न था वासना ने वह बाँस मारा कि हड्डी पसली बराबर | - चेतावनी - 531
  • पद चूम - मस्त झूम | - भक्ति की चेतावनी - 531
  • एक दीवानी थी और एक दीवाना | दीवानी थी पृथ्वी , दीवाना था प्रभु पुत्र | - भाव - 531
  • तप्त भावों ने उष्ण कर डाला , क्षेत्र को | शांति वाष्प बनी | आनन्द का अभाव प्रतीत हुआ | बाहर खोजने लगा | - चेतना - 531
  • तू मुझे सजा , कि मैं तुझे सजाऊँ ? - भक्ति - 531
  • ध्वनि का धनी | अब कहाँ कमी ? अब तार बेतार से लगा | अब क्यों कहता है तार , उद्धार कर | - ज्ञान की चेतावनी - 531
  • जड़ में गति पैदा कर दी - चेतन था | चेत न हुआ तो क्या चेतना ? - चेतना - 541
  • निन्दक तो आनन्दक है - बड़ाई कहाँ , बुराई ही बड़ाई | - भक्ति - 541
  • प्रसंग से संग हुआ संत का , सत्य का | इसे सौभाग्य कहूँ की विधि विधान ? विधि एक , विधान अनेक | - भाव - 541
  • एक ही स्थिर है , शाश्वत है अन्य चलायमान , चञ्चल और क्षुब्ध | - ज्ञान की चेतावनी - 541
  • समझा मन को ये चंचलता तुझे शोभा नहीं देती | मन न माने तो समझ बेचारी क्या करे ? - चेतावनी - 541
  • विकार और संहार में ही कथा समाप्त और कही भी तो लीला | - भक्ति की चेतावनी - 541
  • सरलता है धोखा नहीं | अति सरल भ्रम की सृष्टि क्यों करें ? - भक्ति की चेतावनी - 551
  • मन को मलीदा न समझ | मल का विवेचन प्रथम सोपान | पान कर अमृत प्रवचन | - चेतावनी - 551
  • दुनिया तू मक्खी | मैं झक्खी | तू चिन्ता के द्वारा खून चूसने में लगी है और मै ज्ञान , ध्यान की बाते बघारने में लगा हूँ | विजय तेरी होती है , मेरी कौन सुनता है ? - भाव - 551
  • ग्रन्थ तो रचा , अब ग्रन्थी प्रेम की हो तो आनंद आये | - ज्ञान की चेतावनी - 551
  • इस माला का क्या करूँ ? स्वयं को वर | माला गले में ही रहे | - चेतना - 551
  • बिन्दु का विराट रूप सिन्धु | भक्त का विराट रूप भगवान | - भक्ति - 551
  • अपूर्ण सम्पूर्ण चाहता है आनन्द भाव | बाधक मन , साधक मन | पूर्ण क्यों अपूर्ण बन बैठा ? - ज्ञान की चेतावनी - 561
  • मुझे तो कुछ कहना था , तुम्हारी बातें कहीं तो शास्त्र बन गया | - भक्ति - 561
  • देव - दे कुछ ऐसी भावना की तेरा ही बन कर रहूँ | रहूँ तेरे चरणों में , दिल दिमाग में तेरी तस्वीर , तेरे जैसे विचार रहे | - भाव - 561
  • ग्रहण में ही सुख दुःख माना | सभी तो मान्यता है | - चेतना - 561
  • भीत क्यों ? भीतर तेरा मीत पुकार रहा है | सुन और गुन | - चेतावनी - 561
  • दिल से देख खिल उठेगा विश्व | प्रेम पराग मोह लेगा संसार को | - भक्ति की चेतावनी - 561
  • मन मलीन तो मन लीन कैसे हो ? - भक्ति की चेतावनी - 571
  • नब्ज बन्द | लब्ज बन्द | सब्ज बाग यहीं रह गया | - चेतावनी - 571
  • सत्य को क्यों उस्तरे की धार कहते हैं ? सत्य पर चलना कैसा समाना है ? धार काटती नहीं , पार करती है विचारों के सागर से | - ज्ञान की चेतावनी - 571
  • कलम ली नहीं , कलम दी उसी ने और कहा उदास क्यों ? गति ही स्थिति बनेगी | - चेतना - 571
  • सार्थक कहते - कहते थक चली वाणी - यह वाणी कब सार्थक होगी ? वाणी होगी सार्थक थक मत | हिम्मत न हार , हार कर थक जायेगी यह दुनिया और गूँजती रहेगी तेरी वाणी | - भाव - 571
  • सत्य की आवाज इन तक पहुँच न जाय - पहले ही ग्रंथ , प्रार्थना के रूप में चिल्लाते हैं | युधिष्ठिर का अर्ध्द सत्य भी द्रोणाचार्य के कानों में कब पड़ा , मारा ही न गया | - भक्ति - 571
  • मृत के लिए अमृत ? यही तो दया | - भक्ति - 581
  • हाँ कहूँ तो अर्द्धांग , ना कहूँ तो अंधकार | पूर्ण में हाँ ना कहाँ ? - चेतना - 581
  • मुझे देख मैं महा मंडलेश्वर साधु हूँ , मुझे देख मैं विश्व महा कवि , मैं प्रसिद्ध चित्रकार , मैं क्या कहूँ की मैं क्या हूँ - मैं तो तेरा ही हूँ | - भाव - 581
  • मन का दुःख जब तन पर आया तो पाप कहने लगा | कभी मन शांत हुआ ? यदि नहीं तो दुःख भी होगा , पाप भी होगा | - ज्ञान की चेतावनी - 581
  • याद भली भी , बुरी भी | एक याद दिल तड़फाये , एक याद प्रिय से मिलाये | - चेतावनी - 581
  • प्राणों में नव प्राण जागृत जब वाणी प्रवाहित हुई | - भक्ति की चेतावनी - 581
  • करूणावश सिद्धि का अभाव न ले | शांति बरसा कि दुःख दरिद्र का भाव न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 591
  • प्रति मुहूर्त की धड़कन बेचैन करती है दिल को | क्यों ? मिला नहीं , जिसके लिए धड़कन थी | - चेतावनी - 591
  • सती का पति कौन ? सत्य | और यह जिसे समाज पति कहता है ? शरीर का साथी है , प्राणों का नहीं | - भाव - 591
  • अपराध यही की आशा पूर्ण न हुई | पूर्ण की आशा भी पूर्ण | यदि मान बैठा अपूर्ण तो घट खाली ही रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 591
  • तुम्हारा अभिमान मुझसे सहा नहीं जाता और तुम्हारा वियोग भी | रूठो नहीं , हालत पर तरस खाओ | - भक्ति - 591
  • पूर्ण में अपूर्ण और पूर्ण दोनों | स्थिति हुई , पूर्णता ही पूर्णता है | - चेतना - 591
  • तेल की एक बूंद ने जल में रंग बिरंगी दुनिया दिखलाई | - चेतना - 601
  • देखने वाले की पूर्व अवस्था श्रोता की थी | कर्त्तव्य देखेगा कि सुनता ही रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 601
  • मन अन्दर तो मन्दिर | नहीं - नाच रहा मन बन्दर | - भक्ति - 601
  • दिया है दिल जिसकी कद्र नहीं | लिया है वह भाव जो भद्र नहीं | - चेतावनी - 601
  • अरे भाग्यवान भगवान बन कि दृष्टि-सृष्टि का आनंद आये | - भक्ति की चेतावनी - 601
  • किसी ने कहा - यह तन शैतान है | किसी ने कहा - यह मन परेशान करता है | सोच कौन बाधक है और कौन साधक ? बातों में न आ , खुद देख | जब तू मेरा तो पाप पुण्य भी मेरा | - भक्ति की चेतावनी - 610
  • प्यार वाले से प्यार क्यों नहीं लेता ? घृणा क्यों , अविश्वास क्यों ? समझ शान्ति नहीं पा सकेगा | - चेतावनी - 610
  • स्मृति से दर्श के लिये व्याकुल | फिर स्पर्श के लिये छटपटाने लगा | अब स्मरण कर किसमें रमण करना है , स्थूल में या सूक्ष्म में ? - चेतना - 610
  • एक भूल ने शिव से जीव बनाया , फिर भूला तो चेतन से जड़ ही हो जायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 610
  • अँधेर देर के गीत लोग गाते है | शाम सबेरे तेरे गीत गाते तो जान पाते कि कैसा अदभुत खेल है | - भक्ति - 610
  • रट कर याद किया संसार का व्यवहार | तेरा प्यार तो भुला देता है व्यवहार | - भक्ति - 611
  • बन ठन के चली माया | अरी पगली दुनिया तो यों ही भ्रम में पडी है | तेरा बन ठन तो और भी कहर बरसायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 611
  • भज कर क्या लूँगा ? तज कर क्या पाऊँगा ? दिल से पूछ | भजा तो आया मजा | तजा तो हुआ मन का राजा | - चेतना - 611
  • एक बात मान | किसी को मान | प्यार कर लोग उसे भक्ति कहेंगे | तेरा प्यार का संसार जगमगा उठेगा | - चेतावनी - 611
  • घर झाड़ा तो बाहर ही घर बना | छोटा घर बड़ा बना | मैं विराट तो तू क्षुद्र कैसे ? - भक्ति की चेतावनी - 611
  • प्रतीक्षा किसे सताती है जो योग में ही अंत समझता हो | अनन्त की प्रतीक्षा और योग अनन्त | - भक्ति की चेतावनी - 612
  • मिट्टी में सोना खोजा , सागर में मोती | कभी दिल भी खोजा ? देखता रहा , सुख दुःख का खेल | दिल में राहत मिलती यदि दिलदार को दिल में खोजता | - चेतावनी - 612
  • एक पंक्ति में कह | एक पंक्ति में रह | - चेतना - 612
  • एक और बढ़ा जा रहा है आकाश की ओर | दूसरी ओर गिरा जा रहा है वस्तुओं की ओर | ऐसा क्यों ? जीवन पहाड़ी मार्ग है | - ज्ञान की चेतावनी - 612
  • भाषा की परिभाषा | प्रेम की परिभाषा कहाँ ? कहने वाला ही पागल | - भक्ति - 612
  • दोष तुम्हारा या मेरा | अपराध तुम्हारा या मेरा | प्रेम में दोष अपराध को स्थान कहाँ ? - भक्ति - 613
  • मुँह रंगा भी बांग देता है | मुर्गा है , काल खा जायेगा | जगायेगा किसे जो स्वयं काल का कौर है | - ज्ञान की चेतावनी - 613
  • भाव आये | एक ने कहा - मैं तेरा काल हूँ | दूसरे ने कहा - मैं तेरा जाल हूँ | तीसरे ने कहा - मैं तेरा माल हूँ | चौथे ने कहा - मैं तेरी ढाल हूँ | काल , जाल , माल आफत | ढाल रखवाली करे | - चेतना - 613
  • मुक्त गगन , मुक्त वायु , फिर प्राणी क्यों बद्ध ? प्राणी प्रण भूल बैठा , बद्धता विचारों की | आज भी मुक्त यदि अनुभव करे | - चेतावनी - 613
  • मानव तन में वियोग माना तो मानव तन व्याकुल हुआ | संयोग तो सम योग से होता है | - भक्ति की चेतावनी - 613
  • कल्पना के घोड़े दौड़ाने वाला - चुप क्यों होता ? वह तो गाता गया , चिल्लाता गया | कोई सुने या न सुने | - भक्ति की चेतावनी - 614
  • नील गगन में पंछी उड़ते मनमाना सुख पाते | तू क्यों उदास ? मन ने न माना सुख , फिर दुःख ही साथी बना | . - चेतावनी - 614
  • साथी का संग चाहिये | मन का रंग चाहिये | पीने को भंग चाहिये | लड़ने को जंग चाहिये किन्तु रह गया दंग जब स्वार्थ का खेल देखा | - चेतना - 614
  • प्रकाश ही यदि अभिमान बन जाये तो शांति कहाँ ? - ज्ञान की चेतावनी - 614
  • कहते हैं तुमने राधा के चरणों में अपना व्यक्तित्व न्यौछावर कर दिया | इसे क्या कहें प्रेम या समर्पण ? - भक्ति - 614
  • आज भी जान न पाया - प्रेम बड़ा की प्रेमी | ऐसा भ्रम क्यों ? प्रेम की छाया जिस पर पड़ी , प्रेमी हो गया | - भक्ति - 615
  • दम घुटता है सीमा में | महान अपने को प्रकृति वश क्षुद्र समझ बैठे तो शांति कहाँ ? - ज्ञान की चेतावनी - 615
  • समझाने आया तो समझ में आया | समझ थी , फिर भी नासमझ बना घूमता था | - चेतना - 615
  • जल कर शीतल , श्वेत हुआ किन्तु कालिमा न मिटा सका , क्या सार्थकता रही जीवन की ? भूल करते हो , मैं जला अन्य के लिए | क्यों इसमें सार्थकता नहीं ? - चेतावनी - 615
  • प्रीती में प्रीतम बसता , फिर क्यों तरसता है ? - भक्ति की चेतावनी - 615
  • सूत्र नहीं ये पुष्प हैं , जो सूत्र में बिंधे हैं | भ्रमर मन अघाता नहीं इन से | - भक्ति की चेतावनी - 616
  • पर से प्रीती , स्वयं को भूला , वाह रे तेरे खेल ? - चेतावनी - 616
  • असंग का संग न किया | रंग बदरंग हो गया | - चेतना - 616
  • तुमको माने तो दुनिया के ताने सुने | न माने तो मन घबड़ाये | अब क्या हो ? - भक्ति - 616
  • रूप के पुजारी ! कल्पना छोड़ | स्वरुप को देख , विश्व की सम्पूर्णता तुझमें निवास कर रही है | - ज्ञान की चेतावनी - 616
  • कल्पना का आंशिक रूप , पत्थर मिट्टी को मिलाकर भवन मूर्ति को दिया , लोग प्रशंसा करने लगे | यदि तेरी कल्पना को कल्पना के सहारे भी समझ पाये तो उस आनन्द का क्या कहना ? - ज्ञान की चेतावनी - 617
  • लहरों के साथ जीवन नौका चली | ( इसे ) कूल किनारा मिलेगा या चक्कर काटती ही रहेगी | - भक्ति - 617
  • दुनिया बसाई आनन्द के लिये न कि पाप पुण्य के लिये | अबोध चिल्लाता है | बुद्ध - शुद्ध बुद्ध आनन्द वितरण करता | - चेतना - 617
  • यन्त्र तो आज मन्त्र तन्त्र बन रहा है | सन्त्रस्त संसार को शान्ति कहाँ ? यन्त्र शरीर , मन्त्र प्रिय का नाम | फिर निर्भय ही निर्भय है | - चेतावनी - 617
  • किसने कहा कि बन्धन कैसे छूटे ? दिल की पकड़ सब बन्धन ढीले ही नहीं कर देती , प्रेम बन्धन में बाँध भी देती है | - भक्ति की चेतावनी - 617
  • ज्ञान , भक्ति के गीत कैसे ? ‘ मिलन ‘ के प्रकृति गीत गाती | सुनो , आनन्द की वर्षा हो रही है | - भक्ति की चेतावनी - 618
  • प्राणी व्याकुल तू कि मैं ? मैं व्याकुल , क्योंकि तू समझ न पाया | तेरा हाल तू ही जानता है | - चेतावनी - 618
  • जिसे कुछ दिया वही गुब्बारा बन बैठा | यह नहीं जानता कि यह हवा का खेल है | हवा नहीं , गुब्बारा गुब्बारा नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 618
  • मेरी परिभाषा मैं जानता हूँ | त्याग तप वाले ऋषी कहलाये | बच्चे भक्त | अन्य अन्न की बातें करते हैं | - चेतना - 618
  • शांत और अशांत लहरें क्या जानें की अवलम्बित की क्या दशा होती है ? - भक्ति - 618
  • चार ने प्रशंसा की आठ ने निन्दा | तुमने कहा दोनों से बचो | मन व्याकुल था | - भक्ति - 619
  • स्वतंत्र कब ? जब ‘ स्व ‘ तन्त्र को जानें और मानें | - चेतना - 619
  • कैसा सृष्टि क्रम है पहले रोओ फिर सोओ | स्वस्थ होता तो सोता , रोता क्यों ? - ज्ञान की चेतावनी - 619
  • अग्नि तुझे बुलाये - पतंगे सँभल , जल न जाये तेरी काया माया | - चेतावनी - 619
  • भय न कर , बाधा मन की | मन मिला , दिल खिला | - भक्ति की चेतावनी - 619
  • धर्म एक मान्यता है | एक को माने , सब धर्मों का समन्वय हुआ | - भक्ति की चेतावनी - 621
  • गंगा का अवतरण हुआ | तुझे तो आकाश पाताल को पवित्र करना है वाणी से | - चेतावनी - 621
  • शरीर की जलन ने शीतलता को अपनाया | अभी मन की जलन का खेल देख , उष्णता शीतलता में बदले और शीतलता उष्णता में | यही मन के खेल हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 621
  • दर्द के बाद आया | दर्द के बाद चला | दर्द यहीं रहा , मैं भी चला - आनन्द आनन्द | - चेतना - 621
  • ध्वनि आनन्दमयी | प्रिय की ध्वनि आनन्द आनन्द | - भक्ति - 621
  • अभिनय करते-करते - एक दिन यथार्थ वैसा ही बन गया यह भी साधना ही थी | - भक्ति - 631
  • वह स्पर्श किस काम का जो पवित्र को भी अपवित्र बनाये | - चेतना - 631
  • सूर्य ने कहा - उपासना कर बुद्धि दूँगा | चन्द्र ने कहा - ऐसा शीतल मन दूँगा कि तेरा जीवन सफल | संध्या ने कहा - जब तक मिलन न हो , आवागमन से मुक्त न हो सकेगा | मन मिलन का इच्छुक था | - ज्ञान की चेतावनी - 631
  • अंधी श्रद्धा , अंधा विश्वास ? ओ आँख वाले देख , आज अंधे का चमत्कार देख | अंधे ने वे आँखे पाई , जो आँख वाला न पा सका | - चेतावनी - 631
  • दाता भिखारी ? प्यार ऐसा ही है | - भक्ति की चेतावनी - 631
  • गई इज्जत - मैं मरा | ज़रा सोच - गई इज्जत मैं मरा | - भक्ति की चेतावनी - 641
  • दिल द्वार पर भक्त है | दिलदार भक्त है , प्रेम पाहुना भक्त है , दिल के तख़्त पर भक्त है | अब भी वख्त है | दिल यदि सख्त है तो क्यों बहाता रक्त है ? - चेतावनी - 641
  • उठ शव , आज उत्सव है | चिर निद्रा शयन नहीं , समाधी नहीं , बरबादी है | - ज्ञान की चेतावनी - 641
  • वायु की बातें प्रलाप कहलाती हैं , आलाप नहीं | - भक्ति - 641
  • उपकारी की ऐसी अवस्था ? पीसा गया चक्की में , जलाया गया आग में , फिर भी अंग अंग में व्याप्त हो गया | ( अन्न ) रस की सृष्टि की | - चेतना - 641
  • ज्ञान के अभिमानी पति ने कहा - काम , क्रोध को शत्रु मानों या मित्र , एक ही बात है | संत के पुजारी ने कहा - फिर क्यों वेद पुराण साधु आदि इन्हें बुरा कहते हैं ? - चेतना - 651
  • भय दुनिया का या प्रिय का ? दुनिया रूठे , प्रिय रूठा तो जग झूठा | - भक्ति - 651
  • खेलने के लिये भेजा था तो अब दिल खोलकर खेलने दे | शमन , दमन के गीत तू पहले भी सुना सकता था | बुरा क्यों मानता है ? दिल दिमाग बचा कर खेल | - ज्ञान की चेतावनी - 651
  • अभिमान करके देखा ? मान भी न रहा , गति कहाँ , दुर्गति ही मिली | अब भी समझ | - चेतावनी - 651
  • युगों तक बातें सुनी , फल ? बातें बनाने लगा | स्थिति तो तब न होती जब केवल बातें न होतीं | - भक्ति की चेतावनी - 651
  • कौतुकी सृष्टि में कुछ सिद्धियाँ देखी , फूल कर कुप्पा हो गया | जानता नहीं ? यहाँ कौतुक ही कौतुक है | - भक्ति की चेतावनी - 661
  • दोष गुण क्यों देखता है ? कुछ दोष है तभी तो आया है | गुण , सगुण निर्गुण में | - चेतावनी - 661
  • आँख में है साख | - भक्ति - 661
  • मन मानें तो मान | नहीं तो कैसा मान , कैसा अभिमान ? - चेतना - 661
  • सर्वत्र ही स्व है यही सर्वस्व है | विराट सम्राट अन्यत्र तो अभाव का प्रभाव फैल रहा है | - ज्ञान की चेतावनी - 661
  • भव में भिक्षुक , भाग्यवान , भक्त , भगवान की कोई जाति नहीं | फिर यह शोरगुल कैसा ? - चेतना - 671
  • तेरी दुनिया के प्राणी बेचैन क्यों ? बेचैनी उनकी नहीं , मिथ्या व्यवहार कष्टप्रद है | - ज्ञान की चेतावनी - 671
  • कष्ट में पड़ा प्राणी , कष्ट की बातें करता है | तुम्हारी बातें कब करता है | - भक्ति - 671
  • सुगन्ध में सना फिर भी दुर्गन्ध का उपासक | दूर हो गन्ध से दुर्गन्ध से | - चेतावनी - 671
  • बातें ही प्रिय हैं | अवस्था होती तो बातें न होतीं , आनन्द ही आनन्द होता | - भक्ति की चेतावनी - 671
  • कमा नहीं पाता कामना को तो क्या कमाया ? - भक्ति की चेतावनी - 681
  • रथ पर थर - थर काँप रहा था | क्यों ? वाहक का पता नहीं | लक्ष्य का पता नहीं | कम्पन था बेचैनी का | - चेतावनी - 681
  • रटना क्यों ? रसना की रचना हुई रटने के लिये , रस लेने के लिये | - ज्ञान की चेतावनी - 681
  • भाव स्वछन्द | तम और मत में तेरी पहचान कृपा ही करवाती है | - भक्ति - 681
  • मद तो तब न होता जब तू मेरा होता ? अब कैसा मद , जहाँ पद पद पर भय ? - चेतना - 681
  • भैरव से भी भयानक भय रव् है | अभय नाम प्रभु का जो भव भय से मुक्त करता है | - ज्ञान की चेतावनी - 691
  • धरा ने धारा अनेक रूप तो आधार भूल बैठी | अधीर हो प्राणी चिल्ला उठा - अधर अधर इधर इधर | - चेतना - 691
  • विद्वानों ने विद्या खोजी , धनियों ने धन , प्रेमियों ने प्रेम और भक्तों ने भक्ति , किन्तु तुमने क्या खोजा ? केवल दुःख , खोज निरर्थक , जीवन निरर्थक | - चेतावनी - 691
  • जन्म मरण शरीर का | तू तो मेरा है | तेरा जन्म मरण कैसा ? कार्य वश आया | आज वियोग असह्य| - भक्ति - 691
  • देखता है , क्या ? अभी दिल नहीं भरा ? भूल बैठेगा रास्ता | फिर ? फिर ये धर्मवाले , बाँधेंगे कण्ठी में , माला में , जाप में | - भक्ति की चेतावनी - 691
  • मिल न आज मिलन घड़ी , शुभ घड़ी | - भक्ति की चेतावनी - 701
  • हो न हार , हो , न हार | तुम हो न , हार कैसी ? यही होन हार | - भक्ति - 701
  • समुद्र के तट पर आकर भी तटस्थ ? अवगाहन के आनन्द से वंचित ही रहा | - चेतावनी - 701
  • मृत्यु तू भी बड़ी भयभीत करने वाली मूर्ति है | मृत को अमृत पिलाने वाला प्रभु क्या करे जब मृत्यु ही मृत्यु की पुकार कानों में गूँज रही है | - ज्ञान की चेतावनी - 701
  • अंतर देखनेवाला भी अंतर देखेगा तो अंतर का अंत कहाँ ? अंत प्रेम में , जहाँ अन्तर नहीं , डूब कर ही तरना है | - चेतना - 701
  • बुद्धिवालो ने भगवान बनाया भी बिगाड़ा भी | दिल-वालों ने तो उसे दिल से चाहा | न बनाया न बिगाड़ा | - चेतना - 710
  • दंग रह गया माया का खेल देख कर , तंग आ गया दुनिया से , जंग विचारों का और संग में कौन ? ज्ञान नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 710
  • तम ही उत्तम तो पुरुषोत्तम की वार्ता ही व्यर्थ | अर्थ का भी अर्थ जानता तो सार्थक होता जीवन | - चेतावनी - 710
  • आज तैने दिल की कली खिलाई , सर्वत्र तेरा ही दर्शन है | - भक्ति - 710
  • प्रार्थना - प्रथम में ना कहूँ तो प्रार्थना प्रारम्भ | ऐसा क्यों ? प्रेम के लिये या अर्थ के लिये - यह प्रार्थना | - भक्ति की चेतावनी - 710
  • पाप की कथा कह कर समय बरबाद न कर | यदि कथा से ही प्रेम - तो प्रेम की कह | भले मानुष कह कर क्या पायेगा ? कर कि जीवन ही बदल जाये | - भक्ति की चेतावनी - 711
  • मन्दिर की ओर चला | चारों दिशा में तेरा धाम | मैं न नीचे न ऊपर | - भक्ति - 711
  • काया क्षीण की किसके लिए ? मन नीरस किया किसके लिए ? काम शांत होगा ? शांत ? शांत तब होगा जब शान्ताकारं मिले , इन्हें साधना समझ भटकते रहो | - चेतावनी - 711
  • प्राणी क्षुद्र वाणी अशुद्ध | प्राणी महान , वाणी प्रधान युगों तक | - ज्ञान की चेतावनी - 711
  • आज चोरों की कथा सुनी आश्रम में | छः चोर तो पहले से ही मानते आये | अब क्या इनकी भी वृद्धि हुई है ? - चेतना - 711
  • आश्रम में चोर बसते हैं , कोई दिल चोर , कोई धन चोर | चुराते हैं और माँ को दिखलाते हैं | माँ हँसती है | बच्चों के खेल ही तो हैं | - चेतना - 712
  • किसे उपदेश देगा ? देश को पहचान | उपदेश सफल | - ज्ञान की चेतावनी - 712
  • भ्रमण करने आया था रमण में लगा | चरण पकड़ कर कह न सका मैं तेरा हूँ | - चेतावनी - 712
  • प्रभो ! आनन्द का दान किसे मिला ? जो आनन्द के लिये आया और आनन्द में ही समाया | - भक्ति - 712
  • पौंडीचेरी में ऐसा कमल खिला कि प्रेम चेरी हो गई | पौंड की चेरी तो कैसी पौंडी चेरी ? - भक्ति की चेतावनी - 712
  • बेचैन को चैन कहाँ ? गले की चेन ने ही बाँध रखा है , फिर दिल की चेन तो खींचनेवाला ही जानें | - भक्ति की चेतावनी - 713
  • तुम मेरा न हार ग्रहण करते हो न भार | अब क्या करूँ ? प्रश्न उत्तर दोनों समान | - भक्ति - 713
  • ग्रास पर ग्रास फिर भी उदास ? तेरी क्षुधा कब शांत | - चेतावनी - 713
  • प्यार तुच्छ नहीं , व्यवहार तुच्छ नहीं , तुच्छ की भावना ही तुच्छ | - ज्ञान की चेतावनी - 713
  • माँ का बच्चा बचा | माँ का बच्चा सच्चा | सत्य की भी माँ होगी न ? नहीं तो आया कहाँ से ? - चेतना - 713
  • सोच समझ कर लिख | शोक गत हुआ , समझ हैरान कि क्या लिखूँ ? - चेतना - 714
  • रंग विरंगे देखे दृश्य तृप्ति कहाँ ? जहाँ तृप्ति थी वहीं समाप्ति थी | - ज्ञान की चेतावनी - 714
  • सोना , खोना और रोना में जीवन देखा | अब क्या होना ? अब रोना और सदा के लिए सोना ही अवशेष रहा | अब शेष अवशेष | - चेतावनी - 714
  • कहा कृष्ण से रथ चलाओ | कहा कृष्ण ने सारथी तो बनाया , स्वार्थी न बन जाओ | - भक्ति की चेतावनी - 714
  • रज दे तेरे चरणों की , धीरज बंधे | - भक्ति - 714
  • तंग आकर कहा - अब संग कब होगा ? सत्संग कब होगा ? - भक्ति - 715
  • प्रेमी देखे , प्रेमिकायें देखीं | प्रेम न पाया आनन में , हृद कानन में | कैसे प्रेमी ? प्रेम ही जिनका जीवन मरण है | वे ही प्रेम में रमण करते हैं | - भक्ति की चेतावनी - 715
  • चक्र गति है | आगे बढ़ना ही उसका काम | आराम से क्या काम ? फिर बेचैनी क्यों ? अनजान देश मेहमान दो दिन का | - चेतावनी - 715
  • दुनिया रंग रंगीली जब रोने से मुक्त हो | रंग तेरे हृदय में , रंग मंच तेरा हृदय , अभिनय तेरे मनोभाव , अब क्रन्दन कैसा ? - ज्ञान की चेतावनी - 715
  • खता हुई कि लिखता ही रहा | लेखा और जोखा तो लिखना सार्थक | - चेतना - 715
  • जहाँ गया , वहाँ थी प्रेम की , आनन्द की और भावों का समुद्र लहरा रहा था | - चेतना - 716
  • कुन्दन के लिये क्रन्दन , मदन सदन के लिये बन्धन फिर मुक्त कब ? मुक्ति कहाँ , उन्मुक्त था जब इन से उन से मुक्त होता | - ज्ञान की चेतावनी - 716
  • वायु का गोला नाभी में , हृदय में | गोला छूटा , पिण्ड छूटा | मौत कह कर भयभीत क्यों ? - चेतावनी - 716
  • प्रेम तुझ में , प्रेम मुझ में | जगा प्रेम समुद्र कि सीमा न रहे | पाँचों ( समुद्र ) एक में ही रम जायँ | - भक्ति की चेतावनी - 716
  • रात की रानी खिली रात में | दिल मणि ने खिलाया कमल | तुम्हारा भान , मान , ज्ञान अनादि काल से प्रस्फुटित कर रहा है भक्त हृदय को | - भक्ति - 716
  • कब और अब में झगड़ा था | अब कहता था कब की बात छोड़ अब , अभी अब प्रत्यक्ष हो कि शान्ति मिले | - भक्ति - 717
  • गम भीड़ पडी़ तो गंभीर हो गया | भाग्य को कोसना क्यों ? भाग्य जागे , प्रभु आगे , उद्यम आगे | दम रहते उद्यम कर , मिलेगा , जो मिलने वाला है , मिलाने वाला है | - चेतावनी - 717
  • युग कहता है यज्ञ कर , योग कर युगल भावना का | विज्ञ संकल्प विकल्प का समन्वय कर आनंद उपभोग करते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 717
  • पय सा मीठा पैसा | पैसा शांति न दे सका तो कैसा पैसा ? - चेतना - 717
  • सजा कर लाया है दिल ? फूल तो प्रकृति ने ही सजाये | हाथ की सफाई से कहीं दिल खिलता है ? - भक्ति की चेतावनी - 717
  • कहता था मैं तेरा हूँ | अब कहता है मैं मेरा हूँ | स्वार्थी ! तो तू स्वार्थ के लिये आया था , परमार्थ के लिये नहीं ? अब चलते चलाते क्यों पश्चाताप ? - भक्ति की चेतावनी - 718
  • रे मन रमण कर , नमन कर | न मन तो क्यों आया ? - चेतना - 718
  • आज की समस्या कल भी थी | सम विषम का फल मुख्य नहीं | मुख्य मोक्ष है , जो तेरे समीप भी , दूर भी | - ज्ञान की चेतावनी - 718
  • सृष्टि कर्ता ने सृष्टि बनाई , मैं भी कुछ बनाऊँ | बनाना बुरा नहीं , फँस जाना बुरा | बनायेगा क्या ? तू भी अपने दिल के हौसले पूरे अधूरे कर गुजर | - चेतावनी - 718
  • भेद का वेद रहा कहाँ जब अन्तःकरण में प्रियतम की छवि अंकित हुई | - भक्ति - 718
  • (घूँघट) जब तक घूँघट था घट था , घूम-घूम कर घट में प्रवेश करता था किन्तु घूँघट खुला घट में ही प्रियतम को पाया | - भक्ति - 719
  • ममता समता में बदल जाती तो अनेक जन्म ही न लेने पड़ते | आज बेचैन ? कल क्यों न सोचा ? - चेतावनी - 719
  • राहत है राह में , यदि राह सच्ची हो | कयामत है इन आँखों में जहाँ विषयों का विष हो | - ज्ञान की चेतावनी - 719
  • भ्रमर तितली की होड़ थी | भ्रमर गूँज रहा था | तितली शांत रसपान में लगी थी | - चेतना - 719
  • पत्थर पर न सो | पत्र पर न सो | यह तो मेरा प्रथम और अन्तिम शयन स्थान है | ( पत्थर - मूर्ती , पत्र - कमल पत्र - बाल मुकुन्द ) - भक्ति की चेतावनी - 719
  • अनोखी वही जो देखी नहीं , सुनी नहीं , कल्पना में आई नहीं | आज देख दिल को , कैसा अनोखा बैठा है , जिसे तू भूले वह तब भी तुझे याद करता , प्यार करता , क्योंकि उसका प्यार अनोखा , काम अनोखा | - भक्ति की चेतावनी - 721
  • भ्रमर ने तितली से कहा - रूपवती तो शांत नहीं होगी , चंचलता ही धन होता है उनका | तितली ने कहा - यह भी अनोखा खेल है कि काले कलूटे भी चिल्ला कर कहना चाहते हैं कि हम भी रसपान करते हैं | - चेतना - 721
  • जीर्ण शीर्ण भावनाएँ प्रकाश का विकास कब कर सकीं ? भस्मी भीमकाय बनीं , प्रकाश का दम घुट रहा है | - ज्ञान की चेतावनी - 721
  • जीवन की घड़ी जब चली तो धड़कन होने लगी | अरे भाई , धड़कन ही जीवन है | - चेतावनी - 721
  • प्यार के रंग में साड़ी रंगी - भूल गई कौन सा रंग था ? - भक्ति - 721
  • निष्कर्मा बन | कर्ता ने प्रेम पाठ पढ़ाया , कर्म , अकर्म , निष्कर्म का पाठ भुलाया | प्रेम ही निष्कर्म , धर्म का मर्म | - चेतावनी - 731
  • नाम ले कर काम बनाने वाले तो बहुत देखे | नाम पर मरने वाले का नाम कैसे भुलाया जाय | - भक्ति - 731
  • प्यार की भी परीक्षा हुई पृथ्वी काँप उठी | आज वह प्यार कहाँ अदृश्य हो गया ? - ज्ञान की चेतावनी - 731
  • राम मरा नहीं , आज भी अमर है भक्त के लिये | कृष्ण का आकर्षण गया कहाँ ? आज भी बातें नचा देती हैं मधुर कल्पना को | - चेतना - 731
  • खुशामद मनुष्य की नहीं | खुश हो तो आमद हो आनन्द की | - भक्ति की चेतावनी - 731
  • मेहरी कहता है ? मैं हरि | मैं मेहरी उनकी जो हरि को जानें , हरि को मानें | - भक्ति की चेतावनी - 741
  • यह कैसा खेल है ? अंगुली पकड़ते-पकड़ते करने लगा अंगुली | - चेतना - 741
  • मिथ्या किसे मानूँ , जगत को , भगत को या अपने को ? मिथ्या है मिथ्याचरण वालों के लिए | सत्यानुरागी , सत्य और अनुराग में ही रहता है | मिथ्या सत्य के झगडे में नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 741
  • पल सफल जहाँ अमरता है | पल विफल जहाँ मरता है (विषयों पर ) | - चेतावनी - 741
  • रुला कर हँसाने में क्या मिला ? हँस कर उड़ा देता | अब रो कर पिघला दिया जन्म जन्मान्तर का अभाव | - भक्ति - 741
  • लता लिपटी , वृक्ष घबड़ाया | तुम विराट वट हो , अनेक शाखा प्रशाखा फैले , लिपटे किन्तु तुम प्रसन्न शांत | उव्दिग्नता कैसे | - भक्ति - 751
  • क्यों उन्हें देखा जो भोग की अग्नि में जल रहे हैं ? योग की अग्नि प्रज्वलित होती तो भोग की ज्वाला शान्त होती | - चेतावनी - 751
  • प्रकृति के अनुसार आकृति तो ठीक किन्तु विकृति क्यों ? प्रकृति स्वयं परिवर्त्तनशील , इसीलिये परिवर्त्तन से निष्कृति नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 751
  • किसने कहा पुरुष नहीं बदलते - बदलते हैं | वे पुरुष नहीं , सत पुरुष नहीं , प्रकृति के दास हैं स्वामी नहीं | - चेतना - 751
  • कल की बात आज न रही ( नर ही तो है ) न रही न रही तो आज की बात कल रहेगी ? यह कैसे हो ? - भक्ति की चेतावनी - 751
  • पागल सा बैठा है , पाकर या खोकर ( दिल ) ? - भक्ति की चेतावनी - 761
  • खेल कर खो दी आयु | कैसा खेल था जिसमें खो दिया सब कुछ और पाया नहीं कुछ भी | - चेतना - 761
  • चर्म का भाव दूर राधा का दर्शन | कृष्ण रंग तेरी नसों में | लाल रक्त नहीं , मांगलिक आनन्द चिन्ह है . खोज , सभी रंग तेरी नसों में है , फिर भी बेचैन , यही आश्चर्य है | - ज्ञान की चेतावनी - 761
  • सिर सलामत रहता यदि सलाम करता परवरदिगार को | कुछ कलाम गरूर के थे , मगरूर के थे , धक्का खाया पछताया | - चेतावनी - 761
  • विद्या के बल पर जगत जीता | प्रेम के बल ? प्रेम केवल - केवल प्रेम | प्रेम के बल भगवान पाया | - भक्ति - 761
  • समझ न पाया प्राणी स्तुति में निन्दा करता है | जिसे साथी समझा वही साथ नहीं देता , बातें बनाता है | तुम तो प्राणों के साथी हो फिर साथ दो कि सब बातें साफ हो | - भक्ति - 771
  • जब जब हुई कमाई | कहता रहा कम आई , कम आई | देखी न भलाई , न बुराई | अब अन्तिम काल कमाई क्या काम आई ? - चेतावनी - 771
  • पुस्तक पुरुष तब कब ले जाती ? प्रकृति के ही गीत गाती , मन को रिझाती | पुरुषत्व प्रकृति विजय में है | - ज्ञान की चेतावनी - 771
  • झाङू तेरे पैर पखारूँ । तैने घर साफ किया , मूर्खों को मार्ग दिखलाया | ( झाङू पड़ी होश में आया ) - चेतना - 771
  • प्यार क्या दिखाने की वस्तु है ? वह तो छिपाये छिपता नहीं , कोई करके देखे | मजनू का नाम भी आज मजनू बना देता है जहाँ हाय लैला ही महावाक्य था | लय पर आ या संगीतमय जीवन के लिये लय ला | मजनू है ही दिल | - भक्ति की चेतावनी - 771
  • कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें समझ पाना समझ से परे है किन्तु हार कब मानी , बार बार आता है और जाता है , प्रश्न का उत्तर आज भी प्रश्न ही है | - भक्ति की चेतावनी - 781
  • किरणों ने कहा - हम तुम्हें हराती कहाँ हैं रंग डालती हैं प्यार में | - चेतना - 781
  • सूखी मिट्टी कीचड़ बनी | जल और मिट्टी दोनों ही पवित्र , किन्तु यह कैसा रस है जिसने पवित्र को भी कीचड़ बनाया | - ज्ञान की चेतावनी - 781
  • अविश्वास - अशान्ति का कारण , लोभ - मोह का जनक , काम - क्रोध का उत्तेजक , ईर्ष्या - मात्सर्य का आंशिक सहायक है | - चेतावनी - 781
  • पत्र अर्पित किया तो भाव पूर्ण पत्र समझा | पुष्प देखते ही खिल उठा | फल के लिये , जीवन सफल हो , भक्त का , निश्चय किया और जल पाकर कहा आज मेरा हृदय शीतल हुआ | कैसा दयालु है भक्तों का भगवान | - भक्ति - 781
  • सब ने रौंदा कोई कीमत नहीं | किसी ने चरण -स्पर्श किया , मोतियों से महँगी धूलि | - भक्ति - 791
  • प्यार भी झूठा है तो अन्धकार ही अन्धकार है | प्यार झूठा नहीं , करने वाला झूठा तो प्यार भी बदनाम | - चेतावनी - 791
  • ब्रह्म निराकार नहीं , माया आवेष्टित | आवेष्टन महान , जग सका न पहचान | कहने लगा , ब्रह्म निराकार | - ज्ञान की चेतावनी - 791
  • कैसा तांत्रिक ? जिसका हृद्तंत्र बज न उठा | कमल खिलाये कल्पना के | स्वतंत्र को न जाना तो भेदन कैसा ? भेद न जान पाया तो भेदन क्या काम आया ? - चेतना - 791
  • अब मिलना दूर , जब मीलों दूर | मिलो - न हिलो न डुलो | - भक्ति की चेतावनी - 791
  • सज जस ( यश ) पायेगा | नहीं तो जस करनी तस भरनी | तस सत बना जब बाहरी , भीतरी बना | - भक्ति की चेतावनी - 801
  • झंकार ? कब बेकार | अनंत लहर - अनंत मेहर | - चेतना - 801
  • श्वास प्रश्वास जीवन कहलाया | जड़ चेतन की सृष्टि की किन्तु इसका उद्‌गम इसका लय , आज भी समस्या बना हुआ है | - ज्ञान की चेतावनी - 801
  • दूध भी था , दही भी , मथनी न थी | मक्खन का लाभ न उठा सका | भगवान था , भक्त भी , मनन न था , मन न था | - चेतावनी - 801
  • ज्योति जो थी वह है वह तेरी थी | दर्शक बना तेरे भक्त की ओर देख रहा था | - भक्ति - 801
  • कभी सोचता भी हूँ तो समझ नहीं पाता कि सोचता हूँ , कि भूलता हूँ ? क्या कहूँ ? - भक्ति - 810
  • कृत यदि कृतघ्न हो जाए तो कर्ता का क्या दोष ? भोगे कृतघ्न , भागेगा कहाँ ? कर्ता सर्वव्यापी है | - चेतावनी - 810
  • सुन्दरता खोजता है ? श्याम सुन्दर क्यों नहीं खोजता ? श्याम में भी सुन्दरता बुराई में भी भलाई निहित है | - ज्ञान की चेतावनी - 810
  • धड़कन तेरी थी , मैं समझता था कि मेरी है | भूल मेरी , अनन्त गति का ही खेल था | - चेतना - 810
  • भक्तों पर बेरहम | कमला - चंचल बना देंगे ये भक्त फिर पाद सेवा भी करेगी तो भी उपेक्षित ही रहेगी भक्तों से | - भक्ति की चेतावनी - 810
  • संगीत कहाँ , संगति कहाँ , सदगति कहाँ ? बेचैनी थी दिल की फिर प्रसन्नता का प्रश्न कहाँ ? - चेतना - 811
  • दुनिया , दुःख और दूसरा | स्मरण , सुख और स्वरूप | ‘ द ‘ और ‘ स ‘ का झगड़ा है , जहाँ दसों इन्द्रियाँ व्याकुल हो जाती है मन की विमुखता या कृपा के कारण | - भक्ति की चेतावनी - 811
  • अभिनेता पात्र है , सृष्टिकर्त्ता संचालक , अभिनय - पात्र के कार्य संचालक , सफल अभिनेता को संचालक बना देता है | यही जीवन अभिनय है | - ज्ञान की चेतावनी - 811
  • सर्वव्यापी की सन्तान पापी ? सन्तान ने कहा - खा , पी | अरे कहाँ है सर्वव्यापी ? अब क्यों न होगा , सन्तापी , विलापी , पापी | - चेतावनी - 811
  • सब ने स्थान बनाया , आश्रम बनाया और तेरा ? मेरा स्थान तुझमें है और आश्रय तेरा | अब तू ही बता कहाँ खोजूँ दुनियाबी स्थान आश्रम ? - भक्ति - 811
  • कोई सुने या न सुने तू तो सुनता है न | फिर बहरों तक आवाज कब पहुँची ? - भक्ति - 812
  • मोह ने कर्तव्यच्युत किया , वासना ने दास बनाया इन्द्रियों का | अब त्राण कहाँ , अब प्राण कहाँ ? - चेतावनी - 812
  • नृत्य संगीत में गति है , ताल है सम है | सम सफल , श्रम सफल | दर्शक ताली पीटे या सिर , नृत्य होता ही रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 812
  • पत्थर में भगवान आज भी खोज रहा है | पागल ! मानव तन धारी भगवान को पहिचान शांति मिलेगी | - भक्ति की चेतावनी - 812
  • कहा किसी ने - धन खोजता है , शांति खोजता है तो क्या भगवन खोजता है ? मन ने कहा मन खोजता हूँ - वह मिल जाये तो झंझट ही न रहे | - चेतना - 812
  • ये पेड़ , ये पौधे , ये मनुष्य , ये प्राणी क्या एक ही ने बनाये ? यदि हाँ तो वह अवश्य ही अनोखा है | - चेतना - 813
  • भूल किससे नहीं हुई ? हनुमान से हुई , तुलसी से हुई , रत्नाकर से हुई | होने में आश्चर्य नहीं - न पहिचानने में भूल और आश्चर्य है | - भक्ति की चेतावनी - 813
  • प्यार को खोजने चला - वासना मिली | भगवान को खोजने चला , साधना मिली | मैं को खोजने चला - कुछ न मिला | - ज्ञान की चेतावनी - 813
  • हद हो गई , हद में कहाँ तक रहूँ ? आज हद देह को दहन करती है | हद बेहद में बदल कि बद न रहे , हद न रहे | - भक्ति - 813
  • धूलि को भी समझ न पाया तो क्या पाया ? उड़ाता रहा धूलि , व्यर्थ हुआ जन्म | छूता , तो पाता दिव्य भाव | - चेतावनी - 813
  • फल्गु का प्रवाह बालू के नीचे-नीचे | नीचे ऊँचे प्रवाह तथा वाह वाह में न खिला | खिला मेरा दिल कि मैं तेरा हो जाऊँ | जाऊँ क्या तुझ ही में समाऊँ | सम हो जाऊँ तो न जाऊँ और न आऊँ | - भक्ति - 814
  • शत्रु हैं विचार , मित्र हैं विचार फिर माया और ब्रह्म क्या है ? न शत्रु न मित्र | केवल विचार | - ज्ञान की चेतावनी - 814
  • नयनाभिराम कौन ? अभी राम , अभी काम | अभी धाम अभी दाम | कभी तो सोचो - सब यहीं धरा रह जायेगा , जब कूच करेगा बनजारा | - चेतावनी - 814
  • उपकार न मान | यह तो मान कि कोई अज्ञात उपकारी भी है | - भक्ति की चेतावनी - 814
  • मर शब्द भय प्रद और रम प्रिय क्यों ? प्रिय में रमण तो प्रिय होगा ही और मर तो घृणा , वियोग का सूचक है , प्रिय कैसे हो ? - चेतना - 814
  • दृष्टि दे कि तेरी सूक्ष्म सृष्टि देख सकूँ | स्थूल तो भूल का कारण बना | - चेतना - 815
  • किस किस को मानूँ और झुकूँ | प्रश्न क्यों ? दिल से पूछ , शांत हो , उत्तर भी मिलेगा | - भक्ति की चेतावनी - 815
  • भ्रमण में रमण करने लगा तो भ्रम उत्पन्न हुआ कि भ्रमण है या रमण है ? भ्रम होना स्वाभाविक है किन्तु रमण में तो रम जाता है , गम भूल जाता है | - ज्ञान की चेतावनी - 815
  • बन जा , नहीं तो वन जा | कण-कण में मन को न रमा | नहीं तो कही का न रहेगा | - चेतावनी - 815
  • ये शब्द कभी तो बह निकलते हैं और कभी बहना दूर कहना भी नहीं चाहते राम कथा | - भक्ति - 815
  • प्यास तो क्षणिक शांत भी हो जाती है किन्तु आस तो लगी रहती है दर्शन की , स्पर्शन की | - भक्ति - 816
  • क्षमा मानव तन धारण के लिये | पशुवत् जन्म कर्म फल सहते सहते बीता | - चेतावनी - 816
  • प्राकृतिक सौन्दर्य उपभोग के लिये है या योग के लिये ? भोग रोग का कारण बना और योग ने योग्य बनाया , सुन्दरता का रहस्य समझाया | - ज्ञान की चेतावनी - 816
  • ऐसे वेश में आ , आवेश में आ कि लोग वेश आवेश भूल जायें | - भक्ति की चेतावनी - 816
  • पत्तियों ने कहा - पति को देख , पत रहे | - चेतना - 816
  • दे सुन कर भक्त घबड़ाया | ले सुन प्रसन्न हुआ | यह भक्त है ? कैसे कहूँ ? - चेतना - 817
  • शरीर थका तो बदल डाल यदि कुछ कर गुजरने की इच्छा है | मन की थकान बुरी | विचारों की संजीवनी सुँघा | लक्ष्य लक्ष्मण मूर्छित है | - भक्ति की चेतावनी - 817
  • बाहरी सुन्दरता ही जब इतनी आकर्षक है फिर भीतरी ? भीतरी तो वह तरी है जो भवसागर ही नहीं रहने देती | - ज्ञान की चेतावनी - 817
  • प्राण में रण है जीवन का , व्रण है पूर्व संचित कर्मो का , भ्रम है जीव , शिव का , क्रम है जन्म-मरण का | - चेतावनी - 817
  • बिना गरजे बरसता है बड़ा दानी है | यहाँ तो गरजते हैं शब्दों में और बरसते कहाँ ? तरसते हैं प्रेम वर्षण के लिये | - भक्ति - 817
  • माता ने मात दी ममता में | पिता ने प्यार दिया कर्त्तव्य में | मैं ममत्व और कर्त्तव्य के बोझ से दबा जा रहा हूँ , परम पिता रक्षा कर | - भक्ति - 818
  • अंग्रेजी का एक शब्द है Enjoy ! In यदि Joy अर्थात् आनन्द मनाता या करता तो ठीक था Out में ही जिन्दगी से Out हो गया | - चेतावनी - 818
  • सम है , पूर्ण है तो सम्पूर्ण है | आदि नहीं अंत नहीं जो अनंत है | आदि है तो व्याधि है , इत्यादि है | अनंत का अंत कैसा ? - ज्ञान की चेतावनी - 818
  • भाव हनुमान है कि राम ? भाव सीता है जो वियोग में छटपटा रही है प्रिय के | - भक्ति की चेतावनी - 818
  • पाप के भय से पुण्य किया , लोग प्रशंसा कर रहे थे | मर्म कुछ और था , धर्म तो नाम मात्र | - चेतना - 818
  • लेखनी कलम बनी | कलम किया अज्ञान , ज्ञान के झंझटों को | - चेतना - 819
  • किसने तुमको योग सिखाया ? किसने तुमको भोग सिखाया ? वासना ने | योग के बिना भोग कैसा ? वासना कष्टदायिनी | योग का भोग निराला है , अलग है | - भक्ति की चेतावनी - 819
  • अक्षर नहीं जानता , वर्ण नहीं जानता , माला नहीं जानता फिर भी कहता है मैं विद्वान हूँ | तू विद्यमान है क्या यह भी जानता है ? शायद नहीं | फिर अभिमान क्यों ? - ज्ञान की चेतावनी - 819
  • नादान , तुझे होश कब होगा ? देख तेरे साथी चल बसे | बस कर बहुत हुआ | चल , बसना है उस दुनिया में जहाँ प्राणों का मीत है | न रीति है और न नीति है | - चेतावनी - 819
  • जो मोह में था , मद में था , वह भी मुहम्मद बन गया | पैगम्बर बन गया , यह तेरी कृपा है | - भक्ति - 819
  • ईसा ? ऐसा क्या था कि तेरा पुत्र कहलाया , जग का पाप भार उठाया , यह भी तेरी कृपा ही है | - भक्ति - 821
  • अरे शैतान अब तो मान | जा रही है जान , छोड़ अपना अभिमान | कहाँ रही शान , जब दुनिया ने दुरदुराया | - चेतावनी - 821
  • बनी और बिगड़ी | बनी उसकी जिसने बनाने वाले को जाना और माना और बिगड़ी ? बिगड़ी उसकी जिसने न जानते हुए खुद को खुदा माना | - ज्ञान की चेतावनी - 821
  • कुछ भाव कहलाता है और कुछ अभाव | बुरा भला कैसा ? - चेतना - 821
  • दिला ( धन , मान , भाव ) | पहले दिल तो मिला , हृदय तो खिला | फिर खुद ही चिल्ला उठेगा , मिला अब मिला | - भक्ति की चेतावनी - 821
  • याद करने वाला ही नामी को नचाता है | प्रेम का अनोखा प्रभाव था | - भक्ति की चेतावनी - 831
  • कैसा साकार कैसा निराकार ? प्रेम नीरस नहीं | निराकार में रस घोला कि साकार हो गया | - चेतना - 831
  • प्रवेश किया धन में , विद्या में , बल में , प्रतिष्ठा मिली | प्रतिष्ठा विष्ठा नहीं , यदि सन्मार्ग में बाधक न हो | - ज्ञान की चेतावनी - 831
  • खो जी ( जीवन , दिल ) तो खोजी बने | यहाँ तो हाँ जी , हाँ जी , जी हाँ , जी हाँ कहते ही दिन बीत रहे है | - चेतावनी - 831
  • बुद्धि प्रिय है , मान्य है तो मन नहीं | प्राणों की व्याकुलता कब शान्त हुई ? जब प्राण प्रिय मिला | प्राण प्रिय कौन था-जिसे मन ने चाहा , दिल खो कर | - भक्ति - 831
  • जीवन की अंतिम घड़ियों में किसे पुकारूँ ? जिसे जीवन अर्पण किया | - भक्ति - 841
  • यह चक्की है ( दुनिया ) यह झक्की है ( मनुष्य ) | बात पक्की है , यह झक्की एक दिन चक्की में पिस कर चला जाएगा किन्तु जाने के पहले - रोयेगा और सोयेगा दुःख की नींद में | - चेतावनी - 841
  • तीर्थ में तीर न देखा जहाँ से लौट कर आना नहीं होता और वह तीर भी न देखा जो संशय विनाशक है | न देखा रथ जिस पर दसों इन्द्रियाँ मनोयोग पूर्वक शांत हो जाती है तो क्या तीर्थाटन किया ? ( दर्शन किया ? ) - ज्ञान की चेतावनी - 841
  • संस्कार ने संसार में एक संसार बसाया | लोग पाप पुण्य खोजने लगे | - चेतना - 841
  • तुलसी को नहीं जानता ? सूर को नहीं पहचानता ? कबीर की साखी तो सुनी होगी ? मीरा की झाँकी तो देखी होगी ? तू कहाँ ? मैं ? मैं कह दूँ सब में हूँ किसी में नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 841
  • जग में भी आया मग भी बहुत देखे , ज्योति कहाँ ? जल प्रेम में ज्योति जगमगा उठे | - भक्ति की चेतावनी - 851
  • बुद्धि पर लोग हँसते हैं | बुद्धि दी ही नहीं , हँसने दे | दिया है दिल , जहाँ हँसने रोने का ही खेल है | - चेतना - 851
  • साधना घटी आडम्बर आया , प्रेम घटा पाखंड आया | कामना घटी साधना आई , रीति नीति घटी प्रीती आई | - ज्ञान की चेतावनी - 851
  • चलते-चलते ऋषि मुनि कह गये - हम तो चले किन्तु यदि तुम हमारे अनुभव से लाभ उठाओगे तो तुम्हें भी जीवित रहने का ढंग आ जायगा और हमें भी सन्तोष होगा | - चेतावनी - 851
  • जिसका पिता जगन्नाथ हो , गुरु बलदेव हो वह तो आनन्दी ही होगा | अनाथो का नाथ जगन्नाथ , बलहीन का देव - बलदेव | आनन्द उसका जन्म सिद्ध अधिकार | - भक्ति - 851
  • झुक कर सलाम करूँ तो बन्दा कहलाऊँ | समझ कर ध्यान करूँ तो अंधा कहलाऊँ | फिर तू ही बता क्या करूँ क्या न करूँ | - भक्ति - 861
  • तू घबड़ानेवाला जीव है , घर आनेवाला जीव नहीं | भोगेगा नहीं तो क्या करेगा ? घर का सुख भूल बैठा | - चेतावनी - 861
  • अवशेष नहीं , अब शेष कर , प्रवेश अन्य शरीर में प्राण छटपटाते ही रहेंगे | - ज्ञान की चेतावनी - 861
  • नदियाँ शान्त हुई ? जब समुद्र ने आश्रय दिया | चित्त वृत्तियाँ लीन हुई | कब ? जब प्रिय मिला , प्रेम मिला | - भक्ति की चेतावनी - 861
  • ध्वनि का खेल अनोखा | कुछ परिचित कुछ अपरिचित | फिर भी प्रभाव छोड़ गई | - चेतना - 861
  • धन का ध्यान प्रति मुहूर्त - प्रीती धन के ध्यान का अभ्यास , हे भगवान | - चेतना - 871
  • हो गया नहीं , होकर रहा | उसने कब वेद पढ़ा , कब शास्त्र अवलोकन किया ? दिल देखा और दिल दिया | - भक्ति की चेतावनी - 871
  • यह धूलि कहाँ थी ? पृथ्वी पर | यह मैल कहाँ था ? पृथ्वी पर | यह पृथ्वी कहाँ थी ? जल में , मन में | जल न रहा , मल दिखलाई दिया | जलन मन मैल का कारण बनी | - ज्ञान की चेतावनी - 871
  • संग कर सत्य का कि संकोच हटे | निरर्थक भाव घटे ( कम होना ) | - चेतावनी - 871
  • सौगात - गात रहते मुझे सौ गातों से भी सौगात प्रिय है क्योंकि यह प्रिय की सौगात है | - भक्ति - 871
  • है हिम्मत तो छुड़ा मेरा हाथ | नहीं , तो चलूँ तेरे साथ | स्वर्ग , नरक मैं क्या जानूँ ? - भक्ति - 881
  • किसे विज्ञ कहा जाये जब अज्ञों की तरह विकार युक्त कार्य किये जा रहे हैं | अविकारी कौन ? जो अविकारी को जाने और मानें | - ज्ञान की चेतावनी - 881
  • उत्कर्ष देख कर कर्ष क्यों करता है ? तू ही बता , कारण कौन ? तू या मैं ? - भक्ति की चेतावनी - 881
  • कहा प्रेम कर तो वासना का पुजारी बन बैठा | प्रेम बदनाम , क्यों ? वासना को प्रेम जो कहते हैं | - चेतना - 881
  • जगत को जीता , जीवित ही जीता | कैसे ? जग में जीत हार न देखी | - चेतना - 891
  • ताजा जाता रहा , बासी , वासी बन गया | अब आकर्षण कहाँ ? सत्य न ताजा न बासी , सदा सर्वत्र वासी , अब क्यों उदासी ? - ज्ञान की चेतावनी - 891
  • प्रवचन में भी प्रवंचन ? फिर कल्याण कैसे हो श्रोता का वक्ता का | - भक्ति की चेतावनी - 891
  • तुम हारे जब तुम हमारे हुए | हम हारे जब हम तुम्हारे हुए | हम तुम हारे | हम तुम्हारे | - भक्ति - 891
  • थकता नहीं लिखने से ? कमल थकता नहीं खिलने से | - भक्ति - 901
  • कसा ही नहीं , उसके पूर्व ही कसाई बन बैठा ( खंडन मंडन करने लगा ) वाणी के वाण चलाने लगा | परिणाम ? कुछ भी नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 901
  • समीप कौन ? जो अपना हो | दूर कौन ? जो केवल सपना हो | - चेतना - 901
  • क्रोध से पकड़ा , घृणा से छोड़ा | प्रेम से पकड़ा , मर मिटा उसके नाम पर | छोड़ना कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 901
  • कामिनी कंचन ने काया को माया का रूप दिखलाया | संत ने समझा और समझाया , इनका उपयोग और दुरूपयोग | - चेतना - 910
  • स्वर्ण जैसी शांति , रजत जैसा धर्माचरण आज पुस्तकों के पन्नों में आकर अपना मर्म विलिन कर रहा है | साधु साधन की बातें कहते हैं शांति तो संत ही देते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 910
  • प्रेम में राम भी पागल था , सीता भी | फिर इस पागलपन को क्यों प्रोत्साहन देते हैं , जागतिक , धार्मिक लोग ? - भक्ति की चेतावनी - 910
  • कहाँ तक रहूँ इस कब्र में ? जहाँ तेरा दीदार नहीं - करने को प्यार नहीं , यार नहीं , आँखें चार नहीं | - भक्ति - 910
  • आज जब याद किया तो तेरी याद आई कहने लगी - तुझे क्या चाहिये ? मैंने कहा - दया चाहिये | हँस कर कहने लगी - अरे पागल दया न होती तो तू याद कैसे करता ? - भक्ति - 911
  • वस्त्र यदि कुरूप को सुन्दर नहीं बना सकते तो ये वाह्य कर्म काण्ड हृदय को सुन्दर बना सकेंगे ? - भक्ति की चेतावनी - 911
  • भजन ही वजन है जिसके लिए , वह पाप पुण्य की कथा क्यों करता है ? दिल का वजन कम हुआ जब भजन प्रारंभ हुआ | - ज्ञान की चेतावनी - 911
  • दुरूपयोग ने दूर किया योग से | अब गति दुर्गति बनी | संत ने दूर को समीप अति समीप कर अपने को अपने में मिलाया , वाह रे संत | - चेतना - 911
  • घर सूना | बाहर ही विचार विचरण करते हैं | कौन घर बताये और प्रवेश की विधि बताये | केवल संत | - चेतना - 912
  • कुछ बोल , बोल कर क्या करूँ , राग द्वेष की गाँठे तो खुलीं नहीं | श्रोता की गाँठें अधिक दृढ होंगी | - ज्ञान की चेतावनी - 912
  • भजन - जन जन में ‘ भ ‘ भगवान को देख यही तेरा भजन | - भक्ति की चेतावनी - 912
  • नारायण बैकुंठ में गया | लक्ष्मी पैर दबाने के लिये गई | रह गया मैं | पुकारूँ नारायण को सुनता नहीं | पुकारूँ लक्ष्मी को तो आती नहीं | प्रिय के समीप बैठी खो बैठी अपने को | - भक्ति - 912
  • गालियाँ दी प्यार के पहले , अपराध | प्यार में गालियाँ फूल बन गईं | वाह रे प्यार का रहस्य | - भक्ति - 913
  • कलियाँ कब खिलीं ? जब हृदय खिला , प्रभु मिला | - भक्ति की चेतावनी - 913
  • सरकार बदनाम क्यों ? कर्मचारियों के कारण | धर्म बदनाम क्यों ? इन धर्माचार्यों के कारण | मैं बदनाम क्यों ? अभिमान के कारण | - ज्ञान की चेतावनी - 913
  • प्रिय ने प्यारे को प्यार से मिलाया दुनिया मौत कहने लगी | - चेतना - 913
  • जलाने वाले दफनाने वाले , शरीर को लटकाने वाले लटकते रह गए कर्म बन्धन में | प्यार का बन्धन मुक्त करता है - कर्म से , धर्म से | फिर बन्धन कहाँ ? - चेतना - 914
  • जो खुद को नहीं पहिचानता वह खुदा को क्या पहचानेगा ? खुद में खुदा तो उसके लिए और भी मुश्किल | खुदी बुरी - खुदा कब हुआ तुझ से जुदा | - ज्ञान की चेतावनी - 914
  • क्यों चिन्ता ? जब चित्त सत् चित्त आनन्द ही में मिलने वाला है | - भक्ति की चेतावनी - 914
  • आज समझौता हो जाय | समझो तो मैं भी नारायण का अंग | गालियाँ नारायण को पड़ीं | प्यार में बोलता नहीं | मैं क्यों खुश होने लगी ? प्यार तो नारायण से न है | - भक्ति - 914
  • कामना मुझे काम ना तू दूसरा घर देख | मेरे लिये एक ही घर है | जहाँ रहता मेरा वर है , ईश्वर है | क्यों नहीं कहते " ई तो वर है " | - भक्ति - 915
  • जायेगा कहाँ ? सर्वव्यापी का क्या निमन्त्रण मिला है ? - भक्ति की चेतावनी - 915
  • यह अग्नि कब बुझी जब बुझी तो प्राणान्त हुआ ( जठराग्नि ) | यह अग्नि कब बुझी ? यह बुझी नहीं , इसने तो कर्मो का अन्त किया | ( ज्ञानाग्नि ) और यह अग्नि ? ( कामाग्नि ) यह तो बढ़ती ही गई शरीरांत हुआ इसका अन्त न हुआ | - ज्ञान की चेतावनी - 915
  • शरीर शांत हुआ और मन ? मन ने एक न माना , फिर चक्कर काटता आ पहुँचा | - चेतना - 915
  • कौन किसका साथी ? जब सभी ताक में बैठे शिकार के | - चेतना - 916
  • क्षणिक वृष्टि सन्तुष्टि कर न सकी भूमि की | क्षणिक उपदेश सन्देह मिटा न सका भ्रमित मनुष्य का | फिर शांति तो कवि कल्पना है | हाँ , वाणी यदि बीजमंत्रदायक हो तो प्राणी पुलकित हो सन्देह क्यों , देह भी धारण न करे | - ज्ञान की चेतावनी - 916
  • जिसने प्रभु को भी न जाना , न पहिचाना वह दास , उदास रहे तो आश्चर्य क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 916
  • खींचातानी में कहीं भाव आते हैं ? जायँ देखें कहाँ जाते हैं | - भक्ति - 916
  • अंत में संत और शांति ने अपनाया तो कहीं पार पाया | किसका ? भगवान का , माया का | संत ही भगवान है - शांति ही माया पाश से मुक्त करती है | - भक्ति - 917
  • हल का बना हलका हुआ , गम्भीरता क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 917
  • जहाँ विभेद है , वहाँ वेद कहाँ ? वेद समन्वयकारी , विभेद भ्रान्तिकारी | नीति वेद का अंश मात्र , अनीति विभेद भेद की सहायिका | समन्वय तो लक्ष्यच्यूत होना नहीं , पूर्णता का सहायक है | - ज्ञान की चेतावनी - 917
  • व्याकुल दुनिया देखी | चिन्ता का राज्य देखा | शांति ? शांति की बातें ही बातें सुनी | - चेतना - 917
  • क्यों ग़मगीन ? नहीं तल्लीन तो ग़मगीन | गम दूर , सुगम शांति | - चेतना - 918
  • मानव की पीड़ा को मानव न समझे तो दानव क्यों समझने लगा ? रहे देवता वे तो स्तुति के पात्र हैं सृष्टि चली आ रही है | दृष्टि अब भी अति अल्प को है | - ज्ञान की चेतावनी - 918
  • सन्तोष चाहता है ? सन्त का दर्शन कर , दोष न खोज , सन्तोष तेरा धन है | - भक्ति की चेतावनी - 918
  • सीमा तू मां सी है फिर बाँधती क्यों है ? मुक्त कर बन्धन , असीम हो , विचरण करने दे | - भक्ति - 918
  • ध्यान आकृष्ट करने के लिये तेरी मूर्तियाँ सजी , प्रसाद लगे , बड़े-बड़े मन्दिर बने किन्तु तू ध्यान आया अति अल्प के जो तुझे देखते थे मूर्त्तियों को नहीं | - भक्ति - 919
  • धन और धन्य के लिए सब बेचैन | धन प्राणधन | धन्य जीवन | - भक्ति की चेतावनी - 919
  • मनुष्य में जब सर्व प्रथम समझ आई तो “ मैं “ “ मैं “ करने लगा | जब समझ पूर्ण से विकसित हुई तो “ सोऽहं “ कहने लगा किन्तु कहना कुछ और अर्थ रखता है और अनुभव कुछ और | - ज्ञान की चेतावनी - 919
  • लिखता रहा छपा कहाँ ? छपा दिलों पर जो प्रभु के प्यारे हैं | छिपा प्रभु दिल पर छपा , लिखना सफल | - चेतना - 919
  • कौन सुनता है सभी तो अपमान करते हैं | अच्छा है , यदि सुनेंगे तो अपमान मान में शायद बदल जाये | - चेतना - 921
  • आवश्यकता है ऐसे व्यक्तियों की जो निर्भ्रान्त हो किन्तु भ्रान्ति ही क्रान्ति की प्रेरक है | वह क्रांति शांति के लिए भी हो सकती है उद्भ्रान्ति के लिए भी किन्तु निर्भ्रान्त तो शांत होना है | - ज्ञान की चेतावनी - 921
  • यह उद्यान उसका दान है | आया है तो कुछ लाभ उठा | पश्चाताप क्यों ? प्रेम अपना | यह अपना है | पराया नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 921
  • कैसा प्रण था जिसे भूल बैठा , अब याद करता है ? प्रण भूलूँ तो प्राण छटपटाये | प्रण प्राण से बढ़ कर है | - भक्ति - 921
  • पायल की आवाज ने घायल किया मन को | नटनागर तेरा नृत्य ही देखता रहूँ तो साधना सफल | - भक्ति - 931
  • क्षीण ज्योति , विराट विश्व | कहीं-कहीं प्रकाश | कहीं-कहीं विकास | अन्यत्र घोर सत्यानाश | ये जुगनूं स्वयं जलते है ये किसे प्रकाश देंगे ? - ज्ञान की चेतावनी - 931
  • वृत्ति ने प्रवृत्ति चाही | निवृत्ति शायद इसलिये कठिन है | - चेतना - 931
  • चंचल न बना मन को | नहीं तो सृष्टि का अन्त है मन का कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 931
  • दो अक्षर का मेल हो जाये और ‘ न ‘ न रहे तो ज्ञानी | अज्ञात का स्पर्श हो और युक्त हो जाये तो मुक्त और भक्त | - ज्ञान की चेतावनी - 941
  • अपना , यदि नहीं , तो अपमान न कर | मन व्याकुल है | तेरा मेरा कहना बेकार | - भक्ति की चेतावनी - 941
  • हवा में उड़ता है ? उड़ता नहीं , उडाता हूँ सुख को , दुःख को | जब हवा ही हवा है और हुआ ही हुआ है फिर सुख क्या और दुःख क्यों ? - चेतना - 941
  • बेहाल था जब कर्म की गति देखी | निहाल हो गया जब कर्म में भी तुमको पाया | - भक्ति - 941
  • रक्षा बन्धन | रक्षा कर बन्धन में मैं बँधा - तू बँधा | यदि तेरी मेरी रक्षा चाहता है तो बन्धन को वन्दन में बदल | - भक्ति - 951
  • भक्ति , ज्ञान , प्रेम की त्रिधारा में स्नान किया कि त्रिलोक से मुक्त हुआ | - भक्ति की चेतावनी - 951
  • कंगाल भी गाल बजाता है , दुःख की कथा कहता है | यदि वह जान पाता प्राणधन को तो कंगाली सदा के लिये विदा होती | - चेतना - 951
  • व्योम में सोम भी है रवि भी | रवि पहले सोम पश्चात् , अभिमान पहले शांति की किरण पश्चात् | - ज्ञान की चेतावनी - 951
  • मौत एक बार किन्तु यह दुनिया सौत तो बार-बार डराती , पाप पुण्य का भय दिखाती | प्रिय का मिलन कैसे हो ? मौत सौत की एक न सुन | दिल मेरा तो मौत कहाँ , सौत की चाल कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 961
  • मैं रूठा हूँ या वह , यह तू क्या जाने ? मनाने वाला आये तो फिर तेरी सुनेगा ही कौन ? जब तक नहीं आता तू भी कह सुन ले , धर्म के नाम पर , शास्त्र के नाम पर | - चेतना - 961
  • स्वर्णयुग का स्वर्णकार कौन था ? स्व वर्ण को जानने वाला | आज स्वर्ण के उपासक अनेक युग के नहीं | क्यों ? वर्ण व्यवस्था तो है , जानकारी नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 961
  • नाच उठी मीरा | कृष्ण का दिल नाचने लगा | प्रकाश में वह मीरा के साथ नाच न सका | यही हूक थी दिल में | - भक्ति - 961
  • भक्त कहता है - तू ने क्या किया कि मैं विमुख हो गया संसार से | भगवान कहता है कि तू ने क्या किया कि मुझे सम्मुख होना पड़ा संसार के | - भक्ति - 971
  • गीता का भगवान , गीता में भगवान , गीता ही भगवान | यदि रीति जाने , प्रीति जाने , नीति जाने | - ज्ञान की चेतावनी - 971
  • आखिर मिट्टी पर सोना है , इन बातों से क्या होना है ? सोना है , मिट्टी में सोना है , मिट्टी पर सोना है किन्तु इन बातों से क्या होना है ? किसी का होना है नहीं तो यह सोना भी मिट्टी ही होना है | - भक्ति की चेतावनी - 971
  • कुछ मिले साथी जो अभाव के गीत गाते | दोष उनका नहीं | हवा ही ऐसी है जो भाव को न जान अभाव की पुजारिन बनी है | - चेतना - 971
  • भजन में सज्जन मस्त | दुर्जन तो दूर ही से चिल्ला उठे , भजन नहीं ढोंग है | - चेतना - 981
  • अटक थी नहीं , भटक थी | भटक दूर अटक दूर | - भक्ति की चेतावनी - 981
  • माया को दोषी ठहरा कर कर्त्तव्य विमुख न हो सकेगा मनुष्य | कामिनी , कांचन तुझे रिझा न सकेंगे | तू अमर का पुत्र है | रूप को पहचान | ऐसी बातों पर ध्यान न दे , जो तुझे पापी , भोगी कह तेरा आत्म-सम्मान विलुप्त करना चाहती हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 981
  • दुनिया क्या जानेगी ? मैं तो तुझे जानता हूँ | - भक्ति - 981
  • अनोखी भेंट थी अज्ञात की | कहा - अज्ञेय न कहो , मैं सदा साथ हूँ प्रिय के अप्रिय के | - भक्ति - 991
  • तरसता क्यों है ? क्या करे ? न तर है और न रस है | केवल तरसता है उनके लिये , जो न तर हैं और न जिनमें रस है | - ज्ञान की चेतावनी - 991
  • दृश्य अदृश्य जगत उसके लिये जिसने प्रिय को जाना | सर्वव्यापी के लिए दृश्य अदृश्य कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 991
  • जब जब संतों की वाणी गृहस्थ ने सुनी , मनमाना अर्थ लगाया | मन माने तो मान , नहीं तो कैसी जान कैसी पहिचान | - चेतना - 991
  • प्यार न दिखलाने का और न कथा कहानी का | फिर लोग क्यों कथा कहते और उसका दम भरते ? - चेतना - 1000
  • हृदय हीन का भी हृदय कोमल था आज कठोर क्यों हो गया | वियोग के क्रोध में | करुणा की वर्षा कर शायद कठोर कोमल हो जाये | - भक्ति - 1000
  • गुण अवगुण कौन समझ पाया ? यह केवल धारणा है , जिसने मनुष्य को भ्रम में डाल रखा है | - ज्ञान की चेतावनी - 1000
  • क्या अभिशाप के लिए विश्व की रचना हुई ? मन बुद्धि के प्रवंचन में न आ , प्रवचन सुन | संसार सोने का , सार है पीने का | - भक्ति की चेतावनी - 1000
  • संसार को कोस कर साधु कहलाये तो व्यर्थ ही संसार में आये | खेल के लिए बना , मेल के लिए बना , उसे जेल क्यों समझा ? - भक्ति की चेतावनी - 1001
  • अनित्य और नित्य में कौन विजयी ? नित्य | क्यों ? नीयत ठीक | - ज्ञान की चेतावनी - 1001
  • तुम सा दिल मिलता तो क्या तुम मेरे न होते ? दिल तो दिया किन्तु कृपा न की | यह एक यंत्र है जो बजते-बजते टूट जायेगा | अच्छी बात है | - भक्ति - 1001
  • कवि प्रकृति का उपासक | दार्शनिक देखता ही रहा , कहता ही रहा किन्तु वाह रे अध्यात्मवादी , एक की न सुनी , खोकर ही अपने को पाया | - चेतना - 1001
  • अहंकारी भी तेरे ही हैं न खुद शांत हो पाते न तुझे चैन लेने देते | - चेतना - 1002
  • यह बात ठीक है कि मनुष्य कर्त्ता को भूल बैठा , तभी तो अनेक कष्टों ने उसे घेर रखा है , अन्यथा अमर के पुत्र का यह हाल न होता | - ज्ञान की चेतावनी - 1002
  • तेरा भाव ? खरीद दार जाने | मैं कहने योग्य भी नहीं | - भक्ति - 1002
  • बात मान , लात न मार उसको जिसके अभाव में जीवन ही भार | भार की मार खाई | अब प्यार का वार देख | कहीं मोह को प्यार न समझ बैठना | - भक्ति की चेतावनी - 1002
  • आज का साज बाज बड़ा सुन्दर | कल विकल होगा यदि आज यों ही बीतेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1003
  • बुलबुले बुलबुल बने , पानी , प्राणी और समुद्र गरजता रहा | मछलियाँ , मगरमच्छ साथ ही में थे | प्राणों की आकुलता मछलियाँ , क्रोध आदि दुष्ट भाव मगरमच्छ , किन्तु मनुष्य ने समुद्र के आनन्द गरजन को न अपना , संसार को ही भवसागर कह भयभीत होने लगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1003
  • किसे माला पहनायेगा ? प्रिय को | क्या मिलेगा ? प्यार | अब भूख क्यों ? नहीं तो जीवन कैसा ? - भक्ति - 1003
  • विचार प्रिय हो संसार को तेरे | किन्तु उन्हें गैरों से कब फुरसत | परिणाम , वे गम से कब खाली ? न मिलन हुआ न शांत , वाह रे खेल | - चेतना - 1003
  • बनाने वाले ने असार कुछ भी न बनाया | व्यवहार न जाने तो संसार भी असार | - चेतना - 1004
  • तेरे सभी काम दुनिया से अनोखे तभी तो लोग तेरी निन्दा स्तुति करते हैं | अनोखा तो वह है जो मेरे हृदय में बसा है | - भक्ति - 1004
  • मनुष्य के हृदय का परिवर्तन किस ओर जा रहा है ? इसे विनाश कहा जाये या विकास | काश , इसे मनुष्य समझ पाता | - ज्ञान की चेतावनी - 1004
  • जीवन था प्यार के लिए | जीव शोक में डूबा , हर्ष में नाचा | जीवन वृथा , प्यार न कर सका भगवान को , भक्त को | - भक्ति की चेतावनी - 1004
  • पत्थर में भगवान की कल्पना ने ही शायद दिल पत्थर का बनाया | प्राणी छटपटाये , पत्थर घी से नहलाया जाये ? कैसा सुन्दर खेल है | - भक्ति की चेतावनी - 1005
  • तेरी भक्ती तेरा योग दिखलाई ही नहीं देता , कैसा तेरा योग है ? दिखलाने के लिए भक्ती योग नहीं यह तो प्राणों का आधार है | - भक्ति - 1005
  • केवल शरीर ही नहीं , मन भी थक चला इस चला चली से | क्या यों ही आवागमन होता रहेगा ? नहीं , शांति के उपासक शांताकारम् को पाते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 1005
  • पागल न था जिसने सार के लिये संसार बसाया | फिर साधु संत ऐसा क्यों कहते हैं | परिपाटी है | असार ही है तो भी तुझे तो सार ही ग्रहण करना है | - चेतना - 1005
  • क्यों निन्दा करूँ तेरी , सृष्टि की ? गलती मेरी | गालियाँ दूँ संसार को यह कहाँ का न्याय है ? - चेतना - 1006
  • पत्थर पुजवा कर क्या मिला पुजारी ? मन मंदिर तो यो ही नष्ट भ्रष्ट सा रहा | - भक्ति की चेतावनी - 1006
  • असहाय क्यों समझता है ? ऐसी हाय हाय ही क्या है ? - ज्ञान की चेतावनी - 1006
  • चिल्ला कर गा सब सुनें | सुनने वाला सुने चिल्लाना किसे दिखाना है ? - भक्ति - 1006
  • किसने तुझे पकड़ा ? माया ने मोह ने | झूठ , दिल ने , मन ने | मनमानी करता आया , दीवानी में दिल बहलाता आया | कहता है संसार धोखे की टट्टी है | - भक्ति की चेतावनी - 1007
  • क्या और क्यों दो संयुक्त अक्षर | इनकी समस्या हल जब युक्त हुआ , संयुक्त हुआ महान से | - ज्ञान की चेतावनी - 1007
  • कुछ दिखला | क्या बाजीगर हूँ ? खिलौना हूँ किसी के हाथ का जिसे देखने वाले की संख्या अति अल्प | - भक्ति - 1007
  • हृदय की गति बेतार के तार के साथ | तार टूटा , वीणा बेकार | चाहे हो दुःख अपार | - चेतना - 1007
  • सुख सब का था किन्तु अधिकों ने सुख को ही दुःख माना | दुःख के गीत गाते ही चल बसे | - चेतना - 1008
  • सगुण , निर्गुण तो गुण हैं | गुणातीत भावना है जिसके लक्षण कहे सुने नहीं जाते | - भक्ति - 1008
  • नभ कहता है भन भन करना छोड़ , नहीं तो यह मन तुझे कभी भी शांत न होने देगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1008
  • बालक रुदन करते हैं , मां विलाप करती है | किसके लिए ? तेरे लिये ? नहीं , मेरा मुझ में समाये , जहाँ आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति की चेतावनी - 1008
  • भूख नींद कहाँ गई ? अर्थ की अर्थी पर | तेरी भूख नींद कहाँ गई ? प्रिय की याद में | - भक्ति - 1009
  • शिव की नगरी में भूत ? नहीं पूत है , वह पूत है जो शिव का है | - भक्ति की चेतावनी - 1009
  • वे दो थे और दो हैं | पहले चार वेद के नाम से प्रसिद्ध हुए फिर छः शास्त्र और अट्ठारह पुराण तक पहुँचे फिर तो अनेक ग्रन्थ रच गए , उनकी निन्दा स्तुति में | वे दो सोचें किन्तु यहाँ तो निन्दा स्तुति का चक्र आज भी चल रहा है | - चेतना - 1009
  • ऐसा और कैसा , कहाँ से आ पड़ा यह पैसा ? पैसा प्रधान तो ऐसा भी कैसा भी | ऐसा पैसा कमाओ कि दुनिया कहे कि यह कैसा आदमी है कि पैसे की परवाह नहीं करता | - ज्ञान की चेतावनी - 1009
  • सिर धुनना नहीं , रूई धुनना | विचारों की ऐसी रूई धुनो कि राई भी पहाड़ भी धुन धुना कर एक हो जायें | - ज्ञान की चेतावनी - 1010
  • ये झंझट , यह विवाद क्यों ? मुझे भूल बैठे - और क्या कहूँ ? - चेतना - 1010
  • वास्तव में वास तब है और निरर्थक है | - भक्ति - 1010
  • कहते हैं भगवान के भक्त को कष्ट नहीं होता ? फिर भक्त क्यों छटपटाते हैं अर्थाभाव में ? अर्थ की दुनिया प्यार की दुनिया से भिन्न | समझ का फेर है | अँधेर भी नहीं , देर भी नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1010
  • तुझसे न माँगूँ तो किसके द्वार जाऊँ ? घर में पैठ , माँग पूरी , यदि दिल में सबूरी | - भक्ति की चेतावनी - 1011
  • थक गया मैं , तुम न थके नित नये प्रेमी मिले | - भक्ति - 1011
  • मच्छर और मक्खी का स्वभाव पाया मनुष्य ने | कहीं काटता है , कहीं चाटता है | - चेतना - 1011
  • कर्मकाण्डी ने बालकाण्ड से लंकाकाण्ड तक पढ़ा , किन्तु कर्म की पिपासा को शांत न कर सका | क्यों ? लंका जली , शंका न जली | - ज्ञान की चेतावनी - 1011
  • बने या न बने , कर्मकांडी को तो कुछ करना ही है | कर कर देख शांति कहाँ ? कर्म का मर्म क्यों नहीं समझता ? - ज्ञान की चेतावनी - 1012
  • भ्रांत वृत्तियाँ जब रूप ग्रहण करने की इच्छुक हुईं तो मिट्टी और आकाश को एक बनाने वाला मनुष्य उपस्थित हुआ | आज भी मनुष्य भ्रांत और क्लान्त क्यों ? उसने कर्ता को न जाना और न माना , पाप पुण्य की खोज ही उसका धर्म कर्म था | - चेतना - 1012
  • तुम्हें अमर किया इन प्रेमियों ने | - भक्ति - 1012
  • प्यार को किसने देखा | जिसने अपनाया प्यार को , प्रभु को | - भक्ति की चेतावनी - 1012
  • लिखकर थका , पढ़कर पराजित | जीत तेरे हाथ में तो हाय क्यों मेरे दिल में ? - भक्ति की चेतावनी - 1013
  • दुनिया मरी तुम न मरे , प्रेम पुजारी जो ठहरे | - भक्ति - 1013
  • अरे प्राणी ! यह वाणी ही एक दिन दुनिया के व्रण से तुझे मुक्त करेगी | - ज्ञान की चेतावनी - 1013
  • तुम पापी , तुम क्रोधी , कामी , लोभी कहने वाले आये | ऐसे भी आये जिन्होंने मौखिक सच्चिदानन्द कहा मनुष्य को किन्तु उस अवस्था का भान तो हृदय दान करने वाला ही करा सका जिसे लोग संत कहने लगे | - चेतना - 1013
  • विचारों का कुहासा फैला | एक हँसा एक घबड़ाया | - चेतना - 1014
  • कितना समझाया मन को कि तू ज़रा शांत हो जा , प्रशांत महासागर की तरह कि विचारों की लहर तुझे उद्वेलित न कर सके , किन्तु न सुनना चाहता है और न मानना | अब क्या हो ? - ज्ञान की चेतावनी - 1014
  • गीत और गीता ज्ञानियों के लिए , ध्यानियों के लिये . तुम्हारा तुम्हें पा कर धन्य | - भक्ति - 1014
  • हाय नहीं - है यह यही जो तेरे तन मन का दुःख दूर करेगा | पहचानता क्यों नहीं ? - भक्ति की चेतावनी - 1014
  • पत्थर में निवास ? कहाँ गया तेरा विश्वास ? मैं पत्थर नहीं , कोमल हूँ , कमल हूँ , न तू खिलता है और न मुझे हृदय में बसाता है , केवल बातों में ही दिल बहलाता है तो मैं पत्थर ही भला | - भक्ति की चेतावनी - 1015
  • मरने वाला कौन ? मनुष्य | अमर कौन ? तू , तेरा प्रेमी | - भक्ति - 1015
  • स्वयं ही यम बना हुआ है विचारों के कारण तो दुनिया दुःख पूर्ण होगी ही | स्व में यम , नियम , निदिध्यासन तक नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1015
  • जो क्षण भर के लिये शांत नहीं हो पाता था वह सदा के लिये शांत हो गया | शांत हुआ है शरीर , मन कहाँ शांत हुआ ? - चेतना - 1015
  • व्यापारी का कैसा दर्शन ? दो रोटी दो वस्त्र ही जब अदृश्य भगवान है | तब तो यह दर्शन भी महान है | - चेतना - 1016
  • कष्ट तन का , कष्ट मन का | तन के कष्ट से मन का कष्ट अधिक | मन न माने ( कष्ट ) तो तन चिल्ला कर रह जायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1016
  • तेरी चर्चा बड़ी महँगी . तू बड़ा तेरी चर्चा महँगी | - भक्ति - 1016
  • भय यदि दुनिया का है तो किनारे बैठ | अभय हो दिल दुनिया को देख | - भक्ति की चेतावनी - 1016
  • फूल खिलता है उसे भय कैसा ? भक्त भगवान पर रीझता है उसे भय कैसा ? यदि है , तो अलभ्य कभी सुगम न होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1017
  • बल दे कि अभिमान रहित हो कर कुछ गुण गान कर सकूँ तेरा | तू मौन क्यों है ? स्वीकृति समझूँ ? - भक्ति - 1017
  • मन को भ्रमर कहना भ्रम में पड़ना है | भ्रमर तो रस पान करता है और यह मन निरर्थक चक्कर लगाता , दुःख सुख का कारण बनता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1017
  • एक धागे ने कागज को पृथ्वी से आकाश में उड़ा रखा है | इतना ही जीवन है | जीव को मुक्त , बद्ध करने के लिये ये ग्रन्थ क्यों ? ग्रंथी क्यों ? ( धागा -वायु , कागज - शरीर ) - चेतना - 1017
  • प्रकृति प्रति मुहूर्त रहस्य उदघाटन को प्रस्तुत किन्तु यहाँ किसे परवाह है | यह तो पर से वाह सुनने के लिये व्याकुल ही रहता है | - चेतना - 1018
  • मनुष्य दुविधा में फँस गया | प्रकृति को प्रधान माने या पुरुष को ? प्रथम प्रकृति या पुरुष ? प्रथम पुरुष | तो पुरुष को मानता क्यों नहीं ? प्रकृति मनुष्य को लिपटाये रखती है | - ज्ञान की चेतावनी - 1018
  • जग भी था मग भी था ज्योति भी थी | तुम भी थे , मैं भी था , फिर ज्योति क्यों न जली ? तू मेरे लिये कब जला ? - भक्ति - 1018
  • झूठी प्रशंसा ने यदि दिल की कोमल पंखुड़ियों को कुचल डाला तो हूक से बेचैन रहेगा | यहाँ कुचलने वाले ही देखे गये , प्रसन्न अति अल्प . - भक्ति की चेतावनी - 1018
  • जिसने पाया अपने को खो कर पाया | मिट्टी के बर्तन को भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है , फिर तू क्यों भयभीत ? - भक्ति की चेतावनी - 1019
  • यार तेरा हथियार ? प्यार | - भक्ति - 1019
  • प्रसन्न रहना भी नहीं आता तो इस भव नाट्यशाला में क्यों आया ? तू दर्शक है या अभिनेता ? दर्शक है तो प्रसन्न हो जायेगा और अभिनेता है तो कर्त्तव्य बन्धन में बँध जायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1019
  • मेरा इरादा बुरादा होता जा रहा है | दोष किसे दूँ ? - चेतना - 1019
  • धन और धर्म का युद्ध चला आ रहा है , कभी धर्म पराजित और कभी धन | - चेतना - 1020
  • कान मिले हैं तान सुनने के लिए आनन्द लहर की | शान , गुमान के लिए न तरस | रस ग्रहण किया तो जीवन सफल अन्यथा आवागमन तो लगा हुआ ही है | - ज्ञान की चेतावनी - 1020
  • आभास दे या वास दे , प्रवास में कहाँ सुख ? - भक्ति - 1020
  • श्रद्धा बड़ी या प्रेम ? वासना की बात निरर्थक | - भक्ति की चेतावनी - 1020
  • दूध में जल मिला कीमत बढी , किन्तु जल को बड़ी महँगी कीमत चुकानी पडी | स्वयं जला दूध को जलने न दिया | - भक्ति की चेतावनी - 1021
  • स्मृति मृत्तिका में मिल गई जब मिट्टी में खेलने लगा . मृत्तिका मूर्ति में बदल गई जब तुम्हारी स्मृति पुनः जागृत हुई | - भक्ति - 1021
  • काम में भी लगन , राम में भी लगन | लगन नहीं तो मगन कैसे होगा प्राणी | प्राण बेचैनी का नाम नहीं , बेचैनी तो कार्य की पूर्ति के लिये है यदि लगन का अभाव है | - ज्ञान की चेतावनी - 1021
  • धर्म भी एक धन है जिसकी कीमत करने वाले ही करते हैं | प्रेम भी एक योग है जिसे जानने वाले ही जानते हैं | न कर्म प्रेम न धर्म प्रेम | प्रेम तो स्वयं परमात्मा है | वासना की बात निराली | - चेतना - 1021
  • ये भोले प्राणी चतुर होने का दावा करते और दावानल में जलते रहते हैं | चतुर तो तब होते जब जलते नहीं , छटपटाते नहीं | - चेतना - 1022
  • सुख दुःख को बराबर मनुष्य कर न सका जब तक कि मनुष्य प्यार को अपना न सका | प्यार में कष्ट नहीं , वासना कष्ट दायक | - ज्ञान की चेतावनी - 1022
  • आई ऋतुएँ तुम्हारे स्वागत के लिये , बदलती गई तुम्हारे आनन्द के लिये फिर भी शिकायत ? धन्य हो तुम | - भक्ति - 1022
  • आदर्श की बातें प्रिय किन्तु अवस्था में परिवर्त्तन कब सम्भव , जब तक प्राप्ति के लिये न मर मिटे | - भक्ति की चेतावनी - 1022
  • उमंग की अवस्था निराली - अंग अंग में जोश - प्रेम में कहाँ रहता है होश ? - भक्ति की चेतावनी - 1023
  • सुख दुःख किसने माना ? मन ने . मन को किसने माना ? मैं ने | मैं को किसने माना ? मैं क्या बताऊँ ? तुम्हीं जानो | - भक्ति - 1023
  • चरण स्पर्श किया धरा ने , धन्य हो गई | मस्तक स्पर्श किया नभ ने , प्रसन्न हो गया | तू विराट , अपने रूप को पहचान | न तू क्षुद्र है और न तू शूद्र | महान की सन्तान , महान | - ज्ञान की चेतावनी - 1023
  • दोष किसे कर्म को या भ्रम को ? भ्रम यह था कि मर्म को न जान केवल कर्म के गीत गाता | - चेतना - 1023
  • यदि दीपक ने निमन्त्रण नहीं दिया पतंगों को तो वे आये क्यों ? रूप शिखा ने उनको बेचैन किया | विषयों की भी वही बात है | घात पर घात है | - चेतना - 1024
  • प्रकृति की शांति भंग करने वाला यह कौन ? मानव | न मानता है और न नमन करता है कर्त्ता को , केवल हाय रोटी , हाय रोटी कह कर चिल्लाता है | प्रकृति विक्षुब्ध | - ज्ञान की चेतावनी - 1024
  • समीप रह कर जिसने सताया वह कौन है ? तुम | - भक्ति - 1024
  • मर्यादा ने केवल निर्वाह किया भावनाओं का किन्तु प्रेम के प्रवाह ने असीम ही बना दिया व्यक्तित्व को | - भक्ति की चेतावनी - 1024
  • आज भी पृथ्वी विकलता से काँप उठती है | मिलन का वियोग असह्य | - भक्ति की चेतावनी - 1025
  • करता है और डरता भी है यह कैसा व्यवहार ? डर मत चलता चल | भय कैसा ? - ज्ञान की चेतावनी - 1025
  • अब छिपे रहो , जब पकड़ पाउँगा तो तुम-तुम न रह सकोगे - मेरे ही कहलाओगे | - भक्ति - 1025
  • प्रकृति ने ऐसी प्रकृति बनाई कि कर्ता को ही भूल बैठा | इसका सुधार ? सुधा पान कर , आत्मा को पहचाने तो समझ पाये कि ये प्रकृति के खेल हैं | - चेतना - 1025
  • अमर बातें मरती नहीं | ओठों की शोभा बढ़ाती , ओठों से ओठों पर जातीं , दिल बहलातीं , दिल में बस जातीं , तभी तो अमर हो जातीं | - चेतना - 1026
  • संस्कृति और संस्कार की बातें , बातें ही है | संस्कृति और संस्कार बदलते देखे गये हैं | बदलता नहीं है एक , जो सर्वव्यापी है | - ज्ञान की चेतावनी - 1026
  • भूकम्प यदाकदा किन्तु हृद कम्प प्रति मुहूर्त | नहीं तो निष्प्राण हो जड़ बन जायगा | यह कम्पन प्रभु मिलन के लिए तो मंगलमय अन्यथा निष्प्राण ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1026
  • एकान्त में भी कांत न मिला | अशांत ( मन ) कैसे शांत हो | - भक्ति - 1026
  • लेनदेन में दिल का स्थान कहाँ ? बुद्धि प्रधान | किन्तु समर्पण अद्भुत है | - भक्ति की चेतावनी - 1027
  • श्रवण में भी शांति है मनन में भी यदि मनुष्य अपनी अशांति को भूले | - ज्ञान की चेतावनी - 1027
  • ध्वनि गूँज रही है क्रन्दन की | इसमें भी प्रणय की झंकार है | अजब सूझ है | - चेतना - 1027
  • वेदों में सुना तू देव है | लीला में देखा तू वेद है , वैद्य है प्रेम रोग का | - भक्ति - 1027
  • कवि कभी कभी तेरी झाँकी का वर्णन करते हैं शब्दों में | भक्त तो आँखों में देखता है अरुपी का रूप | - भक्ति - 1028
  • किस ओर देखूँ कि मन को कष्ट न हो ? मन को पूछ तुझे कष्ट क्यों है ? मन का कष्ट भी मन ही जाने | कष्ट कहीं है नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1028
  • देखना मेरा काम और तड़फना दिल का | मन कभी मगन , कभी बेचैन | खेल ही तो था , समझ न सकी सत्य मिथ्या को ( आँखें ) | - चेतना - 1028
  • धर्म - नियम बंधन में सीमित फिर प्रेम का स्थान कहाँ ? प्रेम बिना झूठा है संसार | - भक्ति की चेतावनी - 1028
  • मां ने प्यार पुत्र के रूप में देखा , पिता ने कर्त्तव्य के रूप में | आज भी प्यार की जीत है - कर्त्तव्य तो बंधन का हेतु बना | - भक्ति की चेतावनी - 1029
  • यह चमत्कार शांति का ? अद्भुत | पाने वाले ही पाते हैं | - चेतना - 1029
  • चिन्ता अग्नि , चिन्तन शीतल जल | जल पिला चिन्ता को कि चिन्ता शांत हो | - ज्ञान की चेतावनी - 1029
  • ऐसा दिल दे की मिल जाये और खिल जाये , तुम्हारे रूप में और प्रेम सागर में | - भक्ति - 1029
  • कथा ही कथा थी जब तक संत ने सत्य का रूप न दिखलाया | - भक्ति - 1030
  • तुम कौन हो जो बिजली की तरह चमकती हुई अदृश्य हो जाती हो ? आशा | और तुम कौन हो जो महा अंधकार पूर्ण रात्रि की तरह भयभीत करती हो ? निराशा | - ज्ञान की चेतावनी - 1030
  • यह अमृत की वर्षा किनके लिए ? जो मृत्यु पर विजय पाना चाहते हैं | - चेतना - 1030
  • वासना की अग्नि जलती रही , उसी को प्रकाश माना | प्रेम तो वह जल है जो वासना की गंध को भी बदल डालता है | - भक्ति की चेतावनी - 1030
  • कवि चिर यौवन का अभिलाषी | भक्त चिर मिलन का | भला बुरा कहना बेकार | - भक्ति की चेतावनी - 1031
  • मिट्टी में फूल खिलते हैं यह वही लोक है | पाप पुण्य की धारणा ने इसका रूप ही बदल दिया | - ज्ञान की चेतावनी - 1031
  • मक्खी और झक्की बेचैन | कितना भिनभिनाये ? आखिर शांति तो रस पान में है | - चेतना - 1031
  • मां आश्चर्यचकित , पिता पुलकित , आज अबोध बालक मां मां पुकार रहा था | - भक्ति - 1031
  • तैने क्या किया तेरे लिये सत्य संत के रूप में आया ? क्या कहूँ सत्य ही जानता है | - भक्ति - 1032
  • मेरे कान गुनहगार | मैंने तो पाप पुण्य की कथा सुनी | प्रेम की कथा भी वासना ही जगाती रही | किसे दोष दूँ ? - चेतना - 1032
  • संकेत कर , हे प्रकृति कि तू प्रधान या पुरुष ? पुरुष ही पुरुष को पहचानता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1032
  • पल भर का अनुभव जीवन की सार्थकता है | - भक्ति की चेतावनी - 1032
  • प्रेम भी , भय भी | दूध में कीचड़ अनुचित | - भक्ति की चेतावनी - 1033
  • फूल मुरझाया | क्यों ? समर्पण न हुआ जिसके लिए आया था | भ्रमरों ने रस पान किया | मुरझाना ही शायद अंतिम कार्य था | - चेतना - 1033
  • तुम छिपे , अंधकार आया , ये तारे , चन्द्र , सूर्य भी कहीं दिल के अंधकार को दूर कर सकेंगे ? - भक्ति - 1033
  • अन्नपूर्णा ने केवल अन्न ही नहीं दिया तन की रक्षा के लिए मन को भी भाव दिया | एक स्थूल था दूसरा सूक्ष्म | ( अन्न ) - ज्ञान की चेतावनी - 1033
  • जब बादल बरसा तो जल भूमि पर आया | लोगों ने कहा गंदा जल है | भूमि के लोग कब समझ पाये कि जलती हुई भूमि बादल से न देखी गई | - चेतना - 1034
  • जल के व्याकुल प्राणी ! जल ही तेरी गति , भक्ति मुक्ति स्थान है , फिर आकुल क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1034
  • तुम ही तम में जा छिपे तो हम जी कर क्या करेंगे ? - भक्ति - 1034
  • सत्य की चाह होती तो सच्चा होता | झूठ और सच के झूले ने भ्रम पैदा किया | - ज्ञान की चेतावनी - 1034
  • जलते हुए दीपक को देखकर कहा - यह जलता क्यों है ? अरे ! यह जलेगा नहीं तो प्रकाश कैसे फैलायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1035
  • निम्न कोटि के प्राणी सदा व्याकुल रहे , न प्रेम समझा न वासना | - चेतना - 1035
  • स्वतः कार्य हो रहे हैं फिर अनुकूलता प्रतिकूलता क्यों प्रतीत होती है ? यह मन की निर्भरता है जिसे साधारण जन जान नहीं पाते | - ज्ञान की चेतावनी - 1035
  • प्रेम की प्रशंसा करूँ या निन्दा ? जिसने भगवान को भी भिक्षुक बनाया | - भक्ति - 1035
  • क्या कहकर तुम्हें पुकारूँ ? सभी तो मिथ्या | झूठे लोगों ने तो तेरा नाम ही बदनाम किया | - भक्ति - 1036
  • संतों की नगरी शांत | हुल्लड़ वाले घबड़ाये | न रूप न नाम | यह कैसा राम ? - चेतना - 1036
  • प्रेम को बुरी निगाह से न देख , तू ही लज्जित होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1036
  • अपने को पहचानना ही अद्वैत भाव है | सत्य और मिथ्या तो बुद्धि का चमत्कार है | - ज्ञान की चेतावनी - 1036
  • पत रखेगा , तप कर मिलने के लिये | क्या मेल अच्छा नहीं ? प्रिय का खेल अच्छा नहीं ? - भक्ति की चेतावनी - 1037
  • कामना - काम में ही छिप रही - राम न खोजा | काम में ही आराम फिर राम का क्या काम ? - चेतना - 1037
  • क्यों प्यार दिया और क्यों मोह ? जब दोनों ही विकल करते हैं - भगवान के लिए , मनुष्य के लिए , वस्तु के लिए | - भक्ति - 1037
  • वेद पढ़े , सवंदे न हुआ तो विद्या , बुद्धि का ही विलास मात्र है | - ज्ञान की चेतावनी - 1037
  • जब जब याद किया माया ही फैलाई | क्या मिला तुझे ? - भक्ति - 1038
  • चन्द्र मेरा , सूर्य मेरा कह कर स्वार्थी न बन | चन्द्र सूर्य ही नहीं , सम्पूर्ण विश्व सब का | अनुभव कर आनन्द पायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1038
  • एक छोर पर जीव एक छोर पर शिव | विचारों के लक्कड़ का खेल | कभी जीव ऊपर कभी शिव | - चेतना - 1038
  • प्राणों की बाँसुरी बजाने के पूर्व , हृदय को रसपूर्ण कर ले अन्यथा बाँस की बाँसुरी में कहाँ चमत्कार | - भक्ति की चेतावनी - 1038
  • मोर पंख वाले ने कहा - रमो विश्व प्रेम में | उड़ो कल्पना में जितना मोर उड़ता है | नूपुर की ध्वनि से संसार को आनन्दमय बनाओ तो तुम्हीं कृष्ण | - भक्ति की चेतावनी - 1039
  • सुन कर गुण , श्रवण मनन स्वतः होगा | शब्द सरलता का साथी है , गूढ़ता का नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1039
  • इच्छा शक्ति प्रबल - जगत बनाया उसीमें समाया फिर भी पार न पाया | - चेतना - 1039
  • पीना क्या , तेरे बिना जीना क्या ? - भक्ति - 1039
  • किसी का दिल चुराया , किसी का धन | किसी को किसी काम का न रखा | क्या यही तेरा प्यार है ? - भक्ति - 1040
  • निराकार का खेल तो विचारों का है | साकार का खेल तो और भी अद्भुत | इतने रूप , कि भ्रमित हो गया | - चेतना - 1040
  • अनपढ़ तो अज्ञ नहीं | पढ़ कर भी जान न पाया अपने को , प्रभु को वही अज्ञ | - ज्ञान की चेतावनी - 1040
  • प्राणों में मिलन की तड़पन नहीं तो क्या भक्ति करेगा ? पत्र पुष्प से प्रसन्न होने वाला वह भगवान नहीं | वह तो चाहता है तेरे हृदय में मधुर स्थान | तब कहीं प्राणों को शांति | - भक्ति की चेतावनी - 1040
  • प्राणों में तडपन का भान | अब प्रसन्न तेरा भगवान | - भक्ति की चेतावनी - 1041
  • बीज का रूप देखा ? जीव का खेल देखा ? बीज फिर भी समझा जा सकता है किन्तु जीव को समझना जीव का काम नहीं | - चेतना - 1041
  • माया है तो यहीं रह , मुझे तो तेरे पति से मिलना है | - भक्ति - 1041
  • कंचन और कंचनी , कंचन और कामिनी में क्या अंतर | अंत तक तर होने नहीं देती इनकी भावना | कामिनी लुभाती और कंचनी नचाती | - ज्ञान की चेतावनी - 1041
  • कुछ क्षण तो ऐसे दे की पलक में झलक हो मन पर , तन पर तेरे रूप की | - भक्ति - 1042
  • कैसी प्रकृति बनाई , प्राणी प्रकृतस्थ न हो पाया | - चेतना - 1042
  • गाता है रिझाने के लिये | स्वयं तो प्रसन्न हो जा | तेरी प्रसन्नता ही उसकी प्रसन्नता है | - भक्ति की चेतावनी - 1042
  • सत्य की परछाई का नाम संसार | फिर यह मिथ्या कैसे ? व्यवहार यदि सत्य के लिये हो | - ज्ञान की चेतावनी - 1042
  • गीता - जीवन यों ही बीता | पढ़ता ही रहा | दिल में क्या रहा , दिल ही जाने़ं | - ज्ञान की चेतावनी - 1043
  • श्वेत में श्याम बसा आँखों में , फिर भी पहचान नहीं | लालिमा लाल की है , तुझे ज्ञान नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1043
  • परिवर्तन उनके लिए जो पर के शुभ विचार का वर्तन अपनाये | नहीं तो पट परिवर्तन है | रूप बदले , नृत्य वही | - चेतना - 1043
  • तन की शोभा मन जब शांत | मन की शोभा तुम हो कान्त और तुम्हारी शोभा ? तुम हो और मुझे मैं का पता न हो | - भक्ति - 1043
  • शांत ही रहकर क्या करूँ , जब मन खेल चाहता है विचारों का | विचार भी खेल ही है | तन शांत होने के पूर्व मन शांत हो जाता तो फिर तन न धारण करना पड़ता | - भक्ति - 1044
  • संसार की जलन को शांत करने के लिये शिव ने गंगा धारण की मस्तक पर | दुनिया ने न गंगा की महिमा जानी और न शिव की | वाह री दुनिया - बहरी दुनिया - वह रही दुनिया | बह रही दुनिया पाप पुण्य के प्रवाह में | - ज्ञान की चेतावनी - 1044
  • प्रकृति ने मानव प्रकृति को ऐसा मोहित किया कि अपनी कृति भूल , विकृति का खेल देखने लगा | - चेतना - 1044
  • रंग में रंग जमा , जब दिल रँगा प्यार में | - भक्ति की चेतावनी - 1044
  • जगत पति का पता था , पत्ता-पत्ता में किन्तु पढ़ता रहा शुष्क पंक्तियाँ जिनका ज्ञान , मान , अभिमान करता रहा | - भक्ति की चेतावनी - 1045
  • यहाँ हाय-हाय की जरूरत नहीं , वाह-वाह की है | गम गलत हो जायेगा फिर मजा , मजा ही पायेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1045
  • दिल लगाना आसान | दिल में बसाना कठिन | - चेतना - 1045
  • कभी दिया , कभी छीना , यह कैसी छीना झपटी है ? दिया है तो मन को क्यों चंचल किया ? - भक्ति - 1045
  • संत के द्वारा शांति तथा अवतारी के द्वारा शक्ति , सत्य प्रसारित करता है उसे भक्त कहो या भगवान | - ज्ञान की चेतावनी - 1046
  • द्विज दो बार संध्या के रूप में , मुसलमान पाँच बार नमाज के रूप में तुझे स्मरण करते हैं | अरे पागल मन तू क्यों बार-बार उसे याद करता है ? क्या करूँ रहा नहीं जाता | - भक्ति - 1046
  • जिसे ईमान न आये , उसे क्यों सुनाये ? - चेतना - 1046
  • आशा जब छलने लगी तो निराशा ने कहा - मैं तेरा त्याग नहीं करती | अरे ! आशा निराशा के चक्कर में न पड़ , कष्ट ही कष्ट है | - भक्ति की चेतावनी - 1046
  • उत्तेजना प्रेम नहीं , वासना नहीं , उत्तेजना क्षणिक मानसिक तरंग , परिणाम भला हो या बुरा | - भक्ति की चेतावनी - 1047
  • जला कर भी शांत न हो पाई दुनिया फिर भी याद करती है | यह प्रेम है या घृणा ? - चेतना - 1047
  • आज सजे साज | अब साजन आये , संत जन आये | - भक्ति - 1047
  • स्थूल का स्वाद ही कुछ ऐसा होता है कि वह उसे सूक्ष्म की ओर ताकने ही नहीं देता और देता है - यह नहीं - वह नहीं - सन्तोष शान्ति दुर्लभ | - ज्ञान की चेतावनी - 1047
  • ध्वनि गूँजी प्रिय की | रोम रोम पुलकित हुआ | - भक्ति - 1048
  • ऐसी सृष्टि ही क्यों रची , जो धर्मात्माओं की दृष्टि से पाप पुण्य से न बची ? दर्शन होता , भ्रम दूर होता | - चेतना - 1048
  • उत्तेजित भाव वह ज्वार है जो डुबो देता है किनारे पर खड़े हुए को | भाटा आया व्यक्ति हताश | यही क्रम चला आ रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1048
  • क्षण भंगूर | अक्षय होना चाहता है तो अविनाशी का भाव ले अन्यथा यहाँ आना जाना बेकार | - ज्ञान की चेतावनी - 1048
  • प्रेम कहो या वासना यह तो उत्तेजित भाव है | स्थिर रहे तो स्थिति बने | - भक्ति की चेतावनी - 1049
  • यह धर्म है या संस्कार जिसके लिए मनुष्य बेचैन होता है ? धर्म के लिए यदा कदा | - चेतना - 1049
  • हीरा भी पत्थर ही था और तू भी पत्थर ही | भक्त ने बतलाया तू भगवान और हीरा कीमती | - भक्ति - 1049
  • इस तेरह ने अनेक को मार्ग दिखलाया | गुरु नानक भी इसी के चक्कर में आए थे | तेवर बदलती है दुनिया | तेरह कहता है तीन तेरह न हो , मिल कर कुछ मिलेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1049
  • यह कौन सी इच्छा है जो मिटाये नहीं मिटती ? प्यार की | विकृत प्राणी के संहार की , माता के दुलार की , पिता के प्रेम व्यवहार की , संसार के अनोखे प्रचार की , अभिलाषा के संचार की , आचार की , विचार की , भौतिक वाद के प्रसार की , निरर्थक अहंकार की , शुभ समाचार की | - ज्ञान की चेतावनी - 1050
  • कमल और धान को खिला हुआ देख मन कहने लगा - कुछ मुख को चाहिये और कुछ दिल को | मुख में तुम्हारा नाम , दिल में तुम्हारा धाम , चाहे सुबह हो चाहे शाम | - भक्ति - 1050
  • प्रत्येक क्षण के हवन में तेरा योग ? योग कहाँ , मैं तो भोग की आशा में ही जलता आया | हवन करते हाथ जलता यही देखा | - चेतना - 1050
  • क्षणिक भावना कभी-कभी अग्नि का काम करती है | अनेक संस्कार भस्मीभूत | - भक्ति की चेतावनी - 1050
  • बादल बरस रहे थे , प्रकृति प्रसन्न हो रही थी | आज उसके पुत्र प्रतिदान में रत थे | संग्रह महान किन्तु प्रतिदान तो जीवन की सार्थकता है | - भक्ति की चेतावनी - 1051
  • शांत प्रकृति अशांत मन | कैसी विडम्बना है | प्रकृति भीतर की न थी | अशान्त होता ही | - ज्ञान की चेतावनी - 1051
  • आज तू चला तो दुनिया तुझे सजाना चाहती है | अब तक कहाँ थी दुनिया ? गालियाँ देती थी , निन्दा करते-करते थकती न थी | - चेतना - 1051
  • हृदय की धड़कन ने कहा - धर कण प्रिय के चरण रज की | आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति - 1051
  • दीपक बुझने के पूर्व प्यास बुझा वासना की , प्रेम की | नहीं तो जलती रहेगी वासना | देह , गेह , मिथ्या नेह | - भक्ति - 1052
  • मौज कर , जिसे मौखिक कहने वाले अधिक , करने वाले अति अल्प | करने वाला कोई और है इसे जान , फिर मौज ही मौज है | - ज्ञान की चेतावनी - 1052
  • शादी हुई निकटतम सम्बन्धियों ने गम मनाया क्यों ? धर्म पिता ने धन न दिया | शांति रूपी वधु तो दी | - चेतना - 1052
  • पीया नहीं , पिया पिया चिल्लाने लगा , कहाँ शान्ति ? - भक्ति की चेतावनी - 1052
  • प्रथम पी फिर पिया कह | यों ही पिया पिया से कहाँ तृषा शान्ति ? - भक्ति की चेतावनी - 1053
  • दोष दुनिया का नहीं , दुनिया वालों का है जो हाय-हाय में , वाह-वाह में - नाथ को पहचानते ही नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1053
  • कली को देखकर पश्चाताप क्यों ? कली खिलेगी फिर पश्चाताप न रहेगा | कली खिलेगी बेकली से | - चेतना - 1053
  • प्रेम की पगडण्डी पर न चल | दंड देगी दुनिया - दण्डी बना देगा प्रेम | - भक्ति - 1053
  • चितचोर , रचो ऐसा लोक जो अलौकिक हो भाव का , प्रीति का , अदभुत रीति का कि भूल जाऊँ भूल को , शूल को , स्थूल को , फूल को | - भक्ति - 1054
  • दुनिया के विचारों की फौज तेरी मौज को क्या जानें ? फौज कटेगी , मौज आनन्द करेगी | - चेतना - 1054
  • पाया प्राणों में , खोया श्वासों में प्रिय को , जीवन को | - भक्ति की चेतावनी - 1054
  • मनुष्य मौन रह कर बोलता है | आँख बंद करके भी देखता है | कम आश्चर्य नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1054
  • प्यार का कोई वेद नहीं , शास्त्र नहीं | नहीं को हाँ में बदलने वाला प्यार ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1055
  • वाक् शक्ति नहीं वायु शक्ति | वायु अग्नि को प्रज्वलित करती तथा वाणी का रूप धारण कर प्रवाहित होती | चाहे हित हो या अनहित | - ज्ञान की चेतावनी - 1055
  • जब हुई छँटाईं तो उसकी याद आई | अब ? भूल बैठा सब | - चेतना - 1055
  • सँभाला , फिर भी हो गया मतवाला कैसा आकर्षण है तेरी वाणी का | - भक्ति - 1055
  • चाव चाहिये और भाव चाहिये | अभाव , प्रभाव का चक्कर क्यों ? - भक्ति - 1056
  • व्यक्त हुआ भाव , दिल में था चाव | दुनिया देखने लगी हाव भाव | फिर कहा - न सुना | क्यों ? दिल में टीस उठती है | - चेतना - 1056
  • मूर्ती पर आवरण है स्थूल द्रव्य का | आवरण है विचारों का , मनुष्य के दिल दिमाग पर | बेचैन होगा ही | - ज्ञान की चेतावनी - 1056
  • प्यार को क्यों बदनाम करती है दुनिया ? सह नहीं सकती , खुद करे तो जानें कि प्यार कैसा होता है ? - भक्ति की चेतावनी - 1056
  • संसार का सुख वैभव न्योछावर किया प्यार के लिए | त्याग किया नहीं,। हो गया जब प्यार किया। - भक्ति की चेतावनी - 1057
  • नष्ट होता है स्थूल , सूक्ष्म तो सक्षम है , नाशवान नहीं फिर चिन्ता क्यों ? मन आदत से लाचार | - ज्ञान की चेतावनी - 1057
  • मरूँ या तरुँ ? भूमि ही भूमि है | जल का कहीं निशान नहीं | - चेतना - 1057
  • नील गगन में , श्याम सागर में मेरा श्याम कहाँ , राम कहाँ ? पागल , गर्दन झुका , देख दिल के आइने में , बाहर क्यों ? - भक्ति - 1057
  • मीठा दर्द क्यों ? प्रिय की अनुभूति प्राणों में नवीन स्पन्दन करती हैं | - भक्ति - 1058
  • आचार्य - आश्चर्य क्या है ? आशा ही आश्चर्य | प्रति मुहूर्त जहाँ परिवर्तन , वहाँ जो हो जाये वही अच्छा है | - चेतना - 1058
  • वासना का भूखा कब प्यार कर सका ? वासना जलाती | प्यार की लता लहलहाती आँसुओं को पाकर | - भक्ति की चेतावनी - 1058
  • मोह ने चिन्ता दी और मोहन ने शांति | चिन्ता को चिन्हता नहीं प्राणी | - ज्ञान की चेतावनी - 1058
  • तुझे अपने दिल सागर के दो मोती अर्पित करने पड़ेंगे प्यार के लिए | संसार आँसू कह कर उपेक्षा करेगा किन्तु तेरा - - - उसे पाकर निहाल हो जाएगा | - भक्ति की चेतावनी - 1059
  • अब तक जलता रहा , मरता रहा चिंता में । आज बदल गया दिल । जल्ता है प्राणों के स्वामी के लिए और मरता है उसके बच्चों की रक्षा के लिए ( बच्चे भक्त , प्राणों का स्वामी प्रभु ) । - भक्ति - 1059
  • भोग के दीवाने | संत ही शांति का उपभोग करते हैं | अन्य प्राणी अन्त करते हैं जीवन का यों ही | - चेतना - 1059
  • आह और वाह ही दुःख सुख का रूप धारण करते हैं | कुछ सोच विचार ने चिन्ता को जन्म दिया | - ज्ञान की चेतावनी - 1059
  • ज्ञान ध्यान की बातें ? ज्ञान का भान भी होता तो प्रिय के प्यार से वंचित होता | और ध्यान तो करता नहीं , रहता है कि मैं किसी का हूँ | - भक्ति - 1060
  • क्या मैंने चाहा , क्या मैंने पाया ? उदर पूर्त्ति तो पुनः उदर तक पहुँचायेगी और क्या काम आयेगी ? - चेतना - 1060
  • दिल से प्यार किया दिलदार को | दिल खो न बैठा , किसी का हो न बैठा | - भक्ति की चेतावनी - 1060
  • श्रृंगार स्थूल का , विहार और संहार भी स्थूल का | सूक्ष्म , विचारों का विनोद वहाँ संहार कहाँ ? - ज्ञान की चेतावनी - 1060
  • तन से मुक्त हुआ प्राणी किन्तु मन से मुक्त यदि न हो सका तो पुनः तन धारण करने को वाध्य | मन से यदि मुक्त होता तो तन न धारण करना पड़ता | - ज्ञान की चेतावनी - 1061
  • तेरा धर्म क्या ? प्यार | और कर्म ? प्यार | और भाषा ? वह भी प्यार | तैं ने पाया है , जग का सार | - भक्ति की चेतावनी - 1061
  • अभ्यास और अध्यास सुनती और देखती आई दुनिया | कहाँ शांति ? शांति है जहाँ संधि है विचारों की , जहाँ आराधना है प्रेम की | जहाँ ज्ञान है स्वयं का , जहाँ भान है रूप का भाव का | - चेतना - 1061
  • नसें सन गईं प्यार में | अब बातों का वार किस पर करे ? - भक्ति - 1061
  • जलने वाले मिले , जलाने वाले मिले | मिलाने वाले प्यास बुझाने वाले , तुम्हीं मिले | - भक्ति - 1062
  • देख इस दुनिया की ओर जो हाय-हाय में लगी है | देख , उस दुनिया की ओर जहाँ हाय-हाय नहीं , वाह-वाह नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1062
  • आँखें क्या देखती है ? देखती नहीं , खोज रही हैं प्यार को । प्यार प्रिय क्यों ? प्रिय का प्यार ही तो असार को सार बनाता है । - भक्ति की चेतावनी - 1062
  • आस है तो पास है | नहीं तो पाश ( फंदा ) है | - चेतना - 1062
  • मनुष्य ने भगवान को ललकारा और पुकारा | भगवान हँस रहा था | - चेतना - 1063
  • कोमल पद भी इस हृदय मल को दूर न कर सके तो दोष किसका ? न कमल का , न पद का । कमल की कोमलता न अपनाई और पद को हृदय से न लगाया । - भक्ति की चेतावनी - 1063
  • देखे नजारे ( तुम्हारे ) कहा दिल में न जा रे , तड़पेंगे प्राण बेचारे | सँभाले न सँभलेंगे भाव हमारे | हाथ मलता है | मिलाता क्यों नहीं ? ( हाथ ) - भक्ति - 1063
  • गति की ओर न देख - जीवन की ओर देख | यह गति शील है | दुर्गति के लिए जीवन नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1063
  • सत्य अनुभव चाहता है मानव के द्वारा | अनुभव हीन के लिए सभी सत्य , सभी मिथ्या | - ज्ञान की चेतावनी - 1064
  • जब तक देखा नहीं , तभी तक अजब , गजब । नहीं जी , अजब अनोखा , गजब में तो अक्ल हैरान । - भक्ति की चेतावनी - 1064
  • दिल और दिमाग के झगड़े में विजयी होता है दिल और कहीं - कहीं दिमाग दबा पाता है दिल के भावों को | - चेतना - 1064
  • मैं प्रतीक्षा करता हूँ तू परीक्षा लेता है | सौदा कैसे पटे ? - भक्ति - 1064
  • संकीर्णता - संग नहीं करने देती संत का | नित्य कर्म न भक्ति है और न श्रद्धा विशेष | ये कर्म तो होते रहते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 1065
  • प्रिय तो कहते हो किन्तु क्या प्यार पाया ? जब भुला न सके अहं को , रिझा न सके स्वयं को । - भक्ति की चेतावनी - 1065
  • कोयले को हीरा किसने बनाया ? उसके व्यवहार ने | हीरे को कोयला किसने बनाया ? उसके व्यवहार ने | - चेतना - 1065
  • छोटी सी बात थी | निकल पड़ा था भ्रमण के लिए | आज घर लौटना कठिन हो रहा है | किससे पूछूँ , सभी तो पापी कह कर पुकारते हैं - मुझे | - भक्ति - 1065
  • बसाया था प्रेम के लिए , तभी तो प्रेम से ही बस में होता है | पाप पुण्य न जाने कहाँ से टपक पड़े | - भक्ति - 1066
  • ज्ञान कैसा , अभिमान कैसा ? शांत हो तो भ्रांति मिटे | - ज्ञान की चेतावनी - 1066
  • क्यों प्यार को लजाते हो जब वासना से ही मुक्त न हो पाये ? - भक्ति की चेतावनी - 1066
  • बसाई थी बस में रखने के लिए किन्तु सदा कहती रही - बस आई | - चेतना - 1066
  • तेरी दृष्टि में मेरी सृष्टि समाई , भगवन ! तेरी दृष्टि में मेरी सृष्टि समाई प्यारे ( भक्त )| - भक्ति - 1067
  • प्रेम को किसने देखा , किसने पाया ? जब ज्ञानी बना , भक्त बना | - भक्ति की चेतावनी - 1067
  • गम कम , यदि सम विषम का भाव न रहे | - ज्ञान की चेतावनी - 1067
  • अभिलाषा और आशा ने मेरा तमाशा बना डाला | किसे दोष दूँ ? दिल में बसने वाला ही यदि दिल दुखाए तो खैर कहाँ ? - चेतना - 1067
  • देख इन बच्चों को जो तुझे भूल , रोटियों के लिए ईमान बेचते हैं | तेरे बच्चे और रोटियों के लिए तरसे ? क्या करूँ , इन्हें ईमान नहीं कि मैं भी उनका कोई हूँ | - चेतना - 1068
  • शांत चिड़िया गाती - अशांत फुदकती | यही अवस्था मन की है | - ज्ञान की चेतावनी - 1068
  • काम पर दुनिया नाचे | दाम पर दुनिया नाचे | तू नाम पर राम के नाम पर नाचा | अब दुनिया तेरी , तू दुनिया का , चाहे नचा , चाहे बचा | - भक्ति - 1068
  • मैंने प्रिय के लिये पद गाए | विद्वानों ने व्याख्या की कर्म , भक्ति , ज्ञान की | मेरे गीत गीता बन गए | भक्त के लिए न गाए थे | - भक्ति की चेतावनी - 1068
  • प्यार के लिये झुका | भक्तों ने कहा - राधा के चरणों में कृष्ण किन्तु राधा का दिल किसने देखा ? वह मुझी में समा गई , मेरे हृदय की ज्योति थी | - भक्ति की चेतावनी - 1069
  • अजब और गजब में कौन बड़ा ? अजब देख कर चकित हुआ प्राणी और गजब तो भयभीत करता रहा | - ज्ञान की चेतावनी - 1069
  • अबोध , अज्ञानी प्राणी कह कर संसार ने लगाया काम में | अब काम ही राम बन बैठा , आराम कहाँ ? - भक्ति - 1069
  • कहाँ चला आया , जहाँ अपना कोई नहीं | अपना , सब अपने हैं , नहीं तो सभी सपने हैं | - चेतना - 1069
  • क्रोधी देखे शोधी देखे | विरोधी देखे , हमदर्द भी देखे किन्तु कम | ऐसा क्यों ? - चेतना - 1070
  • नर बना बानर बना | नचाती रही कामना , भावना | आज नारायण की कृपा से नर नारायण मिला | कामना शांत , भावना भाव में समाई | - भक्ति - 1070
  • गुण जब गुण में समा रहे हैं तो मनुष्य पाप पुण्य के लिए क्यों परेशान ? मनुष्य ने अपनी नासमझ , समझ को ही प्रधानता दी | - ज्ञान की चेतावनी - 1070
  • कंस भी मेरा ही अंश था | लोग कहते है मैंने उसका वध किया वध नहीं किया उसको भी अपनाया क्योंकि वह भी मेरा था | - भक्ति की चेतावनी - 1070
  • भक्त सताये जाते वाणी से , कायिक दण्ड से | सत्य को सताने वाला कौन ? यह भी भ्रम ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1071
  • रोटी वाले से यह न कहो कि रोटी के अतिरिक्त भी कुछ है | प्रथम वे ध्यान ही न देंगे और यदि सुन भी लेंगे तो वे क्या ध्यान भी देंगे ? स्वयं अनुभव करो कि रोटी प्रधान या शांति | - ज्ञान की चेतावनी - 1071
  • सत्य की संतान संत | आन सत्य रखता है | अन्य प्राणी तो यों ही आते और जाते हैं | - भक्ति - 1071
  • दर्शन का अपूर्व आभास , स्मृति पटल चमत्कृत हो उठा | - चेतना - 1071
  • तेजस्विता का सौन्दर्य आज देखा | अवस्था अनुपम थी , दर्शक देखता ही रह गया प्रति क्षण अद्भुत परिवर्तन | - चेतना - 1072
  • संत ही सत्य का नर रूप है | अन्य तो निराकार साकार की कथा ही सुनाते आये | - भक्ति - 1072
  • प्रति हिंसा क्यों ? हिंसा ने रास्ता दिखलाया किन्तु प्रेम ने समर्पण की ओर क्या इशारा न किया ? किया होगा , सूक्ष्म भाव की ओर मनुष्य बहुत कम ध्यान देता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1072
  • मेरे बालक का बाल भी बाँका न कर सकेगी दुनिया | यह दण्ड उन्ही के लिये पश्चाताप बन जाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1072
  • सूखी दुनिया को सुखी बना | यह तेरे बायें हाथ का खेल है | कोई आये भी तो | - भक्ति की चेतावनी - 1073
  • पुस्तकों ने पुश्त दर पुश्त मनुष्य को आदर्श की बातें ही कही - शांति का मार्ग तो संत ने दिखलाया | - ज्ञान की चेतावनी - 1073
  • चली मौत , चली उत्पत्ति की चक्की पीसे गए प्राणी | वाह रे संत , तैंने पहचानी गति | शांत किया परिश्रान्त प्राणी को | - भक्ति - 1073
  • सुप्त सौंदर्य , गुप्त आत्मानुभूति , अनेक को भ्रम में डाल देती है | - चेतना - 1073
  • राम मरा नहीं , आराम कर रहा है अपने प्यारों के हृदय में | कृष्ण गया नहीं , अब भी बाँसुरी बज रही है गोकुल में . - चेतना - 1074
  • संत करे अंत | चक्कर को , दुनिया के मक्कर को | वाह रे संत | - भक्ति - 1074
  • बीज देखता है , भूमि जल और किसान को भी , किन्तु उस महाशक्ति को नहीं जो इन चारों के परिश्रम को सफल बनाती है | - ज्ञान की चेतावनी - 1074
  • प्रेम में व्याकुलता क्यों ? अभी पहिचाना नहीं कि तू ही प्रेमी तू ही प्रेमिका | - भक्ति की चेतावनी - 1074
  • मिल कर शान्त | नहीं , मिल कर भान ही न रहा शान्त , अशान्त का | - भक्ति की चेतावनी - 1075
  • मनुष्य का जीवन मिर्चा की तरह गला घोंट सकता है तो धूप बत्ती की तरह सुख भी दे सकता है | जैसी वृत्ती वैसी ही कृति | - ज्ञान की चेतावनी - 1075
  • कल धूल बरसाता था आज फूल | धूल फूल में बदल गई | हाँ भाई , धूल वाला फूल में बदल गया | - भक्ति - 1075
  • बच्चों को मिठाइयाँ दो | रोना बंद भी करे | ये कभी धर्म के नाम पर , कभी कर्म के नाम पर रोते हैं | रोना बंद मिठाई उनकी | - चेतना - 1075
  • क्या प्यार इतना महान है ? महान का प्यार महान | महान के लिए प्यार महान | - चेतना - 1076
  • आनन्द ! दुनिया अंधी क्यों ? आँखें न हुई , आँखें न मिली , प्रभु से प्यार से | - भक्ति - 1076
  • तीन वाले चार हो जा चतुर्भुज हो जा | तीन की वीण न बजा , चार हो जा कि चारो दिशाओं से आनन्द - आनन्द की ध्वनि गूँजती रहे | - ज्ञान की चेतावनी - 1076
  • बेचैनी और मुक्ति के लिए छटपटाहट क्या एक ही वस्तु है ? आंशिक ठीक हो कथन , किन्तु मुक्ति की व्याकुलता अति दुष्प्राप्य | बेचैनी का क्या कहना सर्वत्र ही राज्य है उसका | - भक्ति की चेतावनी - 1076
  • बेचैनी जीवन है शरीर की | किन्तु सम भाव की क्रिया चैन का कारण बनती है | मन की बेचैनी अज्ञानता , जिसका निराकारण मन हो सकता है या किसी की कृपा | - भक्ति की चेतावनी - 1077
  • तार तम में लगा , निस्तार कैसे हो ? तारतम्य निश्चय पर नहीं पहुँचाता | - ज्ञान की चेतावनी - 1077
  • आनन्द ! यह दुनिया प्यासी क्यों ? पास वाले को न जाना , न माना | और न बुझाई आग विषयों की - विष की | - भक्ति - 1077
  • पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा की वह भी देव प्रतिमा कहलाई फिर शरीर का ऐसा हाल क्यों ? पत्थर कुछ चाहता नहीं | शरीर , चाहता है शरीर इसीलिए गंदा | - चेतना - 1077
  • हर तीन मिनट में एक वाणी , यह तेरी मेहरबानी | हर तीन गुणों का खेल , यह मेरी वाणी | - चेतना - 1078
  • आनन्द तू मगन क्यों ? लगन है , इसीलिये मगन | - भक्ति - 1078
  • कैसा झमेला है ? यहाँ यम का मेला है यह मृत्यु लोक है | - ज्ञान की चेतावनी - 1078
  • प्रेम इतना आकर्षक क्यों ? प्रेम प्राण है सृष्टि का , सृष्टिकर्त्ता का | - भक्ति की चेतावनी - 1078
  • प्रकृति का विनोद मानव के लिए रहस्य | अन्दाज कभी ठीक कभी गलत , चला जा रहा है मानव अपनी राह | युग के युग बीते किन्तु रहस्य बना ही रहा | - ज्ञान की चेतावनी - 1079
  • अणु ने महान को छिपा रखा है हृदय में | अणु महान का सृजनकर्त्ता है | आवरण हटा | अणु ही महान | - भक्ति की चेतावनी - 1079
  • रुला कर देता है प्यार या प्यार में रुलाता है , तू ही जाने | - भक्ति - 1079
  • आज देखा चढ़ना दम फुलाता है और उतरना आराम दिलाता है | शायद इसी आराम ने विषयों का मार्ग सरल बनाया | - चेतना - 1079
  • अनुभूति ने भूत की कुंठित भावना को प्रस्फुटित किया | संकोच बोलने न देता था क्या कहूँ - क्यों कहूँ ? - चेतना - 1080
  • अंग में आ रे , समा रे | नहीं तो ये विचारों के अंगारे जला डालेंगे तन को , मन को | - भक्ति - 1080
  • न कोई दुष्ट है और न कोई शिष्ट | अपनी प्रकृति के अनुसार काम करते और दुष्ट और शिष्ट कहलाते | मनुष्य समझ क्यों नहीं पाता कि यह सब प्रकृति का खेल है | कुछ समझे तो क्षमा का भाव आये यदि प्रकृति सहायक हो | - ज्ञान की चेतावनी - 1080
  • उत्साह अकर्मण्य को भी कर्म निष्ट बनाता किन्तु सम्भव तभी जब लक्ष्य सम्मुख हो | - भक्ति की चेतावनी - 1080
  • स्वार्थ और अहंकार - अहंकार के लिए ही स्वार्थ प्रधान | स्वार्थ मनुष्य की हीन वृत्तियों का पोषक | अहंकार निरर्थक मनुष्य को फुलाता , फिर गिराता अन्य लोगों की नजर से | - ज्ञान की चेतावनी - 1081
  • दिखला पाना आसान नहीं | दिखलाना और पाना यह तो अपूर्ण भाव है | - भक्ति की चेतावनी - 1081
  • बसन्त ने रंग दिखलाया | बस , अंत होने के पूर्व एक बार अंग-अंग में तेरा रंग समाये | तभी बसन्त आया | - भक्ति - 1081
  • फूल तो गजब के खिले , सुगंध कहाँ ? मनुष्य तो अजब देखे प्राण कहाँ ? ये दिखावटी है , ये बनावटी है | - चेतना - 1081
  • भाषा हमारा प्राण है , तमाशा हमारा प्राण है | - चेतना - 1082
  • मेरी दुनिया छोटी सी बड़ी सी | कैसे ? जब मैं रहता है , जब तुम आते हो | - भक्ति - 1082
  • संकोच न कर | विशालता व्याकुल हो रही है | - भक्ति की चेतावनी - 1082
  • मनुष्य के मन की जागृति न हुई ( ज्ञान ) तो उसने तन की शुद्धि को ही सब कुछ समझा ( कर्मकाण्ड ) | मन कैसे शान्त हो ? - ज्ञान की चेतावनी - 1082
  • इन धर्म वालों का स्वर्ग कितना लम्बा चौड़ा है ? वहाँ बसन्त कहाँ ? बस अन्त है उसका जिसे ये लोग पुण्य कहते हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 1083
  • विराट को छिपा रहा है पाप पुण्य के आवरण में बेचैनी कब दूर होगी ? - भक्ति की चेतावनी - 1083
  • सारथी आज साथी बन , जीवन में मधुरता आये | - भक्ति - 1083
  • यों ही चली आ रही है दुनिया | न देखने की न समझने की | - चेतना - 1083
  • मीठी - मीठी याद | मीठी - मीठी खाज | याद दिल की , खाज शरीर की | - चेतना - 1084
  • कमजोर का साथी कौन ? बलदेव | - भक्ति - 1084
  • दिल बदलना चाहता है तो किसी ऐसे को बसा जो तेरा दिल ही बदल दे | - भक्ति की चेतावनी - 1084
  • मैं को खा विचारों से , न दुनिया मक्खी तुझे सतायेगी और न तू झक्की बना रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1084
  • सुनता हूँ बार-बार मैं न रहूँ , तू तू न रहे | है हिम्मत खुदी को मिटाने की ? तेरी हस्ती न रहेगी | यह तो उन्ही से बनेगा , जो सती यती हैं | कहना आसान | जब चढ़ेगा सान पर ज्ञान , अभिमान न रहेगा | - ज्ञान की चेतावनी - 1085
  • सृष्टि को पाप पुण्य में समझा , प्यार को वासना तेरा मेरा समझौता कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1085
  • अपनाता कहाँ ? तू तो सताता है | बताता नहीं कि कौन मेरा त्राता है , भ्राता है , माता है ? - भक्ति - 1085
  • तू मेहमान है कि हैवान है ? तुझसे डरती है दुनिया | हूँ तो मेहमान चन्द दिनों का , नासमझी ने हैवान समझा | - चेतना - 1085
  • बीमार को न मार | अरे मार ! यह तो यों ही किसी का मारा हुआ है | - चेतना - 1086
  • गोविन्द ! आज तुम बेचैन क्यों ? बेचैनी भक्त के लिए , मैं शांत | - भक्ति - 1086
  • अनेक तरंगें एक के लिए | अनेक धर्म एक के लिए फिर विवाद क्यों ? वाद क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1086
  • जिन लोगों ने अनुभव किया है , उनका कहना है या जिन्होंने कल्पना की , उनका कहना है कि भगवान है | अनुमान करने वालों का अनुमान सही भी हो सकता है और गलत भी , किन्तु अनुभव तो गलत नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1086
  • अनुभव और अनुमान में “ अनु “ है , जिसका अर्थ है ‘ पीछे ‘ | भव में आया फिर जान पाया कि भगवान है और ‘ अनुमान ‘ तो ‘ मानना ‘ नहीं , अन्दाज लगाना है , यह शब्द का अन्तर आज भी बना है | - ज्ञान की चेतावनी - 1087
  • प्रेम का ढंग ही निराला | कोई त्याग करता , कोई अपनाता प्यार के लिए | कैसा आश्चर्य ? - भक्ति की चेतावनी - 1087
  • प्रिय को कैसे बुलाऊँ ? प्रिय को कैसे भुलाऊँ ? प्रिय को कैसे रुलाऊँ वह मेरा प्रिय है | - भक्ति - 1087
  • कब्र ने कहा - सब्र कर वह दिन करीब है जिस दिन तू मेरा मेहमान बनेगा | पगली ! मैं तेरे लिये नहीं आया जिसका मेहमान हूँ वह मेहरवान है | - चेतना - 1087
  • चिनगारी ने ढेर को जला दिया फिर भी विश्वास नहीं कि प्रेम की चिंगारी पाप-पुण्य के भाव को ही बदल देती है | - चेतना - 1088
  • यह लालिमा मेहंदी की या रक्त की ? नहीं हृदय की , भक्त ( के हृदय ) की | - भक्ति - 1088
  • मन्दिर है तो मन लगा प्यार में , दर दर न भटक | मस्जिद है तो मत जिद्द कर | गिरजा है तो गिर चरण कमलों में | जा अब आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति की चेतावनी - 1088
  • अनुभव की क्या आवश्यकता है ? भव में क्यों आया , यदि अनुभव की जरूरत महसूस नहीं करता ? आहार , निद्रा , भय , मैथुन क्या इसका भी मनुष्य ने अनुभव किया था - ये तो जन्मजात हैं | - ज्ञान की चेतावनी - 1088
  • क्यों मिथ्या शब्दों का प्रयोग करता है जब भाव ही नहीं , हृदय में चाव ही नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1089
  • भाव की बातें कर | भाव में कैसे आयेगा ? जब अनुभव ही नहीं होगा कि कोई है , जो सर्वव्यापी है | - ज्ञान की चेतावनी - 1089
  • गुलाब की कोमलता , सुगंध अति सुखदाई | भक्त हृदय की करुणा प्रभु मन भाई | - भक्ति - 1089
  • कैसे भोले प्राणी हैं तुझे श्रृंगार दिखाते हैं वेश भूषा का | योगी छोड़ने में लगे हैं भोगी पहनने में | - चेतना - 1089
  • कवि ही अच्छे जिन्होंने दिल को रिझाया तो | मैं क्या करूँ ? मेरे दिल में बसा हुआ न कुछ कहने देता और न कुछ सुनने | - चेतना - 1090
  • खिल उठा कमल , खिल उठी प्रकृति | भ्रमर मर मिटा सुगंध पर , रूप पर | - भक्ति - 1090
  • हृदय में प्रिय का वास , फिर क्यों उदास ? - भक्ति की चेतावनी - 1090
  • पाप और माफ | पाप करने वालों में माफ की भावना रखने वाले अति अल्प | पाप का माप कौन कर सका ? माप यदि माफ में बदल जाये तो शायद पापी शांति पाये | - ज्ञान की चेतावनी - 1090
  • प्यार की प्यास है तो प्रिय पास है | - भक्ति की चेतावनी - 1091
  • दिल की सफाई और दिल की गहराई | सफाई चतुर देता है और गहराई तक कोई-कोई जाता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1091
  • चन्द्र वदन कुम्हलाये | प्रिय का वियोग ही ऐसा है | खिले तो प्रिय के लिए | झड़े तो प्रिय के लिए | - भक्ति - 1091
  • दिलासा ही दी दिल न दिया | शांति कहाँ ? - चेतना - 1091
  • दिल में आशा थी जिसने दिलासा दी कभी प्रेम दीप भी जलायेगा | जीवन संध्या समीप , अँधेरा आ रहा है दिल घबड़ा रहा है । - चेतना - 1092
  • सूरज तू रज होता प्रिय के चरणों की तो सुरज होता , प्रिय होता | - भक्ति - 1092
  • क्रोध ? करो कुछ ऐसा काम की धधकती आग विचारों की शांत हो जाय | क्रोध में अवकाश कहाँ , भले बुरे का विचार कहाँ , ऐसा शैतान कि किसी की न माने ( बात ) | - ज्ञान की चेतावनी - 1092
  • ब्रज के वीथियों में भ्रमण करता श्याम , हृदय की ग्रंथियों को सुलझा न सका जब तक आराधिका न मिली , राधिका न मिली | - भक्ति की चेतावनी - 1092
  • संख्या ने शंखिया खिला दिया मनुष्य को विचारों का कि केवल छटपटाता है - होश में नहीं आता | यह संख्या चाहे धन की हो या जन की या अनेक जन्म की | - ज्ञान की चेतावनी - 1093
  • सुबह श्याम यदि श्याम श्याम कहता तो आराम आता , राम आता | - भक्ति की चेतावनी - 1093
  • शेष शय्या पर नारायण | अब शेष शय्या है , नारायण ग्रहण कर | लौटा देगा तो लाचारी है | - भक्ति - 1093
  • साधु सन्तों को साखी , शब्द कबीर ने सुनाये , गृहस्थों का क्या हाल होगा ? भगवान ही जाने | क्यों ? ये त्याग वस्त्रों में देखते हैं | ज्ञान पुस्तकों में | - चेतना - 1093
  • आकाश गुम है | संसार गुमसुम है | दिल कुसुम है | खिलते को देखकर भी यदि कोई आँखे बंद क़र ले तो क्या किया जाये ? - चेतना - 1094
  • पसन्द नहीं वाणी ? तो क्यों दी प्राणी को वाणी ? - भक्ति - 1094
  • पूजा की विधि है किन्तु प्रेम असीम है | विधी निषेध कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1094
  • यह यश का रस बड़ा घातक | दशो इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन भी इसका भूखा है | मानव , दानव क्या शायद भगवान भी इसका भूखा है | - ज्ञान की चेतावनी - 1094
  • किसे भला बुरा कहेगा , सभी तो त्रिगुणात्मक वृत्तियों का खेल है | - भक्ति की चेतावनी - 1095
  • घृणा का फल अवसाद है , ज़रा सोच कर देख | प्यार का फल ? प्रश्न न कर , कर कर देख | - ज्ञान की चेतावनी - 1095
  • तेरी दृष्टि ने व्यष्टि और समष्टि में एक ही का खेल दिखलाया , क्या तू जादूगर है ? - भक्ति - 1095
  • शीतलता ऊपरी - भीतर ज्वाला धधकती है , शांति कहाँ ? यही इस पृथ्वी की , पृथ्वी पर रहने वालों की कहानी है | - चेतना - 1095
  • इतिहास बतलाता है , मनुष्य माँ का स्तन पान कर भी शांत न हो पाया | यहाँ जन्म , जीवन , मृत्यु सब अवस्थाओं में रोना प्रधान है | - चेतना - 1096
  • किसने मुझे अपनाया जब सभी उपदेश सुनाने , योगाभ्यास कराने में लगे थे | किन्तु दया के अवतार ! तू ने कहा - लगा तार | मैं विह्वल था | तार प्यार में समाया | योग हुआ , वियोग का अंत हुआ | - भक्ति - 1096
  • गिनती करता जा , धन की , दिन की , मन की , तन की | कहाँ शांति ? शांति गिनती नहीं करवाती - वह तो बत्ती जला देती है प्रेम की , सती का भाव देकर प्राणपति से ही मिला देती है | - ज्ञान की चेतावनी - 1096
  • मन शान्त न हुआ | क्यों ? मन जाने | मन जाने ? मन जाने क्यों कहता है ? मन माने तो शान्ति ही शान्ति | - भक्ति की चेतावनी - 1096
  • जप करूँ , तप करूँ ? क्या क्या करूँ ? प्यार कर प्रभु को , उसके बन्दों को दुनिया ही बदल जायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1097
  • आज फिर वही चर्चा कि ईश्वर है कि नहीं है . “ नहीं “ कह या " है “ कह | संशय में न पड़ | उठ और किसी भी रूप में उसे मान | नहीं और है तो केवल मान्यता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1097
  • तेरी चाल कौन समझा ? चला तो चलायमान हुआ , स्थिर हो बैठा वह अकर्मण्य | चाल में स्थिरता तो तेरी कृपा की देन है | - भक्ति - 1097
  • हाँ , यहाँ भी आनन्द है उनके लिए , जो शांति के , संत के , प्रेम के उपासक है | - चेतना - 1097
  • पृथ्वी ने कहा - मैं सब कुछ सहन करूँगी तुम मुझे आकर्षण दो | जल ने कहा - मुझे जलती पृथ्वी के प्राणियों को शीतल करने दो अन्यथा मैं जला जा रहा हूँ | वायु कह उठी - मेरा दम घुटता है , मुझे प्राण संचार करने दो | अग्नि ने कहा - मैं राख हो रही हूँ , मुझे प्रकाश दो | आकाश ने कहा - मैं शून्य हृदय कब तक रखूँ ? मुझे संसार का दुःख दर्द ग्रहण करने दो | सृष्टिकर्त्ता उनकी बातों पर हँस रहा था | - चेतना - 1098
  • चंचल तू क्यों भ्रमित करता है ? यहाँ तो यों ही बेहाल हैं | - भक्ति - 1098
  • मैंने क्या देखा ? ‘ मैं ‘ में कहीं देखा जाता है ? मैं वाला तो दिखाता फिरता है कि मैं हूँ , मैं हूँ | - ज्ञान की चेतावनी - 1098
  • वे चिंगारियाँ जो प्रकाश देती हैं , वे चिंगारियाँ जो जलाती है - एक ही का खेल है | चाहे जलो चाहे प्रकाश लो | चाहे वासना कहो चाहे प्रेम | - भक्ति की चेतावनी - 1098
  • प्रतीक्षा उसकी जो हृदय में बसा है - तो आयेगा , जायेगा कहाँ ? यदि कार्य विशेष की प्रतीक्षा है तो सम्भव है , इच्छा पूर्ण हो | - भक्ति की चेतावनी - 1099
  • मृत्यु के पश्चात ? मृत्यु से पूछ या कल्पना कर | जिसे कल की खबर नहीं , वह आज क्यों चिन्तित ? यही तो तमाशा है इस सृष्टि का | - ज्ञान की चेतावनी - 1099
  • जिसने तेरा पीछा किया , वह तेरा होकर रहा | तू चला टेढ़ी , मेढ़ी चाल से किन्तु उसने धरा तुझे सीधापन से , चाल से नहीं | - भक्ति - 1099
  • जाने वाला यह बता न पाया की कहाँ जा रहा है और न आने वाला बता पाया की कहाँ से आ रहा है फिर ठहरने के लिये बेचैनी क्यों ? - चेतना - 1099
  • अनजान देश में क्यों आया ? इच्छा शांत न हो पाई थी चला आया | यहाँ भी पूर्ती कहाँ ? बढ़ ही रही है | - चेतना - 1100
  • मर्यादा ने राम दिखलाया , चंचलता में श्याम | वहाँ सभी गंभीर , यहाँ युद्ध में गीत - गीता | - भक्ति - 1100
  • प्राणी शान्त क्यों नहीं ? शान्त कैसे हो , धुकधुकी लगी है प्राणों में | ये प्राण विमोहित हो रहे हैं सृष्टि के कार्यों से | शान्ति तो विचारों में है , यदि विचार का विचार करे | - ज्ञान की चेतावनी - 1100
  • यदि कृष्ण की बाँसुरी कंस को शान्त न कर सकी , गीता कौरव , पाण्डव को ज्ञान न दे सकी तो ये कथाएँ , प्रवचन कहाँ शान्त कर सकेंगे ? यह शान्ति अशान्ति का युद्ध है , चला आ रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1100
  • भक्त ने कभी संशय न किया भगवान में , तभी भगवान को पा सका , अन्यथा उसका जप , तप यों ही रह जाता | - भक्ति की चेतावनी - 1101
  • विचार कैसे करे ? चार दिशा , चार उपदिशा , चार भुजावाला इनका देवता | जिधर देखो चार का खेल , विचार का खेल , आचार का खेल , प्रचार का खेल , संहार का खेल | फिर खेल का आनन्द नहीं लेता , खेल को देख घबड़ाता है , इसीलिये शान्ति नहीं पाता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1101
  • बाजे पसन्द जहाँ साकार निराकार की उपासना रही , किन्तु कहीं-कहीं तेरे नाम पर कान तक बन्द , यह कैसी उपासना ? - भक्ति - 1101
  • आज रहस्य रस बन गया | प्रकाश और अन्धकार के खेल का नाम कहीं माया , कहीं रहस्य | - चेतना - 1101
  • रस केवल तरलता में , सरलता में ही नहीं रहता वह रहता है सहृदयता में | रस न रहे तो हृदय की गति अवरुद्ध हो जाती है | - चेतना - 1102
  • चित्र ने ही विचित्र अवस्था बनाई | समीप होता तो क्या होता ? यह कहना कठिन है | - भक्ति - 1102
  • इसे ( प्राणी को ) अपनी इज्जत का भय है | यह रहेगी या जायेगी | रहे या जाये क्यों घबड़ाता है ? प्राण भी न रहेंगे , फिर इज्जत के लिए क्यों परेशान ? - ज्ञान की चेतावनी - 1102
  • मैंने तुझे स्पर्श दिया वायु से , वासना क्यों समझ बैठा ? - भक्ति की चेतावनी - 1102
  • जहाँ गया मोह फैलाया | प्यार बरसा न सका | फिर आनंद कहाँ ? कर्दम में फँसना क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1103
  • कर्म का भोग - कर्म तो कुछ शुभ ही थे कि मनुष्य बन कर आया किन्तु मनुष्यता की कीमत न कर भोगों की कीमत की | अब भोग | कर्म का दोष नहीं , तेरे विचारों का दोष है | - ज्ञान की चेतावनी - 1103
  • बाँकी झाँकी आँखों में कैसे समाये | दिल ही में उतर गई | अब याद भुलाई न जा सकी | - भक्ति - 1103
  • जिसके हृदय में संदेह है वह किसे सन्देश भेजेगा ? जो पाने पर भी संदेह करता है उसका तो जीवन ही दूभर है | - चेतना - 1103
  • चन्द्र की किरणें फैलीं | अंधकार दूर | प्रेम का भाव जागृत हुआ - संदेह दूर | - चेतना - 1104
  • प्रभात में उषा के दर्शन हुए | दिल ने कहा - उस सा तो सूर्य भी नहीं यह उषा कहाँ से पायेगी उसके रूप की झाँकी | - भक्ति - 1104
  • मुँह का काम नहीं - यह मुकाम है सत्य का , जहाँ सत्यवादी ही प्रवेश पाते हैं | यह स्वर्ग नरक का अखाड़ा नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1104
  • छाप लगवायी शरीर पर | छापा मार न सका दिल पर | दाग ही न रह गया शरीर पर | - भक्ति की चेतावनी - 1104
  • कच्ची और सच्ची के लिए क्यों माथापच्ची ? कच्ची है तो टूट जायेगी और सच्ची है तो माथा शांत | - भक्ति की चेतावनी - 1105
  • कुदरत और ( प्रकृति ) खुद ( स्वयं ) रत , खुद रत हो जाये तो कुदरत के खेल देख पाये | - ज्ञान की चेतावनी - 1105
  • रूप की पूजा क्षणिक , गुण की पूजा कुछ स्थायी किन्तु तेरी पूजा सदा | तू अरुपी है , गुणातीत है | - भक्ति - 1105
  • कितनी शादियाँ देखीं , वियोग भी देखा | स्थूल खेल दिखलाता रहा , सूक्ष्म हँसता रहा | - चेतना - 1105
  • अपराध विश्व का नहीं बल्कि व्यक्ति का , जिसका निर्वाचन वासना पूर्ण था | - चेतना - 1106
  • मधुर वीणा सुना कि तेरे बिना मैं रह न सकूँ | वह घोर शब्द कर कि संसार के अन्य शब्द सुनाई ही न दें | मध्य तो बध कर रहे हैं मन का | - भक्ति - 1106
  • मेरी खता ? तू लिखता है | ली भक्ति , शरणागति , प्रीति ? यदि नहीं , तो खता ही खता है | तो बता और जता , क्या करूँ ? प्रशान्त महासागर की तरह शान्त हो जा , फिर देख विचारों की लहरें तुझी में शान्त | - भक्ति की चेतावनी - 1106
  • “ पाना “ खूब चाहता है किन्तु जाना पहचाना यहाँ कौन ? भूले को पहचाने और खुद को जाने तो सभी कार्य सरल | कर्म अकर्म ही धर्म अधर्म बन जाता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1106
  • अज्ञता भटकाती विज्ञता मिलाती , तब कहीं प्रकृति पद सहलाती | - ज्ञान की चेतावनी - 1107
  • मोहरें लुट रही हैं | नहीं चाहिये | प्रेम की मोहर लगी दिल पर | अब मोहरें न्योछावर हो रही हैं कदमों पर | - भक्ति की चेतावनी - 1107
  • तप ने तन दिया , अब मन में जप का भाव दे कि जप तप तुझ ही में लीन हो | - भक्ति - 1107
  • तृष्णा थी तभी तो आया | तृष्णा दोषी नहीं , दोषी है उसका प्रार्थी | - चेतना - 1107
  • मथ कर अमृत पाया | मद कर मृत कहलाया . - चेतना - 1108
  • भक्ति का पाठ किया , व्याख्या सुनी , भक्त कहलाया | शांति तो तेरे शीतल चरणों में है | अपनायेगा तो अपना भी काम बन जायेगा | - भक्ति - 1108
  • दिल बसा , विवशता आई | बस गया , अब रहा ही क्या ? - भक्ति की चेतावनी - 1108
  • नर बलि मनुष्य की क्यों ? नर बली बनें विचारों से , नर नारायण बन जाता है | बनता है और जाता है | यदि कहा जाये कि नर ही नारायण है तो बौखला उठेगा पण्डित समाज , जो ज्ञान ध्यान की केवल बातें ही करता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1108
  • किसी की चली और किसी की न चली | दुःख सुख मानना बेकार | यह तो प्रकृति का कार्य है | ऐसा होता ही रहता है | मनुष्य की बुद्धि हैरान ( प्रशंसा और मत ) | - ज्ञान की चेतावनी - 1109
  • दिल से न खेल | कहीं लग गया तो किसी दुनिया का न रहेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1109
  • किसी ने ज्ञान दिया , किसी ने भक्ति ? तू क्या देगा ? भाव , ( जिससे दोनों ही जी उठेंगे ) जिसमें दोनों ही बह जायेंगे | - भक्ति - 1109
  • थक गया या तृप्त हो गया | कहना कठिन | हाँ कहते-कहते थक गया | तृप्ति तो प्रथम दर्शन से प्राप्त हुई | - चेतना - 1109
  • सरकार दरकार | क्यों ? यहाँ भरमार है तकरार वालों की जो धर्म के नाम पर गला काटते नहीं लजाते | - चेतना - 1110
  • पहले लूँ पीछे दूँ | क्या लेना क्या देना सो तू जाने | - भक्ति - 1110
  • प्रथम पूजा की फिर प्रेम बढ़ा , प्रगाढ़ हुआ | अब ? प्रियतम ही ( सब ) सर्वस्व है | - भक्ति की चेतावनी - 1110
  • दीपक प्रज्वलित किया किसके लिए ? अपने लिए या देव के लिए | देव स्वयं प्रकाशमय , अन्धकार में तुम हो कि देव के लिए समझते हो | - ज्ञान की चेतावनी - 1110
  • घर बाहर की बातें आत्मा और जगत की बातें बन गई | घर अब बाहर है इसीलिये जगत की बातें ही प्रधान | आत्मा , परमात्मा की बातें करना निठल्लों का काम है | - ज्ञान की चेतावनी - 1111
  • मिले कब ? जब खो बैठा दिल पहले ही | - भक्ति की चेतावनी - 1111
  • ध्वनि बड़ी मधुर थी , जब तेरी याद थी | ध्वनि बेहाल करती यदि याद न रहती कि तू कौन मैं कौन ? - भक्ति - 1111
  • संग तो संत का भला जो अंत तक निभाता , अंत में अपने में ही मिलाता | भटकने के अनेक मार्ग हैं | - चेतना - 1111
  • खो कर सीखा , क्या ? किसी का होना है | नहीं तो जिन्दगी भर रोना है | - चेतना - 1112
  • किसको कहूँ , जब तुम्हीं रूठे हो ? मनाता हूँ दुनिया को जो मनाये मानती नहीं | और तुम ? छिपे हो सब के दिल में कि प्रकाश में आने का नाम ही नहीं लेते | - भक्ति - 1112
  • करना और होना | यदि तेरा हो जाता तो शायद करना कुछ न पड़ता | स्वतः कार्य होते जो तेरे हैं तेरे लिए हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1112
  • आँख तो एक यन्त्र है असली तमाशा दिल का है | दिल तो एक बहाना है , असली खेल मन का है | - ज्ञान की चेतावनी - 1112
  • किसने जिन्दगी देखी है ? जिन्दगी देखी नहीं जाती कुछ किया जाता है , कुछ हो जाता है और अवधि समाप्त | न विचार काम आया और न आचार | - ज्ञान की चेतावनी - 1113
  • यह देखना भी एक प्रकार की भूल ही है | यदि देखते देखते मन लीन हो जाता तो तल्लीन हो जाता , किन्तु हुआ कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1113
  • मुझे अपने प्रिय की गोद में सोने दे दुनिया | तेरी गोद चिन्ता चिता पर जीवित जलाती और प्रिय की गोद अनेक जन्मों की साधना का फल है | - भक्ति - 1113
  • प्यार में व्यापार , प्यार में व्यापार ? धिक्कार , धिक्कार | प्यार करे बेड़ा पार | - चेतना - 1113
  • सफ़ेद झूठ भी अच्छी , मालूम तो हुआ की झूठ है | किन्तु मिथ्या और सत्य का झगड़ा तो चला ही आ रहा है | - चेतना - 1114
  • तेरी अर्पित वस्तु या तो इतनी पवित्र हो जाती है कि दुनिया स्पर्श नहीं कर पाती या इतनी निरर्थक कि दुनिया के काम की ही न रही | - भक्ति - 1114
  • घृणा धुँआदार , वहाँ कहाँ प्यार ? कहाँ यार ? - भक्ति की चेतावनी - 1114
  • संत के सदा दिवाली है तो उसका बच्चा अंधेरे में रहेगा ? कर्म , धर्म की बातें चली आ रही हैं - चलने दो । लक्ष्य वाला ही लक्ष्य तक पहुँचता है । - ज्ञान की चेतावनी - 1114
  • बनना और बिगड़ना सृष्टि का क्रम है , मनुष्य चिन्तित क्यों ? दृष्टि सीमित , करे क्या बनना ही उसके लिए सुखदायक | बिगड़ना तो बिगड़ना है ( मन का ) | - ज्ञान की चेतावनी - 1115
  • प्यार को ऐसे कदमों पर रखा जिसने कीमत न जानी | रखता प्रिय के , दम टूटता , प्यार अमर रहता | - भक्ति की चेतावनी - 1115
  • रातों रात चिन्तन चला और बातों ही बातों में दिल उसका हुआ | - भक्ति - 1115
  • सत्य को पहचानना कठिन , कहना कठिन फिर भी प्रयास करते है , आशा रखते हैं किसी न किसी दिन सत्य के दर्शन होंगे | - चेतना - 1115
  • जल में मछलियाँ सोती भी हैं , जागती भी हैं , मुझे आश्चर्य हो रहा है | क्या स्थल में ऐसा नहीं होता ? जागने वाला , सोता जागता भी अपना काम बना लेता है | - चेतना - 1116
  • कुछ ऐसी पिला कि नशे में जिन्दगी का पता ही न चले | - भक्ति - 1116
  • इन बादलों को देख कर न घबड़ा | आनन्द की किरणें फैलने वाली हैं , आकुल क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1116
  • चैन से सो और खाता जा जीवन की अवधि | चैन से सो सकेगा वह प्राणी जो खो रहा है स्वर्ण सुयोग ? मानव जीवन तो सुयोग है ‘ स्व ‘ को समझने का | खाना , सोना तो पशु जीवन में भी था | - ज्ञान की चेतावनी - 1116
  • भयभीत को कही भी शान्ति नहीं | भय आया कहाँ से ? विश्वास नहीं तो भय आयेगा ही | भय में यदि शक्ति है तो जाये किसी प्रेमी के पास | भूल जायेगा अपना कार्य | भय को भय होता है प्रेमी से | सब कुछ लुटा चुका है प्रेमी अपने आराध्य के लिए | - ज्ञान की चेतावनी - 1117
  • वह लोक कहाँ जिसे ऋषियों ने कल्पना से देखा ? कल्पना साकार यदि भाव का प्रवाह स्वतः प्रवाहित हो | - भक्ति की चेतावनी - 1117
  • समीप आया तो भोग की तीव्रता दी , अब दूर जाऊँ तुझसे यह कैसे हो ? मुझे भोग नहीं , योग चाहिये तेरा कि भोग तेरा भोग बन जाए , मन तन का योग हो जाए | - भक्ति - 1117
  • प्रीती के गीत चले आ रहे है | दीवाने प्रेमियों का इतिहास पढ़ा | प्रेमी अति अल्प , अधिकांश तो वासना के भूखे मिले | - चेतना - 1117
  • शांति अकर्मण्यता नहीं , शांति महाशक्ति | शांति ने ही प्रभु का रूप दिखलाया , प्रभु से मिलाया | - चेतना - 1118
  • कल तक कुम्भकर्ण बनकर सोया था , आज अर्जुन बन गुड़ाकेश हुआ | अब सोये या जागे कोई परवाह नहीं | भाग्य जागे | - भक्ति - 1118
  • मिथ्या पर अभिमान निरर्थक | अभिमान अंधा बनाता , प्रेम घटाता , चक्कर कटाता | - भक्ति की चेतावनी - 1118
  • मां ने कहा मान जगत महान , पिता ने कहा - पीता जा दूध , मलाई विषयों की | गुरु ने कहा - शब्द ही बतलाता है विष ये | - ज्ञान की चेतावनी - 1118
  • दाता कौन ? जो देता है प्यार और करता है पार भवसागर से | और ये दानी ? ये अभिमानी | इनके पास देने को क्या है ये स्वयं भिखारी | नहर में जल आया कहाँ से ? ज़रा सोचो | - ज्ञान की चेतावनी - 1119
  • फूल अर्पित करता है काम को तो शान्ति कहाँ ? फूल स्वतः खिलता है , बाधक तेरे विचार | खिलने दे अन्यथा जीवन कली मुरझा जायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1119
  • यह भय क्यों ? इससे मुक्ति नहीं , जब तक तू युक्ति न बताये | ' मेरे ' को भय नहीं | - भक्ति - 1119
  • सृष्टि का क्रम कम न हुआ | बहुत अल्प है जिन्हें गम न हुआ | नहीं तो हरदम दम का हरण होता रहा , गम कम न हुआ | - चेतना - 1119
  • जीवन के सूक्ष्म अहं में क्या नहीं छिपा है ? प्रेम का पुजारी वही , घृणा का द्योतक वही | - चेतना - 1120
  • जब जागा तो थका हुआ सा शरीर था किन्तु जब मिला ( तुमसे ) थकावट दूर | अब तो तेरी ही तेरी चर्चा | और यहाँ करना ही क्या है ? - भक्ति - 1120
  • प्रेम का उपासक प्रकाशक है मधुर भाव का , विकासक है उन वृत्तियों का जो प्रगाढ़ निद्रा में पड़ीं थीं | - भक्ति की चेतावनी - 1120
  • ‘ स्व ‘ अंग का ज्ञाता स्वांग क्यों धारण करेगा | स्वांग में पोल है जो किसी न किसी दिन खुल कर लज्जा का कारण बनती है तथा स्थिति कहाँ ? हृदय की बेचैनी , बेचैन बनाती है | - ज्ञान की चेतावनी - 1120
  • संग हुआ साधु का , संगम हुआ प्रभु से | हृदयंगम उसकी बातें | अब कष्ट कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1121
  • लिखनेवाला कौन ? लिखानेवाला कौन ? तू ही | जीव कह या शिव | - भक्ति - 1121
  • अन्धकार उसके लिए जो “ मैं “ का पुजारी | प्रकाश उसके लिए जो सदाचारी , सत्य का पुजारी है | - ज्ञान की चेतावनी - 1121
  • किसे साधु कहूँ ? सभी साधना में लीन | कुछ धन की , कुछ मन की | - चेतना - 1121
  • भाव , अभाव , स्वभाव , प्रभाव | भाव से भव | अभाव से भय | स्वभाव से अभय | प्रभाव से निर्भय | - चेतना - 1122
  • वाणी अमर कर दी तैने , यह तेरी मेहरबानी | नहीं , मेरी वाणी ही अमर | करामात , चमत्कार कुछ भी नहीं | - भक्ति - 1122
  • कष्ट यही कि काष्ठ सा हृदय बना रखा है | रुष्ट होता है , सन्तुष्ट नहीं होता कि जगत का खेल देखने को मिला | फिर वह भी मिला जो प्राणों का आधार था | - भक्ति की चेतावनी - 1122
  • विरोध की भावना क्यों जाग्रत हुई ? अहंकार के करिश्मे हैं | यह जो कुछ करे वह कम है | - ज्ञान की चेतावनी - 1122
  • सुन्दर कौन ? जो सुनता है मधुर वचन और दर ( कीमत ) करता है प्रति क्षण की | यह काला यह गोरा यह तो चर्म का रंग है , मर्म का नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1123
  • मुझे प्रिय की कथा सुनाओ , पाप , पुण्य की बातें न बताओ | प्रिय की प्रिया तेरी आत्मा | अन्तरात्मा निरर्थक बेचैन | - भक्ति की चेतावनी - 1123
  • इतना बल दे कि हाथ की लेखनी तेरा हाथ ही थमा दे कि दिल को शांति मिले - नहीं तो क्यों सफेद पर काला लिखवाता है ? - भक्ति - 1123
  • तृप्ती में त्रिपति मिले हैं | त्रिपति कौन ? जीव , ब्रह्म , माया | - चेतना - 1123
  • प्रत्येक अक्षर यदि उस अक्षर के लिए है तो अक्षर - अक्षर है अन्यथा श्वेत पत्र पर कालिमा का खेल है | - चेतना - 1124
  • लिखवाता नहीं , भक्तों के लिए नए नए फूल बरसाता हूँ | जिस दिन तैने लेखनी ली मेरे लिए उसी दिन मेरा हुआ | - भक्ति - 1124
  • भक्ति क्या है ? नम्र प्रेम का अर्पण हुआ प्रिय को , भक्ति हुई | - भक्ति की चेतावनी - 1124
  • तू जमीन का काँटा नहीं , आकाश कुसुम नहीं , पत्थर नहीं , सोना नहीं , प्रतिमा नहीं कल्पना नहीं , तू अमृत का पुत्र है | पाप पुण्य तुझे स्पर्श भी नहीं कर पाये | - ज्ञान की चेतावनी - 1124
  • जब तू निराकार है तो तू ने साकार सृष्टि क्यों रची ? लयविनोद के लिए न कि पाप पुण्य के लिए | - ज्ञान की चेतावनी - 1125
  • प्रेम क्यों - यह तो दिव्य जीवन का अमर स्त्रोत है जो प्रवाहित हो रहा है नस नस में | - भक्ति की चेतावनी - 1125
  • पागल मेरे लिए लिखता है , जब कि दुनिया दुनिया के लिए लिखती है | क्या चाहता है ? प्रेम का राज्य दुनिया में | - भक्ति - 1125
  • लिपट गया | पट रहा , आवरण रहा | और तेरा प्रकाश ? झीना झीना है , अभी तो जीना जीना है | मैं ही भ्रम में तो दुनिया तो भ्रमित होगी ही | - चेतना - 1125
  • वासुदेव ! ये वासना वाले तो तेरी लीला ही कलुषित कर रहे हैं और कहते हैं रास | हृदय में हो प्रेम का वास तो रास रसमय हो जाये | लीला देखते-देखते ही प्रेम रंग में रंग जाये प्राणी | - चेतना - 1126
  • लिखता जा भक्तों के लिए पुष्प बनेंगे - माला बनेगी | और , कहना नहीं अनुभव ही बतलायेगा | - भक्ति - 1126
  • और भगवान ? प्रेम का सजीव प्रतीक जिसे पाकर प्रेम सार्थक , जीवन धन्य | - भक्ति की चेतावनी - 1126
  • पत्थर में भी ज्योति है | तू तो ज्योति स्वरुप है केवल भावों की रगड़ की आवश्यकता है | - ज्ञान की चेतावनी - 1126
  • जवानी का जवाब नहीं | जवानी है , जहाँ जबानी जमा खर्च नहीं | - ज्ञान की चेतावनी - 1127
  • गुरु ? अदृश्य भावना का जीता जागता रूप , जो परमात्मा का ही दूसरा रूप है | - भक्ति की चेतावनी - 1127
  • दुनिया सो रही है और मैं तेरे वियोग में आँसू बहाऊँ ? नहीं तू सो नहीं , जगाने आया है न , तो सो कैसे सकेगा ? - भक्ति - 1127
  • जिसका दिल खिला , प्रकाश सौरभमय हो गया | कली की बेकली कर्त्ता ही जानें | - चेतना - 1127
  • ज्ञान देगा या लेगा | ज्ञान का आदान प्रदान कैसा ? ज्ञान रहस्य उदघाटन कर्त्ता से मिलाता है | - चेतना - 1128
  • मैंने तुझे रुलाया नहीं , प्यार दिया है और प्यार का लक्षण ही आँसू है , जिसे बड़े-बड़े तपी , जपी नहीं पाते | - भक्ति - 1128
  • तुम कौन ? आज भी जिज्ञासा ? मैं ही तू में समाया - आत्मा परमात्मा का एकीकरण | - भक्ति की चेतावनी - 1128
  • हँसता है मुझ पर या दुनिया पर ? रोता है मेरे लिए या दुनिया के लिए ? दिल से पूछ | - भक्ति की चेतावनी - 1129
  • मेरा भक्त कभी रोता नहीं , सोता नहीं , वह तो दिल के मैल में कमल उत्पन्न करता है और जगाता है प्यार से प्यारे के लिये | - भक्ति - 1129
  • ज्ञान का भान नहीं होता | अभिमान नहीं होता | ज्ञान प्राण है और भक्ति रक्त है भक्त की | - चेतना - 1129
  • भीतर की आवाज जब बाहर आई तो झूठी समझी गई | क्यों ? बाहर मिथ्या व्यवहार आडम्बर की प्रधानता थी | - चेतना - 1130
  • मेरे आँसू पोंछेगा कौन ? तू दुनिया के आँसू पोंछने आया है , ज़रा शान्त होकर तमाशा तो देख | - भक्ति - 1130
  • दो का आधार लौकिक , अलौकिक | एक का आधार अलौकिक | पत रखे वह पति , सत से मिलाये वह सदगुरु | - भक्ति की चेतावनी - 1130
  • किसी को मैं चबा रहा हूँ और कोई मुझे चबा रहा है | इस चबने और चबाने से ऊपर समाना है | - भक्ति की चेतावनी - 1131
  • आज वाणी का बान है | कल तेरा समूचा जहान है | वाणी बान नहीं , वाणी तेरा प्राण जिसके अभाव में शरीर लोहार की धोंकनी है | - भक्ति - 1131
  • भक्ति श्रद्धा बड़ों के लिए किन्तु समान और छोटों के लिए प्यार का उपहार , सृष्टिकर्त्ता का वरदान है . - चेतना - 1131
  • चमका और लुप्त हुआ | यह चमत्कार है या जीवन है ? - चेतना - 1132
  • जल में वह बल है जो बिजली पैदा कर दे | यह पार्थिव जल है | तेरे प्रेम का जल तो संसार को प्रकाशमय बना दे - जरा सोच | - भक्ति - 1132
  • मल को न देख , कमल को देख | दिल खिल उठेगा | दुःख सुख को न देख , आनन्द अनुभव कर , दिल मिल जायेगा दिलदार से | - भक्ति की चेतावनी - 1132
  • संगम में भी गम ? फिर गम कब कम ? - भक्ति की चेतावनी - 1133
  • यहाँ तक कैसे पहुँचा ? मैं क्या जानूँ तू जाने | तेरे खेल तू जाने | - भक्ति - 1133
  • प्रश्न और उत्तर क्यों ? प्रसन्न होने के लिए प्रश्न , तरने के लिए ( उत्तर ) उत्तर तो तर कर देता है दिल को , दिमाग को | - चेतना - 1133
  • दयालु है , चाहो या न चाहो . जिसने चाहा उसने पाया . - चेतना - 1134
  • तेरे लोचन ? भव दुःख मोचन | एक बार देख प्राणी की ओर | ये लोचन सुलोचन जिन्हें प्रभु का दर्शन हुआ भीतर , बाहर | - भक्ति - 1134
  • दुःख को भुलाना है तो प्रेम कर | निरर्थक बातें , बातें ही हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1134
  • रोग भी देखा , भोग भी देखा , शोक भी देखा , चिन्ता भी | सन्त से भी शान्ति न ले सका , वहाँ भी सांसारिक अभावों के लिए प्रार्थना करता रहा | अभागा है | - भक्ति की चेतावनी - 1135
  • तू ने मुझे सिंहासन पर बैठाया , कहा - बेटा तू सिंह है , यह आसन तेरा है | दुनिया की एक न सुन | - भक्ति - 1135
  • आँखों ने क्या देखा ? स्थूल | बुद्धि ने क्या निर्णय किया ? स्थूल | तब सूक्ष्म की सूक्ष्मता विफल | - चेतना - 1135
  • स्पर्श का रस मृत्युलोक में ही प्रधान नहीं , अमृतलोक की भी ओर संकेत करता है | रस की सृष्टि में भी नीरस के उपदेश दिये जाते हैं | क्यों ? रस स्वादन विकृत हो रहा है अन्यथा नीरस जीवन भी क्या जीवन है ? - चेतना - 1136
  • राजगद्दी राजसिक जहाँ दुःख सुख सदा रहते हैं | प्रेम का राज्य ही निराला , मतवाला | - भक्ति - 1136
  • यह विचार , बन्धन , कर्म बंधन कितना प्रबल है ? न इसे सुलझा सका और न काट सका | पुकार प्रिय को , वही मुक्त करेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1136
  • आदान प्रदान ही जीवन है | लिया है तो कुछ ऐसा दे कि पाने वाला धन्य हो जाये | - भक्ति की चेतावनी - 1137
  • आसन जमा आसन पर बैठेगा | तैने कहा आसन पर बैठना आसान | प्रेम सिंहासन तो तेरा जन्म सिद्ध अधिकार है | - भक्ति - 1137
  • अज्ञात स्पर्श , स्पर्श नहीं , प्राणों का नव जागरण है | तंत्री बज उठी | प्रभात कहूँ कि सन्ध्या ? बन्ध्या ने आज गर्भ धारण किया | सौभाग्यवती बनी | - चेतना - 1137
  • किसी की मैं क्यों मानूँ जब मेरा मन ही नहीं मानता ? भय से मानूँ तो मिथ्याचार होगा | संसार मिथ्या शायद इसी लिये मिथ्याचार प्रबल | - चेतना - 1138
  • बात मान | मैं तेरा हूँ मुझे पहिचान , गुरु तो लोग कहते हैं | - भक्ति - 1138
  • पा कर भी दे न सका तो पापी ही कहलायेगा | प्रकृति तुझे मुक्त न कर सकेगी , वह तो स्वयं बन्धन के चक्र में है | - भक्ति की चेतावनी - 1138
  • राग ही जब अनुराग है , तो गा कर किसे सुनायेगा ? गाना - रिझाना | रीझा नहीं तो रिझाना किस काम आया ? - भक्ति की चेतावनी - 1139
  • भगवान मिले | भक्त कहाँ ? - भक्ति - 1139
  • जब रस ही रसातल को चला गया तो जीवन में शेष ही क्या रहा ? जीवन की घड़ियाँ अनमोल थीं जब रस रहा | - चेतना - 1139
  • मुझे क्रोध न दिला , मैं शांति का उपासक हूँ | प्रेम का पुजारी | क्रोध , ईर्ष्या इन दुनिया वालों के लिए रहने दे , इन्हें इनके अभाव में जीना दुश्वार हो जायेगा | - चेतना - 1140
  • प्यार का अपमान न कर | मान कर ही प्यार किया है या हुआ है | इसे किसे बतलाऊँ ? - भक्ति - 1140
  • प्रेम वितरण करने की वस्तु नहीं और न रिझाने की | प्रेम क्या है ? कहने का विषय नहीं | प्रेम सुध बुध भुला देता है | - भक्ति की चेतावनी - 1140
  • दुर्गन्ध और सुगन्ध में भी तू श्वास को ठीक रखता है , फिर परिस्थितियों में बेचैनी क्यों ? स्थिति का अवलोकन कर , वहाँ भी शान्ति में मैं ही विराजमान | - भक्ति की चेतावनी - 1141
  • बात थी दिल की लोगों ने कहा प्रेम इसी का नाम है | दिल ने कहा जो वाणी से व्यक्त वह प्रेम नहीं , प्रेम की छाया है | - भक्ति - 1141
  • बहुरंगी दुनिया में अन्तरंग की प्राप्ति दुष्कर है | अंग अंग में एक ही रंग हो वह अन्तरंग | - चेतना - 1141
  • व्यर्थ जीवन नहीं , संसार नहीं | फिर यह अज्ञान कुहासा क्यों कष्ट दे रहा है ? - चेतना - 1142
  • तेरी बनाई सूरतों को देख कर हैरान | तुझे भी हैरानी होती होगी कि हैरानी के लिए तो यह दुनिया न बनी थी | - भक्ति - 1142
  • अभिवादन करता है , अभी वादन करता है , अभी साधन करता है | अब साध्य में लीन हो जा | आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति की चेतावनी - 1142
  • तरंग कहती है तर हो जा | रंग में डूब , जिसमें नील गगन डूबा हुआ है | - भक्ति की चेतावनी - 1143
  • स्वतन्त्र मैं होता तो तेरा ही बन कर रहता | आज पर की बातों में आकर परतन्त्र बन बैठा | तन ही स्वतन्त्र नहीं फिर मन ? - चेतना - 1143
  • किसी ने प्यार से याद किया , भजन बन गया | किसी ने झुक कर नमस्कार किया श्रद्धा बनी | किसी ने कुछ न किया प्यार से श्रद्धा से परिणाम क्या होगा ? होना क्या है ? विचित्र खेल है | - भक्ति - 1143
  • मां कब तक रुलायेगी ? मेरी इच्छित वस्तु मुझे तड़पाती है | तू आज्ञा दे मेरी समझ साथ नहीं देती | - भक्ति - 1144
  • चौरास्ते पर खड़ा जीव किस ओर चले ? चतुर्भुज चारों भुजाएँ फैलाये पुकार रहा है | माया का प्यार एक भी कदम आगे बढ़ने नहीं देता - जीव विवश तो शिव क्या विषपान कर ही शांत होगा ? - चेतना - 1144
  • तुरही - तू रही युद्ध की अभिलाषिणी | प्रेम की बाँसुरी तो जग के मोह से दूर मोहन से परिचय कराती , उसी का बनाती | - भक्ति की चेतावनी - 1144
  • कष्ट पाया है तो इष्ट भी पायेगा | व्यर्थ कुछ भी नहीं जाता , प्रेम का मार्ग ही ऐसा है | - भक्ति की चेतावनी - 1145
  • देवताओं ने विष पिला कर शांति ली तो मनुष्यों से कैसी आशा की जाये ? महादेव ध्यानमग्न , देव मानव की ओर वह कब ध्यान देने लगा ? - चेतना - 1145
  • जहाँ जाता हूँ वियोग सम्मुख | तू सम्मुख हो सम्मुख हो | किस मुख से कहूँ मैं तुम सम सम्मुख में ही सुख है | - भक्ति - 1145
  • मेरा बाबा ! अनाथ को जगन्नाथ भाव बनाता है यह तुझ से सुना था | क्या तेरी वाणी यों ही कथन मात्र रहेगी ? - भक्ति - 1146
  • रक्त मांस का पुजारी अव्यक्त के प्रेम का क्या मूल्य समझे ? सदा भूखा रहा , अतृप्त भावना सताती रही | विवश हो विषयों का विष पान कर रहा है | - चेतना - 1146
  • अधीर न हो प्राणी | होली , सो होली | अब चेत , चैत्र आया प्राणों में नया रंग बरसा | नया रंग जो जम गया था वासना के नसों में | - भक्ति की चेतावनी - 1146
  • वासना का दीवाना उसी को प्रेम कहने लगा | प्रेम रो उठा कहने लगा मुझे निरर्थक बदनाम किया जा रहा है | - चेतना - 1147
  • विषमता में समता खोज | विष अमृत होगा , जब शिव रूप हो जन जन का कल्याण चाहेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1147
  • रवि ने छवि देखी , प्रकाशमय हो गया , चन्द्र शीतल , धरा देखते-देखते स्थिर | जल आज भी बरसता है , तरसता है | शान्त नहीं हो पाता कैसा तेरा अदभुत रूप है ? - भक्ति - 1147
  • मौत का दूसरा रूप नव-जीवन है किन्तु नवीनता सब को प्रिय हो , यह प्रश्न है | - चेतना - 1148
  • स्थिर तेरे नाम पर और तो चंचल ही चंचल होना है | - भक्ति - 1148
  • पूर्ण प्यार चाहिये , पूर्ण ही पूर्ण है | अभाव मानता ही क्यों है ? अभाव अपूर्ण , भाव पूर्ण है | - भक्ति की चेतावनी - 1148
  • संत की लीला समझ न पाई दुनिया , सन्देह ने और भी जटिलता उत्पन्न कर दी | संत के कार्य साधारण क्या विशिष्ट व्यक्ति भी न जान पाये | वाह री लीला | - चेतना - 1149
  • प्रशंसा न कर निन्दा ही सही किन्तु सुन मेरे दिल की पुकार | तू भी पुकारने लगेगा , जिसे मैं प्यार करता हूँ | - भक्ति की चेतावनी - 1149
  • भांग नहीं , माँग पूरी कर | मेरी माँग मेरी माँग | क्यों रचा संसार का स्वांग ? - भक्ति - 1149
  • जब देखा , गजब देखा , सजग देखा | - भक्ति - 1150
  • अन्न तर ध्यान नहीं तो वह भी अन्तर्धान | - भक्ति की चेतावनी - 1150
  • दुनिया कसौटी उनकी जो दुनियादारी में लगे | संत को सत्य जानता है | कसौटी कहाँ कोसती है | दुनिया ( संतों को ) पूजती है जब सत्य की कृपा होती है | - चेतना - 1150
  • करतार - जब कर में तार , हृदय में प्यार , क्यों नहीं करता बेड़ा पार ? तू भी वार , हो बेड़ा पार | - भक्ति की चेतावनी - 1151
  • कुछ प्रकृति ने दिया और कुछ मनुष्य ने , प्रकृति खिल उठी। जो देना नहीं चाहता लेना ही जानता है वह प्रकृति पुरुष की महीमा क्या जानें? - चेतना - 1151
  • खूब सूरत है तेरी इसीलिये तू खूब सूरत है | - भक्ति - 1151
  • मिलन की घड़ी - आँसुओं की लगी झड़ी | तुम्हें क्या पड़ी ? - भक्ति - 1152
  • ये बूँदें - ओस | आया होश , क्यों करता रोष ? बहने वाला ही मिलता है | यों उत्थान पतन का चक्र ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1152
  • प्रेम में जलना कैसा समा जाना है | वासना अग्नि है जो जला कर भी शांत नहीं होती | वियोग तो संयोग का साधन मात्र है | - चेतना - 1152
  • छोटी बातों में छोटे दिल वाले खूब नाचते गाते हैं किन्तु दरिया दिल का तो दम घुटने लगता है | - चेतना - 1153
  • हरियाली को देख कर पशु पक्षी भी आनन्दित होते हैं , फिर हरि को ही भूल बैठना - आश्चर्य है , हरि है तो हरियाली है | - भक्ति की चेतावनी - 1153
  • अंग भी संग न चला फिर तुम ? मैं स्थूल का साथी कब हुआ ? - भक्ति - 1153
  • अनिश्चित में एक निश्चित है , तुम्हारा प्यार या जीवन-मृत्यु | - भक्ति - 1154
  • प्रति दिन धोता हूँ , रोता हूँ , फिर भी साफ नहीं रहता | क्या ? दिल | - भक्ति की चेतावनी - 1154
  • सरस्वती के पुत्रों ने अमर गीत लिखे , भक्तों ने गाये , ज्ञानी फूले न समाये , अन्य जन यों ही आये | - चेतना - 1154
  • स्नेह और कर्त्तव्य के झूलन पर झूलनेवाले प्राणी ! स्नेह प्रधान कि कर्त्तव्य ? स्नेह प्रधान हृदय से प्रेम स्वयं प्रवाहित होगा | हित होगा तेरा , विश्व का | - भक्ति की चेतावनी - 1155
  • एक क्षण का वियोग भी असह्य किन्तु युगों के वियोग ने तुम्हारी स्मृति ही भुला दी | - भक्ति - 1155
  • प्रेम और भक्ति के छन्ने में सभी पवित्र अन्यथा मल तो रहेगा ही | - चेतना - 1155
  • रोना ही रोना है जब तक तुम्हारी अंक का ज्ञान न हो , भान न हो | - भक्ति - 1156
  • कहानी अधूरी है , यदि पूर्ण न हो | - भक्ति की चेतावनी - 1156
  • याद करने बैठा तो दुनिया याद आई , प्यार किया दुनिया को भगवान क्या करे ? देख दुनिया को समय यों ही बीता | - चेतना - 1156
  • किसी ने धोखा दिया नहीं , धोखा खाया | अपनी कल्पना ने ही यह दिन दिखाया | - चेतना - 1157
  • आँखों ने धोखा दिया | देखने लगी पर को , परमेश्वर को नहीं | चैन कहाँ , शान्ति कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1157
  • दिल की धड़कन को कौन जाने ? तुम जानो या मेरा दिल जिसमें तुम बसे हो | - भक्ति - 1157
  • तुम बसे हो तभी तो जीवित हूँ , नहीं तो प्राण पखेरू न जाने कब उड़ जाते ? - भक्ति - 1158
  • जब सभी कार्य सुनिश्चित है , फिर बेचैनी क्यों ? विश्वास नहीं , ज्ञान नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1158
  • सुना था कि साधु आयेंगे , साध पूर्ण होगी | ये कैसे साधु जो केवल साधना के गीत गाते | साध तो इन्हें भी लगी है | प्राणधन की नहीं , धन की , तन की , जन की | - चेतना - 1158
  • आज मुझे राज करने को कहते हो , कल तक मैं मुँहताज था | जब राज समझा तो राज पाया , मुँहताज क्यों बना ? - चेतना - 1159
  • आहत को जब राहत मिले तो प्रसन्न , अन्यथा आह दु:खदाई , राह बहुत दूर | - भक्ति की चेतावनी - 1159
  • गीत तुम गाओ नृत्य मैं करूँ फिर तो संसार की क्या परलोक की भी सुध बुध न रहे | - भक्ति - 1159
  • भक्तों ने गा कर तुम्हें रिझाने का प्रयास किया | उन्हें क्या मालूम कि गीत भी तुम्हीं गा रहे थे | - भक्ति - 1160
  • परीक्षा मेरी नहीं , तेरी है | तेरे तरे , मेरे मरे | - चेतना - 1160
  • तू उसी से खेलना चाहता है , जिसने खेल के लिए दुनिया बसाई | - भक्ति की चेतावनी - 1160
  • माया आ रही थी काया थर्रा रही थी , कभी हर्ष में , कभी शोक में | माया तू मां है मुझे बचा | रचा था संसार आनन्द के लिए , हो गया भोग रोग के लिए | क्या यह भी माया की माया है ? - चेतना - 1161
  • तेरा सूर्य देखने आया तो बादलों ने घूँघट ही न हटने दिया | भोले बादल यह घूँघट किनके लिए ? जो अपने है आज उनसे घूँघट किन्तु कल ? - भक्ति की चेतावनी - 1161
  • यों तो तुम्हारे दर्शन प्रति मुहुर्त होते रहते हैं फिर भी सन्तोष नहीं होता , विश्वास नहीं होता | क्यों , अपने दिल से पूछो | - भक्ति - 1161
  • लुभाने वाले , भुलाने वाले मिले जो स्वार्थी थे तुम कौन हो जो मेरे उद्धार के लिये व्याकुल ? जो कुछ भी कहो मैं तुम्हारा ही हूँ | - भक्ति - 1162
  • यह प्रवास है या निवास ? विश्वास है | श्वास प्रश्वास का खेल है | - चेतना - 1162
  • भँवर में नौका है | नहीं , भ्रमर है मौका है | रस पान कर , दुनिया की एक न सुन | - भक्ति की चेतावनी - 1162
  • प्राण पखेरू उड़े , कुहराम मचा | लोग समझे यह रोना ममता है | ममता रोती थी नर ने समता न अपनायी | - चेतना - 1163
  • दिल दिया था प्रेम निवास के लिए | वास आज वासना बना | दिल आज दिल्लगी बन गया , दुनिया के लिए | - भक्ति की चेतावनी - 1163
  • आश्चर्य तो यह है कि तुम दिखलाई न देते हुए सब कुछ करते हो | इन आँखों से ओझल बने हो | - भक्ति - 1163
  • कण कण में मन बसा , मुक्ति असंभव | मन में तू बसा सभी सम्भव | - भक्ति - 1164
  • पिया सी दुनिया , प्यासी दुनिया इसे क्या दूँ , क्या लूँ ? पिया जो दिलाये ( स्वयं या मुझ से ) | - चेतना - 1164
  • सजना और सजाना कब तक ? जब तक दिल न भरे | - भक्ति की चेतावनी - 1164
  • बत्ती जलाओ प्रकाश फैलाओ | दु:खी दुनिया को गीत सुनाओ , यही साधना है | - भक्ति की चेतावनी - 1165
  • गीत गाये , ढोंगी कहलाये | या यों ही आये , यों ही जाये | पर की बात करती - ऊपर की बांते ऊपर से कहती | भीतर तरी नहीं , हरि नहीं | इसीलिये बार बार मरी | ( दुनिया ) - चेतना - 1165
  • तू राधा के लिये बेचैन क्यों ? श्याम की वंशी बजे और राधा न आये ? यह असंभव | - भक्ति - 1165
  • गोकुल खोजा | गो का कुल भी खोजा , श्याम कहाँ ? श्याम तू है गोकुल में बस्ता है | गोकुल न भी रहे तो भी वंशी तो बजती ही रहगी | - भक्ति - 1166
  • नाम स्थिर या काम ? नाम बदल सकता है , काम रहता है , कभी बनाने का , कभी बिगाड़ने का | - चेतना - 1166
  • फिर याद कर , फिर याद कर तेरी फरियाद सुनी जायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1166
  • अबोध हृदय में प्यार खिलखिलाकर हँस रहा है | यदि बोध हो जाता तो अमर हो जाता | - भक्ति की चेतावनी - 1167
  • किसे सजाऊँ दिल को या भगवान को ? किसे सजा दूँ दिल को या भगवान को | - चेतना - 1167
  • मेहर की लहर उठी , ऊसर सर सब्ज बना | उसकी मेहर , उसकी लहर | - भक्ति - 1167
  • शहर बना जहाँ वन था | हर बना , हरि बना जहाँ दीन हीन था | यह भी उसकी मेहर है | - भक्ति - 1168
  • यह प्रेम भी अनोखा भाव है कभी वासना में बदल जाता है कभी हर्ष विषाद में | प्रेम प्रेम ही रहता तो दुनिया बदल जाती | - चेतना - 1168
  • प्यार गंदा नहीं , गंदा है शरीर , जिसमें प्यार की प्रतिष्ठा की जाती है | - भक्ति की चेतावनी - 1168
  • तलवार चाहता है ? भूतल पर वार प्रेम - तलवार की आवश्यकता ही न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 1169
  • मुझे बेचैन न कर , चैन से बैठने न दूँगा | आह सुन कर अहा कहते हो , तुम भगवान हो या शैतान | - भक्ति - 1169
  • शून्य में प्रकाश ? आकाश भी तो शून्य ही है , प्रकाश देखता है कि नहीं ? - चेतना - 1169
  • तेरी याद भी दुःखदायी | कुछ संदेह करते हैं कुछ आश्चर्य | - भक्ति - 1170
  • वार पर वार होते हैं घृणा के द्वेष के | कैसे वारूँ प्यार ? पूछना बेकार | एक बार वार , घृणा प्रेम में न बदले तो मैं झूठा , मेरे भक्त झूठे | - भक्ति की चेतावनी - 1170
  • क्यों दुनिया को देखूँ ? अपने राम को न देखूँ कि शांति मिले | हराम में राम खोजना , हैरान करेगा , आराम में राम है ही , फिर खोजना क्या ? - चेतना - 1170
  • किसी ने प्रकृति की शोभा का वर्णन किया किसी ने पुरुष का | एक कवि था , दूसरा भक्त कवि | दुनिया आज भी उनके गीत गाती है और फूली नहीं समाती है | - चेतना - 1171
  • मुझे क्या देखता है ? मेरे भक्तों को देख जो दुनिया को भूल बैठे मेरे प्यार में | आज उनके गीत गा कर अपने को पवित्र समझती है दुनिया | - भक्ति की चेतावनी - 1171
  • जिस दिन देखा उसी दिन अपना समझा | तू मान या न मान | - भक्ति - 1171
  • पंथ देखे , पंथी देखे | ग्रन्थ देखे ग्रन्थी देखी | सब ने केवल आश्वासन दिया | आसन पर , प्रेम सिंहासन पर तो तुम्हीं ने बैठाया | - भक्ति - 1172
  • पाताल ? पा राग अनुराग ताल पर नाचती है दुनिया | बेताल पाताल | - भक्ति की चेतावनी - 1172
  • शुभ दृष्टि मांगलिक बनी - तन , मन शांत और उद्वेलित | - चेतना - 1172
  • पृथ्वी का जल जब आकाश में पहुँचा पृथ्वी आव्हान करने लगी | पृथ्वी पर आह अति तुच्छ जल का पर वाह | अति महान , है न यही बात ? यह आव्हान है | - चेतना - 1173
  • ग्राम बसा है तो राम भी बसा है | ग्राम बाहर राम भीतर | - भक्ति की चेतावनी - 1173
  • पा कर भी नहीं शांति , प्राप्ति का फल जीवन की समाप्ति तक | शांत हो , कांत देख रहा है | - भक्ति - 1173
  • श्वास ने स्पर्श किया प्रिय को अदृश्य महल में । मन चोर अब शिरमौर बना | - भक्ति - 1174
  • प्रकृति यदि भीतरी प्रकृति को प्रसन्न कर सके तो क्षणिक शांति अन्यथा भ्रमण , पूजा व्यर्थ | - भक्ति की चेतावनी - 1174
  • दिल लगाना भी बुरा | क्यों ? बेचैनी जो है | क्यों ? दिल ठहरे या न ठहरे | - चेतना - 1174
  • संत शांत क्यों होते हैं ? उन्होंने अशांति को भी देखा , किन्तु वह बड़ी चंचल होती है , खुद परेशान , साथी का बुरा हाल | - चेतना - 1175
  • दिल बहलाने के लिये यदि कुछ कहा भी , किया भी तो शांति कहाँ ? शान्ति मिलन में | चिर मिलन - चिर समाधि | - भक्ति की चेतावनी - 1175
  • कोई झूल रहा है श्वासों के झूलन पर | मैं देख भी नहीं पाता , आनंद भी नहीं मना पाता | - भक्ति - 1175
  • श्रावण के काले बादलों ! क्या मेरा श्याम तुम्ही में छिपा है ? दिल को श्रावन बना , श्याम वहीं मिलेगा | प्रेम अश्रु तृप्त करेंगे तप्त भावनाओं को | - भक्ति - 1176
  • पहले जलाओ , फिर जल लाओ | पहले ही प्रेम जल बह निकले आँखों से तो मुख से न आह निकले और न वाह | - भक्ति की चेतावनी - 1176
  • जहाँ गया परिचय बढ़ाया | अनजान में कहीं धोखा खाया , कहीं माल गँवाया हाथ कुछ न आया | - चेतना - 1176
  • नवनीत - दो नव नित्य नव नीति , जहाँ प्राचीन , अर्वाचीन , सभी चीन है | - चेतना - 1177
  • वह वक्त था वह भी भक्त था , क्षण भर के लिये न भूलता था | आज भूल कर भी याद नहीं करता यह भी वक्त है यह भी भक्त है माया का | - भक्ति की चेतावनी - 1177
  • तुम्हें प्रेरणा कौन देता है ? तुम्हारा प्यार जिसकी कीमत कोई भक्त ही जानता है | - भक्ति - 1177
  • प्राणों की प्यास , प्रिय हो पास | नहीं तो दिल उदास | श्वास पर श्वास , वियोग की जलन | - भक्ति - 1178
  • यह तेरा उल्टा खेल क्यों ? सूक्ष्म से स्थूल में आया अब स्थूल से सूक्ष्म में क्यों नहीं जाता ? मोटा हो गया हूँ बुद्धि से , विचारों से अब सूक्ष्म में कैसे जाऊँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1178
  • पाद-पद्मों में हृदय अपनी व्यथा अर्पण कर न सका तो निरर्थक ही तुझे प्रभु कह कर सम्बोधित किया | - चेतना - 1178
  • तेरी दुनिया अनोखी | मनुष्य - मनुष्य ही न बन पाया , तेरा ही न कहलाया फिर स्वर्ग कहाँ ? मुक्ति कहाँ ? - चेतना - 1179
  • सुनता तो है | क्या इसी को सुनना कहते हैं | सुना तो तैने भी था कब विश्वास किया ? - भक्ति की चेतावनी - 1179
  • दर दर भटकता हुआ तेरे दरबार में आया तो तैने कहा - दर दर क्यों भटकता है , आज वार दरबार में आया है न | - भक्ति - 1179
  • बुद्धि की शुद्धि कब हुई ? जब तेरी सुध आई | - भक्ति - 1180
  • ये बंदे हैं कि अन्धे हैं जो देख कर भी कुछ नहीं देखते | ये गन्दे हैं इन्हें गन्दगी पसन्द | न बन्दगी न चन्दगी | - भक्ति की चेतावनी - 1180
  • प्यार न बेचा जाता है और न खरीदा | न दिखलाया जाता है और न वर्णन किया जाता है | प्यार प्रभु की अनुपम देन | सौभाग्यशाली नर वर हो जाता है | - चेतना - 1180
  • थका वट बीज सृष्टि का चक्र देखते-देखते | थका न मन बट के बीज से भी सूक्ष्म भावनाओं से | - चेतना - 1181
  • खिले हुए फूल पर कभी किसी की नजर जाये या न जाये उसके दिल की कसक तो मिटी | अरे मिट्टी में तो मिलना ही है जरा हँस ले , जरा खिल ले | - भक्ति की चेतावनी - 1181
  • हो कर जाना तो अच्छा नहीं | जायेगा , वह कहाँ जायेगा ? लौट कर फिर तेरे पास आयेगा | तेरे बिना गति नहीं उसकी | - भक्ति - 1181
  • आज एकांत में कान्त बुला रहा है | लोग कहते हैं चल बसा | कान्त ने कहा चल अब बसा मेरी प्रेम नगरी | प्रतीक्षा में दोनों ही व्याकुल है | तू भी मैं भी || - भक्ति - 1182
  • क्षुद्र प्राण किस पर अभिमान ? एक का भी ऋण चुका न सका | दिल पर भार लिए घूम रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1182
  • दुनिया भोंकती है कुतिया की तरह , जब प्रथम उसे ( संत को ) देखती है | शांत होती है उसकी वाणी के प्रभाव से और जब उपकार से लाभान्वित होती है दुनिया तो दुम हिलाने लगती है कुतिया की तरह | - चेतना - 1182
  • अवतार कब होता है ? जब मानवी शक्ति दानवी शक्ति से पराजित हो त्राहि-त्राहि चिल्ला उठती है | - चेतना - 1183
  • मेरे प्यार को मैं ही जानता हूँ | प्राणी वासना में क्यों बदलता है ? इसीलिये बेचैन | - भक्ति की चेतावनी - 1183
  • धाम में भक्त जय जय कार कर रहे है | भगवान पत्थर बन बैठा | हे पत्थर के भगवान ! भक्तों की तो सुनो | वक्त आने दे | जय जयकार कब बेकार ? - भक्ति - 1183
  • आनंद तेरा धाम कहाँ ? राम में काम में | सुबह में , शाम में | जाम में पैगाम में | नाम में बदनाम में | दाम में वाम में | चाम में विश्राम में धाम ही धाम है | - भक्ति - 1184
  • जैसा लिया था वैसा ही दे | दाग क्यों , दिल में दाग क्यों ? दागी चीज किसे पसन्द ? - भक्ति की चेतावनी - 1184
  • शब्दों का चित्र अनोखा | चित्र का रंग काल कवलित | शब्द गूँजते रहेंगे भावुक हृदय में | - चेतना - 1184
  • समाज बनाया , समता का भाव नहीं | रिवाज चलाई रजा का भाव नहीं ? कैसा समाज कैसा रिवाज ? - चेतना - 1185
  • यह भ्रम क्यों ? मैंने सदा तुम्हें याद किया | आज तुम भी भूल बैठोगे तो तुम्हीं पछताओगे | - भक्ति की चेतावनी - 1185
  • चित्त तेरे निमित्त | और वित्त ? तेरा प्यार | अब कैसे कहूँ कि झूठा है संसार | - भक्ति - 1185
  • दुःख है दुखियों के लिये | सुख है सुखियों के लिए | तू क्या चाहता है ? प्रेम | जिसमें सुख दुःख डूब जायें | - भक्ति - 1186
  • भूत - अद्भुत | एक ओर प्रकृति प्रसंग , दूसरी ओर पुरुष संग | कभी अंग अंग अनंग का संग , कभी अंग प्रत्यंग आनन्द का संग | कभी रंग में भंग , कभी प्रणय प्रसंग | - चेतना - 1186
  • अर्पण करने दे छीनता क्यों है ? करता नहीं , तभी तो छीना झपटी | - भक्ति की चेतावनी - 1186
  • मोह और मोम निरर्थक यदि कर्त्तव्य और बत्ती को न अपनाये | लक्ष्य स्वार्थ तो मोह प्रधान , यदि परमार्थ तो जीवन धन्य | - भक्ति की चेतावनी - 1187
  • प्रकृति की प्रगति स्वतः | सुधार , प्रेम आधार में | अन्य सुधार निराधार | एक ओर सुधार दूसरी ओर कुधार ( बिगाड़ ) | - चेतना - 1187
  • शिव तुम्हे बेल नहीं , तेल नहीं , मधु नहीं , दुग्ध नहीं चढ़ाऊँगा - चढ़ाऊँगा दिल कि दिल ही शिवाकार हो जाय | - भक्ति - 1187
  • जिसकी पत तेरे साथ , वह कब अनाथ , कब बेहाथ , फिर पतन कैसा ? - भक्ति - 1188
  • बहते हैं , सहते हैं , फिर भी कहते हैं ( यह भला , वह बुरा ) ये भाव कहाँ रहते हैं ? - चेतना - 1188
  • अहंकार ! तेरा निवास कहाँ ? कहाँ मेरा निवास नहीं ? एक प्रेमी है जो मुझे स्थान नहीं देना चाहता | - भक्ति की चेतावनी - 1188
  • न मान तू भगवान को , शान्ति का दर्शन भी दुर्लभ हो जायगा | शान्त व्यक्ति ही उसकी अनुभूति पाते हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1189
  • खग , मग , जग | जग में मग है खग के लिए किन्तु खग जग में रहता हुआ भी उड़ता है अनन्त आकाश में | जग सजग करता है , मग पंकिल | - चेतना - 1189
  • तन है , पतन है , मन में है पतन है परन्तु है तभी तक जब तक तेरा पता नहीं | - भक्ति - 1189
  • गिरते को बचाने वाले , लुढ़कते को सहारा देने वाले , तू कौन ? मैं उसका हूँ जो मुझे भूला नहीं | - भक्ति - 1190
  • महा आनन्द तेरा रूप अतः आनन्द की अनुभूति का प्रश्न कहाँ ? तनिक दुःख मेरी प्रकृति का विपरीत भाव ही मुझे विचलित करता है | - चेतना - 1190
  • पत्थर की कठोरता की निन्दा की किन्तु हृदय में सरसता न खोजी तो तुझे शान्ति कब मिली ? - भक्ति की चेतावनी - 1190
  • प्रेम नहीं झुकता , प्रेमी नहीं झुकता , झुकता है दिल | जहाँ दिल ही नहीं - वहाँ प्रेम कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1191
  • जान नहीं , पहचान नहीं , फिर जानकारी कैसी ? जानकारी कब हुई ? जब जान प्राण जान पहचान के लिए व्याकुल हो उठे | - चेतना - 1191
  • जिन्दगी तेरी याद में बिताई फिर तू छिपा क्यों बैठा है ? मैं कष्ट में हूँ . कष्ट है तो संतुष्ट हो जा अब प्रभात समीप है | - भक्ति - 1191
  • अकेला कौन मैं या तू ? मैं अकेला नहीं , तू भी अकेला नहीं , फिर कहाँ झमेला ? - भक्ति - 1192
  • यह कैसा खेल है जहाँ नवीनता प्राचीनता में बदलती रहती है ? नवीन ही प्राचीन फिर आकर्षण कहाँ , जीवन कहाँ ? - चेतना - 1192
  • बिना तार की वीणा कैसी ? बिना झंकार के तल्लीनता कहाँ ? तार , तारता है , तार झंकार पैदा करता है | - भक्ति की चेतावनी - 1192
  • अज्ञ ने अज्ञात न जाना | विज्ञ विद्वत्ता में पागल | अज्ञात - अज्ञात ही रहा | ऋषि वाक्यों ने जिज्ञासा उत्पन्न की | शांति तो सन्त की कृपा ही प्रदान करती है | - भक्ति की चेतावनी - 1193
  • दिल पर्दे में , दिलदार पर्दे में | फिर ये दुनिया वाले क्यों चिल्लाते हैं ? मिलन महान-वृत्ति है शैतान | - चेतना - 1193
  • तू शांत बैठा है , देख , लोग दौड़े जा रहे है विषयों की ओर जिन का कहीं ओर न छोर | - भक्ति - 1193
  • शिव तुम्हे जल पसन्द ? नहीं , जल सा हृदय पसन्द | शिव तुझे बेल पसन्द ? नहीं , मुझे दिल का मेल पसन्द | तुझे क्या पसन्द ? तेरा भाव | - भक्ति - 1194
  • दो का रहस्य किसने जाना ? किसी ने न जाना | दो ने जाना , एक बनाने वाला था , एक नचाने वाली थी | - चेतना - 1194
  • प्रकृति किसी के बस में हो यह किसी के बस की बात नहीं | प्रकृति प्रेम मनुष्य को निम्न स्तर से ऊँचा उठाता है | परम पुरुष का प्रेम तो अमर बनाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1194
  • विश्व एक उद्यान है जिसमें रंग बिरंगे फूल खिले हैं | काँटों की गाथा गाता आ रहा है | न उद्यान देखता है अौर न माली को , प्रेम संतोष के दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1195
  • याद न होती तो प्राणी का क्या हाल होता ? शायद अच्छा होता , शायद बुरा होता | - चेतना - 1195
  • तेरी हिचकी तेरी याद | लोग कहते हैं चला दुनिया से | ठीक है , एक दुनिया छूटी , एक दुनिया पाई | मौत नहीं मौज है , प्रिय की हिचकी है | - भक्ति - 1195
  • जब कभी याद किया तुझे पाया प्राणों में श्वासों में | - भक्ति - 1196
  • जगी कुण्डलिनी हुआ प्रकाश , मिला अमृत , यह भी विश्वास ही है | हुआ दास , मिला प्रकाश यह भी विश्वास ही है | - चेतना - 1196
  • द्रव्य के लिये उपद्रव ? दया से द्रव हो गया दिल जिसका वह द्रव्य नहीं , द्रव चाहता है दान - प्रेम दान | - भक्ति की चेतावनी - 1196
  • वस्तु दी सन्तोष क्यों न दिया ? सन्त देगा सन्तोष | वस्तु के वश में तू | मैंने क्या न दिया ? फिर भी संतोष नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1197
  • प्राणी उष्ण हुआ , फट पड़ा , शीतल हुआ जम गया , इहलोक , परलोक में | फिर साधना ? यह वाद विवाद है | - चेतना - 1197
  • अंधे को प्यार दिया , कामी को आँखें , तस्कर को कल्पना फिर भी दुनिया कैसी अंधी है कि जान न पाई तेरी महिमा को | - भक्ति - 1197
  • अय बागवान तू भगवान क्यों बन बैठा ? प्रेम पुष्प तेरी सुगंध फैला रहा है | और काँटे ? खेल दिखला रहे हैं - लोग उन्हीं में उलझ रहे हैं | - भक्ति - 1198
  • जाने वाले ने ये न बताया कि वह कहाँ जा रहा है और आने वाला यह न बता सका कि वह कहाँ से आ रहा है | कल्पना ने भय की सृष्टि की , आनन्द की भी | - चेतना - 1198
  • मुफ्त में मुक्त होना चाहता है ? दिया है दिल , श्वास के झूलन में झुलाया है अपने श्याम को ? फिर मुक्ति क्या इतनी सस्ती है ? मस्ती महंगी | - भक्ति की चेतावनी - 1198
  • दान नादान क्या देगा ? दान , शान है प्राणी की | कुछ लिया कुछ दिया | आदान प्रदान | आनन्द आदान | प्राण प्रदान | - भक्ति की चेतावनी - 1199
  • अभाव ने रुलाया , भाव ने हृदय को सहलाया | आँसुओं ने अपना प्रभाव दिखलाया | स्वभाव के खेल हैं - आश्चर्य क्या ? - चेतना - 1199
  • भोग भी एक मानसिक रोग है , जिसकी दवा तेरी दया है | - भक्ति - 1199
  • तैंतीस कोटि में तू किस कोटि का है ? कसौटी तेरे दिल में है कस कर देख , कस कर पकड़ फिर कोटि नहीं | - भक्ति - 1200
  • दिल पर आघात , अश्रुपात | - चेतना - 1200
  • तार तो है खटखटाने वाले का पता नहीं | जिस दिन द्वार खटखटयेगा , तार उद्धार में बदल जायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1200
  • काले में कृष्ण देखना महा साधना | संसार काला , कृष्ण ? प्रेम | - भक्ति की चेतावनी - 1201
  • कष्ट देने वाले ने कष्ट पाया , संत ने नहीं | वह भी इसी धरा पर आया था , शांति फैलाई और लुप्त हुआ | - चेतना - 1201
  • मुझे क्या मालूम था कि तेरा वियोग घर बार भुला देता है ? प्राणी के लिये तू परेशान फिर मैं तो हूँ भगवान | - भक्ति - 1201
  • हे ब्रह्म ! भ्रम की क्यों सृष्टि की ? क्या करता भूलकर भी मुझे न याद करता न अपनाता फिर भ्रम तो होगा ही | - भक्ति - 1202
  • तप्त वायु ने बादलों की सृष्टि की या भास्कर की किरणों ने ? यह रहस्य है किन्तु सत्य है वियोगी का योगी होना , त्यागी का महा अनुरागी होना , कामी का व्याकुल होना , लोभी का छटपटाना | - चेतना - 1202
  • किरण तो देखता है , चरण देख , मुख चन्द्र का भी दर्शन होगा ही | - भक्ति की चेतावनी - 1202
  • हलचल में क्या हल हुआ ? जीवन प्रश्न ? चल बढ़ता चल केवल कहते ही कहते हैं न चलते हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1203
  • प्रेमी ने घुटने टेके लोग कहने लगे प्रार्थना कर रहा है | वह तो अहंकार से मुक्त हो रहा था | - भक्ति - 1203
  • सिद्ध हुआ , अंत हुआ दुनिया ने सिद्धांत माना | सिद्ध का अंत कैसा ? फिर सिद्धान्त कैसा ? - चेतना - 1203
  • तू भक्त है भक्तों का , लोग तुझे भगवान कहते हैं | आश्चर्य क्यों , पिता को देखो , माता को देखो , सखा को देखो , स्वयं समझ जाओगे | - भक्ति - 1204
  • दर्द में यदि मिठास है तो किसी की याद है और जलन है तो मानसिक कष्ट है | - भक्ति की चेतावनी - 1204
  • ये विचार कहाँ से आये ? आचार व्यवहार से | - चेतना - 1204
  • रूप नहीं फिर झगड़ा क्यों ? झगड़ा नहीं , फिर झगड़ा क्यों ? ये विचार ही हैं जो रूप के लिये झगड़ते हैं | - चेतना - 1205
  • जब कष्ट में मुझे पुकारा तो आराम में मुझे क्यों नहीं पुकारता ? कष्ट आने दे फिर पुकारूँगा | अभी चुप रह मेरे आराम में खलल न डाल | बड़ी कठिनाई से मिला है आराम | - भक्ति की चेतावनी - 1205
  • अरी बाँसुरी तैने हृदय की भी सुनी या ओठों की शोभा ही बढाती रही | बजना ही मधुरता का कारण नहीं | प्रेम से बजे , प्रेममय बजे , प्रेमी के लिए बजे , तब आते है अद्भुत मजे | - भक्ति - 1205
  • कर कंधे पर था , प्रेमी प्रेम में अंधा था | जगत बेचैन क्यों ? मर्यादा भूल बैठा प्रेम | - भक्ति - 1206
  • चयन नहीं , सुख शयन नहीं , मधु बैन नहीं , रत नयन नहीं , फिर चैन कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1206
  • आँखें क्यों धोखा देती हैं ? आँखें नहीं विचारों का धोखा है | - चेतना - 1206
  • क्षीर सागर में रहने वाला जब भूमी पर आया तो अपना रूप ही भूल गया | दुनियादारी में लगा | अब ? भूल जाये सब , तब ही उद्धार | - चेतना - 1207
  • माया का पाश , काया का मोह , जाया का स्नेह , महा बन्धन | महा का बन्दन बन्द तो बेचैन तो होना ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1207
  • यह मिलन प्रेम , वासना का नहीं आत्मा परमात्मा का था | भक्तों ने राधा कृष्ण कह कर प्रेम की पूजा की | - भक्ति - 1207
  • यह युगल जोड़ी मन को मोहित कर रही है | प्रेम में अंधे यों ही मिलते हैं | मिलन की घड़ी ने जोड़ी यह जोड़ी | - भक्ति - 1208
  • बाल से ही काल साथ है , अब सवाल ? सवाल हल यदि बाल से ही कालातीत को जानें , पहिचानें , मानें | - भक्ति की चेतावनी - 1208
  • प्रकृति ने कृति विकृति का रूप दिखलाया पुरुष ने स्वरुप में मिलाया | प्रकृति में खेल था , पुरुष में मेल था | संस्कृति दोनों में थी | - चेतना - 1208
  • जड़ की शीतलता यदि चेतन में आ जाती तो चेतन धन्य होता | शीतलता आई जब वह प्राणहीन हो गया | कैसी सृष्टि की विडम्बना है | - चेतना - 1209
  • मां ने पिता का नाम संकेत से बतलाया | पुत्र पिता को जाने और माने तो पिता प्रसन्न , मां पुलकित , पुत्र ऋण से उऋण | ( पिता परमात्मा , मां अध्यात्म विद्या , पुत्र अन्तरात्मा ) - भक्ति की चेतावनी - 1209
  • एक पुलक दे , हृदय कमल खिल उठे | क्यों आवागमन के चक्कर में डाल रखा है ? इसमें क्या रखा है ? - भक्ति - 1209
  • तुम्हारी याद में कितने ही फकीर हो गए और कितने ही बलिदान | तुम्हें प्रेम कहूँ या प्रभु ? वासना जलाती , प्रेम मिलाता , प्रेमी से जिसे प्रभु कहते हैं | - भक्ति - 1210
  • दाता , त्राता , भ्राता , माता , पिता कह कर भी सन्तोष न लिया | अब ? अर्पण कर कि अपनापन ही न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 1210
  • चिता ने चिन्ता मिटाई | भ्रम है | चिता तो स्वयं चित्त पड़ी है चित्त करने वाला कोई चिन्तक ही होगा | - चेतना - 1210
  • आज रोती है दुनिया , सोती है दुनिया | कल क्या करती थी ? काल के गीत गाती थी , काल को बुरा बताती थी | फिर शांति कहाँ ? - चेतना - 1211
  • पास बुलाया , प्यार से बातें की | अब ? याद रख सुअवसर कम ही मिलते हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1211
  • इन तारों में मनुष्य को इतर प्राणियों को क्यों बद्ध कर रखा है ? इन पर दया कर ये भोले हैं | - भक्ति - 1211
  • तू कैसा पिया | जो पिलाता नहीं प्रेम रस , केवल वेदना दी वियोग की ? प्राण कैसे शांत हो ? - भक्ति - 1212
  • पति मां को प्रतिमा में देख | मधुर मिलन सम्भव | - भक्ति की चेतावनी - 1212
  • अंग शिथिल तो क्या अनंग भी शिथिल ? अनंग भी एक अंग है , संग है , प्रसंग है , तरंग है तब अनंग संग है | - चेतना - 1212
  • ये झंडियाँ वितंडियों की हैं जिन्होंने कर्म न समझा , धर्म न समझा | समझा क्या ? किया गरूर हुए मगरूर | ( गरूर में ) - चेतना - 1213
  • पता लगा कि पति है , सती भी है | सत्य पति , भ्रमित क्यों मति ? - भक्ति की चेतावनी - 1213
  • प्यार की बातें क्यों लिखता है ? बातें प्यार बुलाती , प्यार जगाती , प्रिय से मिलाती | और कहीं भाषा बन पड़ी तो काव्य कहलातीं | - भक्ति - 1213
  • मैं सोता हूँ , तुम जागते हो मुझे जगाने के लिए | उपकार महान किन्तु मैंने माना कब , पहचाना कब ? - भक्ति - 1214
  • सिर चकरा रहा है | क्यों ? चक्कर पर चक्कर आ रहा है | सिर झुका , चक्कर बन्द | - भक्ति की चेतावनी - 1214
  • बकवास तो बक का वास है बक जिसे मछलियों पर ध्यान रखना है वास यहीं करना है ऐसी गंध है जो अंधा ही बना देती है | - चेतना - 1214
  • प्यार एक पहेली है | पहले प्यार या यार यह भी पहेली है | जन्म प्यार , मृत्यु प्यार यह भी पहेली है किन्तु प्यार है तो यार है यह पहेली नहीं तथ्य है , सत्य है | - चेतना - 1215
  • जनम जनम के साथी को भी न पहचान सका तो विद्या , बुद्धि किस काम आई ? मुक्ति की माला जपने से कब मुक्त हुआ ? - भक्ति की चेतावनी - 1215
  • मेरी कल्पना के आधार तुम्हें क्या दूँ कि मैं , मैं न रहूँ ? देना कैसा ? होना है , तू मेरा मैं तेरा बाबा | - भक्ति - 1215
  • लगन तो है , मगन न हो पाया , क्यों ? तुम्हीं जानो | झूठी लगन , मगन कब कर सकी ? - भक्ति - 1216
  • उसका कैसा विश्वास जो प्रतिक्षण परिवर्तनकारी है ? विश्वास कर एक दिन तेरी आशा पूर्ण होगी | विश्व अश्व की तरह दौड़ता रहेगा और तू सवार होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1216
  • गिरने वाला कभी उठता भी होगा , मरने वाला कभी जीता भी होगा | आशा , निराशा के बीच कभी असमंजस कभी सामंजस्य भी होगा , होगा नहीं होगा के बीच कभी विश्वास कभी अविश्वास भी होगा | कैसा विश्व का खेल है ? - चेतना - 1216
  • जब रिश्ता हुआ फरिश्ता , अब रस्ता है क्या सस्ता ? - चेतना - 1217
  • जलन है मिलन के लिए तो साधन है और यदि धन के लिए तो जलन जलन ही है | धन साधन है इस लोक के लिए , साधन धन है परलोक के लिए | आज भी समझ न पाये | - भक्ति की चेतावनी - 1217
  • बहते जल से पूछा - कहाँ जा रहे हो ? कोई मेरी प्रतीक्षा कर रहा है | - भक्ति - 1217
  • आँखें तरसती रहीं दर्शन के लिए | जब देखा तो मैं न था | - भक्ति - 1218
  • और पुरुष ? वह तो और भी उदार | अपने हृदय में स्थान देकर अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए सचेष्ट | बच्चे कब समझ पाये उसकी उदारता को | - भक्ति की चेतावनी - 1218
  • कोई प्यार से देखता है कोई घृणा से | प्यार ने घृणा पर विजय पाई | - चेतना - 1218
  • जलता हुआ जल क्याें चाहता है ? मरता हुआ अमरता क्यों चाहता है ? खोया हुआ धन क्यों चाहता है ? पाया हुआ शांति क्यों चाहता है ? चाहना और पाना ही सार्थकता है | - चेतना - 1219
  • चन्द्र घटता है और बढ़ता , कमला भी घटती और बढ़ती | पूर्ण एक दिन | कब ? जब नारायण की एकता को पा सके | - भक्ति की चेतावनी - 1219
  • पत्र पुष्प के लिए दे डाला अपने को , क्या तू इतना सस्ता है ? वह भी भाव से देता कौन है ? - भक्ति - 1219
  • प्रेम ने आँखों को अंधा बनाया | नहीं , प्रेम की मस्ती में प्रिय के अतिरिक्त स्थान ही नहीं रहता | लोग चाहे उसे अंधा कहें | - भक्ति - 1220
  • अपमान न कर प्यार का | ग्रहण कर | जीवन नवीन | मुक्ती सरल | भक्ति प्रबल | प्यार के खेल अनोखे | - भक्ति की चेतावनी - 1220
  • फूल खिलता है मुरझाता है फिर भी मनुष्य समझ नहीं पाता जिन्दगी क्या है ? पराग अपना ही राग अलापता है | - चेतना - 1220
  • दुनिया भोजन की चिन्ता में लगी , भक्त भजन की | एक मरा , एक तरा | - चेतना - 1221
  • शरीर को ही कष्ट दिया , मन को ही संत्रस्त किया , प्राणों में व्याकुलता ही ली | यदि प्रियतम के दर्शन हो जाते तो सभी सार्थक होता | - भक्ति की चेतावनी - 1221
  • विक्षेप मैं सह नहीं सकता | आवरण तू रहने नहीं देता | अब मल रहा कहाँ ? - भक्ति - 1221
  • तेरी बातें मोहक हैं | एकान्त में सुनाता , अपनाता | - भक्ति - 1222
  • वह कौन सा युग था जब राधा ने कृष्ण को चाहा और पाया ? द्वापर | दोनों पैरो पर पड़ जा , आज भी वह युग है | - भक्ति की चेतावनी - 1222
  • यह कैसा व्यवहार है जहाँ असत्य को सत्य का जामा पहनाया जाता है ? सत्य के अभाव में असत्य का प्रभाव कहाँ ? - चेतना - 1222
  • जब प्राण सो जाते हैं तब भी महा प्राण जागृत रहता है | सृष्टि में सोना और जागना अर्थ रखते भी हैं , नहीं भी | - चेतना - 1223
  • उर पाश ( फन्दा ) में था | पास वाला भी दूर | कैसा विचित्र खेल ? - भक्ति की चेतावनी - 1223
  • तुझे रूप का अभिमान है , तुझे विद्या का ,वैैभव का । मैं किस पर करूँ ? अरूपी का प्रेम ही ऐसा है | - भक्ति - 1223
  • प्रिय को दिखला पाता तो शायद दुनिया मानती प्रिय को | प्रिय प्रदर्शन नहीं चाहता , वह तो तेरे हृदय में ऐसा बसा कि वह बाहर आना ही नहीं चाहता | - भक्ति - 1224
  • नर और नारी समस्या नहीं | समस्या है नारायण की , जिसके हृदय में दोनों ही वास करते है | आ कर सुन , आकर्षण का रहस्य समझ | - भक्ति की चेतावनी - 1224
  • एक लहर बेचैनी की थी और एक लहर शांति की | बेचैनी ने शांति को परास्त किया किन्तु शांति ने बेचैनी को पर न समझा अब अस्त हुआ अस्त व्यस्त भाव का | विजयी शांति | - चेतना - 1224
  • पराभव या हार समानार्थक है | पर भव है तो हार निश्चित है | सम्मान और अर्थ का अभिलाषी भी हार पहनता नहीं , हार ही जाता है | - चेतना - 1225
  • जब वासना में इतना आकर्षण है तो प्रेम ? प्रेम शान्त करता है तन को , मन को , आकर्षण , विकर्षण कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1225
  • पाप और पुण्य के द्वार पर मुझे खड़ा न कर प्रभो ! भटकना कब शांतिदायक बना | - भक्ति - 1225
  • तुमने सब अवस्थाओं में मुझे देखा | मेरी अवस्था हुई कैसी , क्या बताऊँ , जब मैं तुम्हें देख न पाया किसी अवस्था में | - भक्ति - 1226
  • क्यों आकुलता है ? संयोग को सह न सकेगा | वियोग को तू ने मूल धन मान रखा है | - भक्ति की चेतावनी - 1226
  • ज्योति , प्रकाश , वीणा , ध्वनि की बातें सुनी , व्याख्या सुनी किन्तु अनुभूति अपूर्व है | स्थूल में परिवर्त्तन , सूक्ष्म में अनुभूति आश्चर्यजनक | रहस्य ही रस है यह भी जीवन पथ है | - चेतना - 1226
  • निरुत्तर किया जा सकता है बुद्धि बल पर , प्राण व्याकुल है | क्यों ? बुद्धि शुष्क , प्राण सरस | - चेतना - 1227
  • भक्ति सीखेगा कि करेगा , प्रेम में डूब जायेगा कि गीत गायेगा ? अनुभव ही बतलायेगा | वेद शास्त्र का प्रमाण-प्रमाण नहीं | प्रमाण नहीं , प्रणाम ही प्रमाण | - भक्ति की चेतावनी - 1227
  • भक्तों ने हृदय में , ज्ञानियों ने सर्वत्र तुझे पाया किन्तु मैंने तुझे खोया अभिमान में | - भक्ति - 1227
  • तुमने मुझे बुलाया या भुलाया ? निमन्त्रण था अस्वीकार कैसे करता किन्तु भुलाना कहाँ तक उचित है ? - भक्ति - 1228
  • उदय और लय यही सृष्टि क्रम | क्रम कम हो जब कर्म धर्म का बन्धन प्रेम बन्धन में बदल जाये | - भक्ति की चेतावनी - 1228
  • मिलाप उत्साह का कारण बना , वियोग दुःख का , किन्तु मिलाप और वियोग भी संयोग की बात है | - चेतना - 1228
  • स्थूल शक्ति को झुकाना , सूक्ष्म शक्ति ही करती आ रही है | स्थूल प्रकाश , सूक्ष्म प्रकाश का ही रूपान्तर है | आश्चर्य क्यों ? - चेतना - 1229
  • शान्ति अलभ्य क्यों हो रही है ? हृदय कमल अभी खिला नहीं | मन भ्रमर रस पान के लिए व्याकुल | जब खिलेगा तो पान कर विश्राम पायेगा मन | - भक्ति की चेतावनी - 1229
  • जल कमल एक ही के लिए थे | जल अश्रु , कमल हृदय प्रिय का | - भक्ति - 1229
  • मरुभूमी भी निहाल , जब जल पाया | यह उसकी साधना थी या बादल का दयालु अन्तःकरण , यह कहना कठिन है | - भक्ति - 1230
  • सजाने के लिये पुष्प ही आवश्यक नहीं , दिल भी चाहिये | दिल ही से तो सजाया है | दिल सजाता तो भगवान स्वयं आता | - भक्ति की चेतावनी - 1230
  • वह कौन सी ज्योति है , जो प्राणी के प्राणों में जगमगा रही है | अज्ञ और विज्ञ चकित हैं | सुनी बहुत बातें , बिताई कितनी रातें , किन्तु आज भी रहस्यमयी बनी हुई है | - चेतना - 1230
  • प्रवचन तो आज प्रवंचन मात्र रह गया है | वासना ने प्रेम का स्थान हथियाया | अब तू ही बता , तुझे पाना सरल कैसे बने ? यह कोई विचित्र बात नहीं , खोजने वाले पा ही जाते है मुझे , तू चिन्ता न कर | - चेतना - 1231
  • प्यार की बातों ने प्यार जगाया | कहा - जाग , जग में आया , वह आया जिसने तेरा प्यार जगाया | - भक्ति की चेतावनी - 1231
  • शरीर पवित्र , अपवित्र किन्तु हृदय में तो तेरा ही निवास है , यह मुझे पूर्ण विश्वास है | - भक्ति - 1231
  • तू ने मुझे भावों से स्पर्श किया प्रेम जागरण के लिए | किन्तु मैंने समझा , यह तेरी कामना है , वासना है | - भक्ति - 1232
  • रस की बून्दों से क्षीर सागर बना | सोये सो भगवान और चरण सेवी लक्ष्मीवान | - भक्ति की चेतावनी - 1232
  • क्षणिक सुख मोह का कारण बना | फिर ऐसा बना की युगों तक उससे मुक्त न हो सका | आनन्द की लहर आई संत वाणी से | प्राणी हर्ष में भूल गया मोह को | यह भी अवस्था थी | - चेतना - 1232
  • प्रकाश को अवकाश नहीं , फिर भी दुनिया का अंधेरा दूर नहीं हो पाता | प्रकाश क्या करे दुनियावालों को अवकाश नहीं कि वे प्रकाश को देखें | वे जिसे चाहते हैं , उसके वाहन को अंधेरा ही प्रिय है | - चेतना - 1233
  • स्थिति जीवन है | मन ही स्थित न हुआ मन-मोहन में तो कैसा जीवन ? - भक्ति की चेतावनी - 1233
  • तुमने मुझमें क्या देखा ? जो तुमने मुझ में देखा | - भक्ति - 1233
  • कोड़ों का प्रहार , करोड़ों का उपहार , तुम्हारा विनोद है | - भक्ति - 1234
  • काली और गौरी प्रलय और प्रेम - लय है | ताली बजाते हैं लय में झूमनेवाले प्रलय में रमनेवाले | - भक्ति की चेतावनी - 1234
  • लक्ष्मी की निन्दा साधुओं ने की , नारायण खुश थे | क्यों ? वह उसके भक्तों को रास्ते में ही चक्कर में डाल देती है | - चेतना - 1234
  • इन रंगीनियों का रंग न रहा और न रहेगा | फिर मनुष्य क्यों सुध बुध भूल बैठता है ? कुछ ऐसा ही करता आया है और कुछ ऐसा ही करता रहेगा | परिवर्त्तन देखे किन्तु इसकी प्रकृति न बदली | - चेतना - 1235
  • क्षुधा का बंगला उच्चारण खुदा | क्षुधा के लिए खुदा की पुकार बेकार | खुदा तो खुद ही आता है | आते ही भूख मिटेगी वासना की | - भक्ति की चेतावनी - 1235
  • जिसे प्यार करते हो उसे अन्य जन भी प्यार श्रद्धा करते हैं , यह भी तुम्हारा विनोद ही है | - भक्ति - 1235
  • दिल में छिपा कर रखते हो प्रिय को , यदा कदा प्रेम प्रसाद के लिए प्रेषित करते हो , यह भी तुम्हारा विनोद ही है | - भक्ति - 1236
  • भुलाया उसको जो कभी भूलता नहीं | रुलाता उसको जो कभी कभी याद करेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1236
  • कोई कहता है घर छोड़ , प्रिय मिलेगा | घर तो प्रिय बसाता है , छुड़ाता नहीं | यह कैसा प्रिय है , जो घर छोड़ने पर मिलता है | - चेतना - 1236
  • समाज बने कुरीतियों के निवारण के लिये , किन्तु वाह रे प्रकृति एक दिन समाज भी अपनी कुरीतियों पर अभिमान करता है | - चेतना - 1237
  • संघटन जब मानव मात्र का ही न हो पाया तो प्राणी मात्र का तो और भी कठिन | संग वाले को पहचानता तो गठन होता प्राणवल्लभ का | आनन्द ही आनन्द था | - भक्ति की चेतावनी - 1237
  • जीवन की एक कहानी , सुन प्राणी | मिट्टी से मेरा मुख बन्द न कर , मुझे खिलने दे , हँसने दे | ( व्याकुलता का कारण ) - भक्ति - 1237
  • देवो की स्तुति दानवों की निन्दा , तेरी ? निन्दा स्तुति से परे | - भक्ति - 1238
  • गा कर रिझा न सकोगे , रो कर भी भुला न सकोगे | वह इतना भोला नहीं , इतना निष्ठुर भी नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1238
  • पहाड़ तो पहाड़ा है एकान्त जीवन का | आज तो विलासी जन का क्रीड़ास्थल बना हुआ है | कैसा आश्चर्य ? - चेतना - 1238
  • आज के साधु मोटे , दिल के छोटे , किन्तु बातें बड़ी-बड़ी | इसीलिये न छोटे मुँह बड़ी बात की कहावत चरितार्थ हुई | - चेतना - 1239
  • प्राणों में एक ही बसा है , फिर मन अनेक के लिये क्यों चंचल ? चल , आगे बढ़ | अब और कहाँ ? अब ठौर कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1239
  • वह स्मृति जो मृतवत थी उसमें प्राण फूँकने वाले तू कौन ? बाँसुरी थी , मैं ने तो उसे जगाया है श्वासों से | - भक्ति - 1239
  • अपने को देखूँ , अपनों को देखूँ , स्वप्नों को देखूँ , प्रत्यक्ष को देखूँ | तू ही बता , क्या-क्या देखूँ ? - भक्ति - 1240
  • रूप , यौवन धन ही तेरा लक्ष्य है जीवन का , तो तू धन्य है | नर है तो नारायण को पहचान , नहीं तो निराकार , नराकार सब बेकार तेरे लिये | - भक्ति की चेतावनी - 1240
  • कुम्भकार ने घट निर्माण किया | आलोचक बोल उठा - नवीनता कहाँ , पुनरावृत्ति है | कवि असमंजस में पडा , नवीनता खोजने लगा | सोचने लगा - शब्द वही , प्रयोग नवीन | प्रयोग के प्रशंसक अति अल्प , आलोचक ही अधिक | - चेतना - 1240
  • वर्णमाला की दृष्टि से अनुराग प्रथम और विराग तो स्पर्श ( वर्ण ) से परे | अन्तस्थ ( वर्ण ) है न , अंत के पूर्व ही अकेला ही रहना पड़ा | - चेतना - 1241
  • क्यों ऐसे गीत गाता है कि न स्वयं शान्त न अन्य ? गा कुछ ऐसे गीत कि तेरे हृदय में अपूर्व उत्साह जागृत हो जाये | श्रवण प्रिय , कर्ण प्रिय , हृदय हर्ष , रोम स्पर्श , संगीत होता है | - भक्ति की चेतावनी - 1241
  • आह को अलविदा किया या अल्लाह | - भक्ति - 1241
  • कभी विकास करता है कभी विनाश | प्रकाश क्यों नहीं देता कि आकाश पाताल एक हो जाये | - भक्ति - 1242
  • संग हुआ , गीत प्रेम के हैं , संगीत मुखरित | संग हो तो संगीत अन्यथा कर्ण प्रिय तो प्रिय को भी भुला देता है | गीत निरर्थक , जो सोये हुए प्रेम को न जगा पाये | - भक्ति की चेतावनी - 1242
  • समय बीता निरर्थक निन्दा स्तुति में , अब समय ही न रहा , आत्म-चिन्तन , आत्म-दर्शन के लिए | परिणाम पश्चाताप | - चेतना - 1242
  • वीण भी एक साज है | क्षीण मधुर आवाज है , एक श्वास एक अनहद | साधना इन्हें प्रकाश में लाती है | - चेतना - 1243
  • चुप क्यों बैठा है ? शान्ति के लिए | शान्ति में प्रेम रस के दर्शन कर , रंगीन दुनिया नजर आये | - भक्ति की चेतावनी - 1243
  • प्रिय के लिये धनुष धारण किया और मुरली भी | मुरली की धुन आज भी गूँज रही है और धनुष तो मर्यादा में बँधा रहा | - भक्ति - 1243
  • मुक्त क्यों हुआ संयुक्त ? कुछ विनोद की इच्छा थी , वह भी आज पूरी हुई | - भक्ति - 1244
  • माला तैने पहनी मुझे मिले पत्ते | ऐसा क्यों ? तेरी माला कब मेरे गले में होगी ? जब तू मेरा होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1244
  • संग है और संग था , किन्तु प्रसंग कुछ ऐसा चला की संग की बात ही भूल बैठा , सत्संग ही भूल बैठा | अब ? बीत चला सब ( समय ) याद आई तब | - चेतना - 1244
  • प्रभात में पक्षियों का कलरव यदि सुखद न हुआ तो सायंकाल लौट कर आनेवाले प्राणी के प्राणों को शान्ति कहाँ ? प्रकृति का सूक्ष्म उपदेश संकेत है , प्रसन्नता का | - चेतना - 1245
  • ताप और पाप में यदि आप लगे रहे तो जीवन अभिशाप है | दिल पर यदि प्रेम की छाप है तो सब माफ है | - भक्ति की चेतावनी - 1245
  • मर्म क्यों नहीं समझाता ? क्यों आवरण डाल रखा है ? जिज्ञासु के लिये मर्म सरल , अन्य धर्म की बातें करे | - भक्ति - 1245
  • मैं किस योग्य कि हवन में भाग ले सकूँ और भाग्य का लेखा जोखा बलि दे , शाँत हो सकूँ ? - भक्ति - 1246
  • गाली की गोली दिल पर लगी तो दिल बेचैन हो उठा | गा प्रभु का नाम यदि ली शरणागति तो गोली निरर्थक | - भक्ति की चेतावनी - 1246
  • इच्छा थी या आज्ञा या कर्म बंधन कहना कठिन किन्तु कुछ देखा कुछ समझा | किन्तु समझ बेहाल | अच्छा है , यात्रा है कहीं न कहीं तो इसका अंत होगा ही | - चेतना - 1246
  • साथी देखे जो स्वार्थी थे | भक्त देखे जो परमार्थी न थे | अब किसे देखा जाये - जहाँ स्वार्थ प्रधान , परमार्थ उपेक्षित | - चेतना - 1247
  • उदर की पूर्ति क्षणिक , मन पर प्रेम मूर्ति विराजमान हो तो उदर और मन के लिए इधर-उधर न भटकना पड़े | - भक्ति की चेतावनी - 1247
  • दो को देखा प्रेम हो गया | एक में तो लीन होना है , प्रेम ही प्रेम है | - भक्ति - 1247
  • यह किसके विरह की आवाज है जिसने सूक्ष्म जगत को ध्वनित कर रखा है ? मीरा , राधा जैसी अनेक पवित्र आत्मा आज भी अपने मोहन के लिये तड़प रही हैं | - भक्ति - 1248
  • धुआँ दुनिया के लिए , रोटियाँ मेरे लिए | तुम स्वार्थी हो | धुआँ मेरे लिए , रोटियाँ दुनिया के लिए | तुम परमार्थी हो | - चेतना - 1248
  • लता ने वृक्ष का आधार लिया और वृक्ष ने मूल का | मूल ने रस का और रस ने रसेश्वर रासवाले का | तू भी आधार खोज , मूल को भूल मत | मूल की भूल त्रिशूल | तीन लोक और तीन काल में भी शान्ति नहीं , यदि मूल ही को भूल बैठा | - भक्ति की चेतावनी - 1248
  • रज पर भी वृष्टि हुई थी सृष्टि हुई थी चमक थी , दमक थी किन्तु सागर के वियोग ने शुष्क बना दिया | लता द्रुम गुल्म को धारण करना भी कठिन | आधार रहित शुष्क प्राणी बंजर बन बैठा | - भक्ति की चेतावनी - 1249
  • पूर्व की कथा कहूँ कि पश्चिम की ? न पूर्व की न अपूर्व की | पूर्व अनावश्यक , अपूर्व पर विश्वास करेगा कौन ? - चेतना - 1249
  • तेरी प्राप्ति क्या नाम भी लेना कठिन | कैसा युग धर्म है | - भक्ति - 1249
  • वह है दानी , इधर है नादानी कि उसके दान की कीमत न की | - भक्ति - 1250
  • प्यार करते देखा , दिल का गुब्बार कहते देखा , किन्तु दोनों ही मन की क्रिया थी | प्यार न था , थी वासना कामना | प्यार न था | प्यार दिल दिमाग पर अधिकार करता है | - चेतना - 1250
  • मुड़ जाना अच्छा कि मुरझाना ? मुरझाने के पश्चात ही पश्चाताप है यदि आलाप आनन्द से नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1250
  • भीड़ देखी , भीड़ में पड़े देखे - भीड़ हटी , अब शांति ही शांति है | - चेतना - 1251
  • तुम्हारी साध ? आनन्द का प्रसाद | फिर अवसाद | क्यों बरबाद ? वर बाद तो बरबाद , नाशाद फरियाद का क्रम तो चला आ रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1251
  • विकलता में ही यदि प्राण पखेरू उड़ गये तो शांति कहाँ ? शांति थी और शांति है | कहाँ ? प्रिय के चरणों में | - भक्ति - 1251
  • यह कैसी जलन है जो आँखों के जल से भी शांत न हो पाई | यह प्रिय की जलन है जो युगों से जलती आई है और एक दिन मिलन में ही शांत हो सकेगी | - भक्ति - 1252
  • घण्टा बज रहा है प्रकृति का , सुननेवाले अति अल्प , दुनिया के लोगों की आवाज ने मनुष्य का होशोहवास गुम कर रखा है | इन्सान परेशान | - चेतना - 1252
  • चिन्ता को चिता पर रख | नवीन जीवन तेरी प्रतीक्षा कर रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1252
  • किसकी निन्दा करूँ या प्रशंसा , यहाँ तो सभी अपनी अपनी कहने में लगे हैं | ये न होंगे तो संसार सूना हो जायेगा | बड़े भोले हैं , यहाँ कितने आये और यों ही चल बसे | - चेतना - 1253
  • विज्ञानी पार्थिव तत्वों में लगे , ज्ञानी सूक्ष्म दर्शन में , भक्त भजनों में , प्रेमी प्रेम में , अब मैं क्या करूं ? ‘ मैं ‘ को मुझे अर्पण कर तू कर्त्ता बन बैठा | अतः कर्म फल ही सम्मुख है | - भक्ति की चेतावनी - 1253
  • प्रेमाश्रुओं की धारा ने जब प्रिय का चरण स्पर्श किया तो गंगा बन गई | धन्य है प्रेम | शिव धारण कर काम को शांत कर सका | फिर तो जिसने अपनाया मुक्त हो गया वासना बन्धन से | - भक्ति - 1253
  • प्रेम तू मुझसे कर | सेवा मेरे बच्चों की | जीवन मेरा , यही तेरा समर्पण है | - भक्ति - 1254
  • पागल तू जीव बन कर बैठ गया | अब मैं क्या करूँ ? तू जीव नहीं शिव है विश्वास क्यों नहीं होता ? - भक्ति की चेतावनी - 1254
  • चल बसे ? बसे थे कभी , अब तो चलते बने | बने कि बिगड़े यह कहना भी कठिन है | - चेतना - 1254
  • लहरे स्वयं ही प्रसन्न होती , अन्य जनों के प्रोत्साहन का कारण बनतीं , किन्तु वायु में आयु बिताने वाला समझ न पाया कि ये क्यों प्रसन्न है ? वायु ने तो प्राण तो दिये , लहरों की तरह प्रसन्नता न दी | - चेतना - 1255
  • रक्त के प्रत्येक बिन्दु में बन्धन की भावना तो वन्दन कब करेगा ? - भक्ति की चेतावनी - 1255
  • विरही बसन्त कब शांत हुआ ? जब उसने समर्पण किया विरह का मिलन में | ज्ञानी कहने लगा - लीन हो गया , विरह शांत हो गया | - भक्ति - 1255
  • रह रहकर बेचैनी मिलन के लिए , क्या इसी का नाम विरह है ? - भक्ति - 1256
  • कण कण में प्रेम छिपा है | आवरण हटा , प्रेम के दर्शन होंगे | जीवन सफल होगा | वृथा प्रकृति का दास बना , उदास बना बैठा है | - भक्ति की चेतावनी - 1256
  • पुराने विचार पुरानी मदिरा की तरह हैं | लोग इन्हें ( विचार को ) संस्कार कहते हैं | और ये नवीन ? इनका परीक्षण हो रहा है | - चेतना - 1256
  • जिसे देखा नहीं , उसका विश्वास कैसे किया जाये ? देख कर भी विश्वास करना सरल नहीं | - चेतना - 1257
  • कल्पना ने सृष्टि की रचना की | साकार हुई सफल | निराकार हुई विफल | निराकार की कल्पना साकार में सफल | - भक्ति की चेतावनी - 1257
  • मैं रह नहीं पाता तुम्हारे बिना , क्या इसीका नाम विरह है ? - भक्ति - 1257
  • रहना जगत में सहना सब कुछ | फिर भी रह नहीं पाता , क्या इसी का नाम विरह है ? - भक्ति - 1258
  • दिया क्या जो मांगता है ? मल क्यों बना ? निर्मलता को भूल बैठा | - भक्ति की चेतावनी - 1258
  • आनन्द की वृष्टि , हुई सृष्टि | कर के भी दम न लिया , मिला कर्दम | वृष्टि नभ से , कर्दम भू से , कीचड़ जब दलदल बना तो समझ पाया कि क्यों दल बनाया कर्म का , धर्म का | - चेतना - 1258
  • ध्वनि सुनने वाले देखे , धुन के पागल भी देखे , किन्तु धनवालों ने तो कमाल कर दिया , इन्हें धन के अतिरिक्त कुछ न चाहिये | अति रिक्त है इनका हृदय , उसे धन से भरेंगे | - चेतना - 1259
  • पुकार , खुला द्वार , सम्मुख प्रेम का अवतार | अब लगातार न जीवन बार - बार | - भक्ति की चेतावनी - 1259
  • क्यों रहने को कहता है यहाँ जहाँ तेरा नाम लेना दुश्वार है | तू कहता है रह , रह मेरे नाम पर किन्तु फिर भी रह नहीं पाता तेरे बिना , क्या इसीका नाम विरह है ? - भक्ति - 1259
  • रह दिल में आँखों में | तुझे विरह पसन्द क्यों ? विरह वह विरवा है जो आँसुओं से तर रहता है , लम्बी आहें उसका अमर इतिहास है | - भक्ति - 1260
  • पुराने वस्त्र तो बदले किन्तु पुराने विचार ? फिर तो वस्त्र ही बदलता आया , जहाँ गया असन्तोष , घृणा के ही दर्शन किये | प्यार करता तो जीवन सार्थक न होता | - भक्ति की चेतावनी - 1260
  • साधु बना भावना से , चोर बना दुर्भावना से | यदि भावना न रहती तो शायद भव भी न रहता | - चेतना - 1260
  • चलता घोड़ा थका किन्तु मन न थका | थकाता रहा तन को किन्तु खुद मौज भी करता तो अच्छा था | हाय रे मन , तेरी चंचलता ने तुझे भी विकल किया | - चेतना - 1261
  • रंग न दिखलाओ , रंग लो अपना दिल कि दिल में तमन्ना न रह जाये | - भक्ति की चेतावनी - 1261
  • प्यार की कद्र यार ( भगवान ) करता है | स्वार्थी इन्सान क्या करेगा ? - भक्ति - 1261
  • नग्न व्यग्रता विह्वलता है , जो छिपाये न छिपे | - भक्ति - 1262
  • है अनुराग जो खेलेगा फाग ? कादा , कीचड़ ही उछाला धर्म , कर्म के नाम पर | अंग अंग में प्रेम तरंग , तब जमे रंग | - भक्ति की चेतावनी - 1262
  • काली की शक्ति देख गौरी शर्माई | गौरी ने सेवा की शिव की काली ने काल का रूप धारण कर राक्षसों का हनन किया जो तन , मन को सता रहे थे | - चेतना - 1262
  • फिर लेखनी चली खिली दिल की कली | बात है भली , जब आँखें खुलीं | - चेतना - 1263
  • क्या प्रेम करेगा जब वासना ही नहीं शान्त ? वासना है , वास है , उदास है , प्रवास है , संन्यास अति दूर | - भक्ति की चेतावनी - 1263
  • प्रकृति के पुजारियों ने रंग बरसाया काला , पीला , नीला | प्रभु के प्यारों ने प्रिय के प्राणों में रँग डाला अपने प्राणों को , यही उनकी साधना थी | - भक्ति - 1263
  • पूजा करने दे दुनिया | मेरा आराध्य आया | बन्धन मुक्त न हो जायेगा , ऐसा मैं क्यों होने दूँगी ? - भक्ति - 1264
  • फिक्र क्यों ? फक्र कर कि तू इन्सान है , खुदा की शान , बेजबान नहीं , बाजवान है | तेरी पुकार , कब बेकार ? - भक्ति की चेतावनी - 1264
  • कुछ न कह , कुछ न बोल , दुनिया बुरा मानेगी | इसने किसी की न सुनी , इसीलिये है उनमनी | - चेतना - 1264
  • संकीर्णता धर्म में , संकीर्णता कर्म में | कम न हुई , कम न हुई जब तक तेरा न बना | - चेतना - 1265
  • प्रथम - प्र - प्रणाम कर आत्मदेव को | थ - थर्राना छोड़ | म ‘ मैं ‘ का अहंकार समर्पण कर प्रभु पाद पद्मों में | - भक्ति की चेतावनी - 1265
  • तेरा रंग देखकर घबड़ाता था जब तक तेरा न था | आज रँगीली दुनिया है क्योंकि तू मेरा है | - भक्ति - 1265
  • किसी ने मुझे झुका दिया | उम्र ने , निराशा ने , या प्यार ने ? पूछ दिल से | - भक्ति - 1266
  • संवेदन जड़ में चेतन में , तन में , मन में | फिर जलन क्यों ? विरह क्यों ? मिलन क्यों ? आवागमन क्यों ? यही क्रम है जिसे भक्ति प्रेम का विक्रम ही शान्त करता है | - भक्ति की चेतावनी - 1266
  • तेरा तो बना बनाया था | मेरा न बना था जब तक बदहोशी में था | - चेतना - 1266
  • शुक्र है खुदा का बन्दा तो बना | नहीं तो अंधा था - विचारों से गंदा था | - चेतना - 1267
  • श्वास वायु में भी , शरीर में भी | शरीर की वायु पांच प्रकार की | और यह ( वायु ) एक की | एक राखे टेक | - भक्ति की चेतावनी - 1267
  • तुम ने मुझे सब कुछ दिया किन्तु मैंने तुम्हे " मैं " न दिया | - भक्ति - 1267
  • तैयार - तय यार ( प्रभु ) तो आनन्द तैयार | क्या विचार , क्या आचार ? प्रेम का संचार फिर पार | न यह पार , न वह पार ( आवागमन ) . - भक्ति - 1268
  • नाम की महिमा जब अनामी ने सुनाई , प्राणों में उल्लास | कामी नाम का प्रभाव क्या जानें , जहाँ भाव ही अभाव बना बैठा है | - भक्ति की चेतावनी - 1268
  • पहाडी मार्ग का सा जीवन बीता कभी नीचे , कभी ऊपर | थका और चल बसा | कभी बसा था अब चल बसा | - चेतना - 1268
  • वे भी मनुष्य थे जिन्होंने पहाड़ी पथ की तरह ऊँचा नीचा देखा किन्तु शिखर उनके पद तल था और ऐसे भी अनेक हैं तथा थे जिनका उत्थान , पतन हुआ और नीचे ही पहुँचे | - चेतना - 1269
  • प्रिय , पास , फिर क्यों उदास ? विश्वास नहीं - उदास ही उदास | - भक्ति की चेतावनी - 1269
  • भक्त से बातें करने चला तो बोला मुझे भजने दे | त्यागी से बातें की तो बोला मुझे , त्यागने दे | ये बातें क्यों नहीं करते ? किसी में मग्न हैं | - भक्ति - 1269
  • योगी ही वियोग को जानता है | जो चला ही नहीं प्रेम मार्ग में वह क्या योगी होगा , क्या भोगी होगा ? - भक्ति - 1270
  • गुण गाये अवगुण के , सगुण के , निरगण के , शान्ति कहाँ ? शान्ति है प्रशांत चित्त में जहाँ शान्ति शयन करती ( मन की ) चंचलता शमन करती , शरीर की निरर्थक हरकतों का दमन करती | - भक्ति की चेतावनी - 1270
  • मन गया हार ये कैसे संस्कार जो मुझे ही जलाते रहते हैं | मौजी मन , खोजी कोई और होगा | - चेतना - 1270
  • आ धत्त तेरे की क्यों आदत से घबड़ाता है | अरे यहाँ तो यों ही ( प्राणी ) आता है और यों ही जाता है | इस आने जाने का लेखा दुनिया वाले करें और सर खपायें | - चेतना - 1271
  • दामन न छोडूँगा जब तक मन , तन का शमन , दमन न हो | प्रथम यह तो देख मन कहाँ भटक रहा है ? - भक्ति की चेतावनी - 1271
  • पात्र भी है अन्नपूर्णा भी | या माँग या वरदान दे | दोनों ही शिव का रूप है | - भक्ति - 1271
  • विरह के गीत गाकर कवि प्रभुदित किन्तु भक्त रह न सका गा कर | विश्राम कहाँ ? आराम कहाँ , जब तक विलीन न हो जाये प्रिय में | - भक्ति - 1272
  • पत्र देखा तो प्रश्न उठा - चढ़ाऊँ या लिखूँ ? चढ़ा दिल , गया खिल | लिखेगा क्या ? लिख दिया लिखने वाले ने | प्यार कर , अब लिखना क्या , पढ़ना क्या ? - भक्ति की चेतावनी - 1272
  • मां नहीं कहती कि मा ला | मां है वह अन्य मां के लिये कहना ही नहीं बनता | दुनिया कहती है कि माला ला , माल ला | माला फेर | दुनिया को फेर में डालकर ( मनुष्य को ) क्या मिला ? - चेतना - 1272
  • कैसी वाणी ? यह तो वाणी का खिलवाड़ है | अच्छा ऐसा ही सही अन्य खेलों से तो अच्छा है | - चेतना - 1273
  • हिमालय में तेरा आलय | आलय सर्वत्र | आ , ले प्रसाद , मिटे विषाद़ | विषय विष नहीं , भावना विष अमृत | - भक्ति की चेतावनी - 1273
  • कमल चाहता हूँ , कलम चाहता हूँ | खिलूँगा और लिखूँगा तेरे गीत | - भक्ति - 1273
  • भक्त ने आँसू बहाये , दुनिया हँसने लगी | दुनिया ने आँसू बहाये , भक्त हँसने लगा | अच्छी दिल्लगी रही , एक दूसरे को समझ न पाये | - भक्ति - 1274
  • छल बल कहाँ तक साथ देगा ? एक दिन जब कहेगा मैं निर्बल , उसी दिन होगा सबल | बल बलवाले का तू तो बातें बनाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1274
  • प्रश्न - बार-बार प्रश्न करता रहा जगत से कि कहीं मेरी प्रसन्नता का भी तुझे ध्यान है या चक्कर में डाल कर बाध्य करना निरर्थक कार्यों के लिये , यही तेरा काम है ? प्रश्न - प्रश्न ही रहा | उत्तर जगत ने किसी को न दिया वह तुझे क्याें देने लगा | - चेतना - 1274
  • दूर वाला बुलाये , नजदीक वाला पूछता भी नहीं तू कैसे दिन बिता रहा है | वाह री दुनिया यह उपेक्षा क्यों ? - चेतना - 1275
  • तन कर खड़ा न हो यह तन है जिसका पतन अवश्यम्भावी है | नत हो जा , पतन का भय न रहेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1275
  • हे शंख , चक्र , गदा , पद्मधारी ! बजा शंख कि मोह निद्रा दूर हो | चला चक्र कि संशय छिन्न - भिन्न हो , उठा गदा कि विकार पलायन करे और खिला हृदय कमल कि तेरे पद - पद्मों पर प्राण न्यौछावर हो | - भक्ति - 1275
  • एक पत्थर से भी काम लिया , एक फूल ने भी कितनों के दिल खिलाये किन्तु मैं किस काम आया ? जब कि मैं तेरा ही एक अंग हूँ | - भक्ति - 1276
  • संसार , आहार , विहार , प्रहार , संहार पाँच शब्दों में पंच भौतिक प्राणी भ्रमण कर रहा है | हार अन्त में | हार पहनाता स्वयं को या ठाकुर को तो जीवन उपहार होता | - भक्ति की चेतावनी - 1276
  • अच्छा है तेरी उपेक्षा ही भली | भ्रम में न पड़ जाना - तेरी ( दुनिया की ) और तेरी उपेक्षा ने ही तो बेहाल कर रखा है | - चेतना - 1276
  • सीधा चले तो गुण , उलटा चले तो अवगुण | गुण , अवगुण का मर्म ? उलट-पुलट शंका सब जारी | मर्म समझा | - चेतना - 1277
  • दिल मिला है तो क्या छटपटाने के लिये ? दिल मिला कहाँ यदि मिलता तो शान्ति , शान्ति ही रहती | - भक्ति की चेतावनी - 1277
  • अंग अंग में वह रंग भर दे कि जान न पाये तू संग है | नहीं तो क्यों दुनिया बसाई जब तुझी को न जान पाई | - भक्ति - 1277
  • मेरा सर चकरा रहा है , दिल घबड़ा रहा है | क्यों ? तू जाने | यह अशांति संसार के लिये या मेरे लिये | - भक्ति - 1278
  • लोभ को त्याग में , द्वेष को मैत्री में , मोह को ज्ञान में बदल डालो , साधना द्वारा यह महात्मा बुद्ध का कथन है | ये विचार कभी विकार बनकर अशांत करते हैं तन को मन को | सरल सहज साधन प्रणय का , नय का है जहाँ दुनिया बदल जाती है | - भक्ति की चेतावनी - 1278
  • कनक की सनक अधिकांश को | किसी किसी के भनक भी पड़ती है कानों में उस नृत्य की जो प्रकृति पुरुष का सहज विनोद है | - चेतना - 1278
  • क्यों रोऊँ ? रव सुनूँ ऊँ की कि रोना धोना छूट जाये | आनन्द आनन्द करता और कहता भव में विचरण करूँ | - चेतना - 1279
  • प्रभु है , यह उनसे न कह जिनके हृदय में विश्वास नहीं | भक्त है , यह उनसे न कह जिनके दिल में प्रेम नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1279
  • उत्साह ठण्डा पड़ गया ? क्यों ? तू ही जाने | - भक्ति - 1279
  • मिट्टी पर जल पड़ने लगा | लोगों ने कहा जल गन्दा हो गया | मिट्टी , मिट्टी ही रहती | जल ने मिट्टी को उर्वरा बनाया | - भक्ति - 1280
  • सूर्य तुझे अर्ध्य समर्पण करूँ ? अर्ध्य नहीं अघ की भावना समर्पित कर | फिर प्रकाश ही प्रकाश है | - भक्ति की चेतावनी - 1280
  • सुना बद्री विशाल | देखा माया का जाल | बद्री फल खट्टा | विशाल कहाँ , महा जंजाल | - चेतना - 1280
  • कृतज्ञता दूर करती है अज्ञता मन की | कृतघ्नता ने मनुष्य को अंधा बना दिया और दिया कुछ ऐसा भाव कि अभाव ही अभाव दिखलाई देने लगा | कृतज्ञ होता तो प्रकाश पाता मन का | - चेतना - 1281
  • सर्वव्यापी की ध्वनि भी एक - धर्म भी एक - कर्म भी एक | प्यार कर धर्म , आनन्द मना कर्म | - भक्ति की चेतावनी - 1281
  • अंधकार था , अंधा था , विचारों में बँधा था अनेक जन्मों से | तेरी एक झलक ने पलक मारते ही प्रकाश फैलाया | - भक्ति - 1281
  • तू रोता क्यों है ? रोता नहीं दिल धोता हूँ | - भक्ति - 1282
  • वेद शास्त्र की चर्चा ही महाज्ञानी बना देती है मन चाहे छटपटाता हो , चित्त चिन्ताकुल हो , ज्ञानी तो हैं ही | अढ़ाई अक्षर का भी अनुभव होता तो शांति मिलती | - भक्ति की चेतावनी - 1282
  • बनाने वाले ने बहुत कुछ बनाया किन्तु लेने वाले ने कुछ ही माना बहुत नहीं | शांति मिले कैसे ? - चेतना - 1282
  • कुछ बुलबुले उठे दिल में | यह आशा थी | कुछ निरर्थक बेचैनी भी हुई | यह निराशा थी | - चेतना - 1283
  • संग प्रिय , प्रसंग प्रिय , अनंग प्रिय , संगीत प्रिय , सत्संग प्रिय हो तब न प्रिय का प्रसंग प्रिय हो | - भक्ति की चेतावनी - 1283
  • दुनिया दफनाती रही सत्य प्रेमी को किन्तु असफल ही रही | किसी न किसी रूप में आज भी पुजारी प्रेम प्रार्थना में लीन है | - भक्ति - 1283
  • अबोध हृदय में प्यार गुनगुना रहा है | वाह रे प्यार , यार तेरे खेल अनोखे , चाहे जिसे तू अमर कर दे | - भक्ति - 1284
  • इतना प्यार है कि लुटाता जा , आनन्द पाता जा | यहाँ रोने से ही फुरसत नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1284
  • मेरे दिल को न छेड़ दुनिया , तेरे ही कारण परेशान हूँ | तुझसे भी कोई महान है उसी का कृपा पात्र बनने दे | - चेतना - 1284
  • दिव्य मूर्ती को न देख , दिव्य भाव को देख जहाँ सर्वदा दिव्यता क्रीडा करती रहती है | - भक्ति की चेतावनी - 1285
  • दिल फड़क उठता है जब कोई प्यार से पुकारता है | तुम महान हो , प्रभु हो | यदि कोई बंदा ऐसा कहता तो गंदा समझा जाता | - भक्ति - 1285
  • कौन का प्रयोग क्यों ? अनजान प्राणी क्या करे ? प्रश्न ही उसका कार्य | - चेतना - 1285
  • धन देता है तो अपना प्यार छीन लेता है और प्यार देता है तो धन | ऐसा क्यों ? एक म्यान में दो तलवार कैसे रहे ? - भक्ति - 1286
  • मैंने तुम्हें प्रेम दिया , तुमने संदेह किया | अवसर दिया , लाभ न उठाया , फिर अपराधी कौन ? - भक्ति की चेतावनी - 1286
  • पूजा किसकी ? अपने आराध्य की | दिल से दिमाग से या केवल हाथ से | सब का परिणाम भिन्न भिन्न है | - चेतना - 1286
  • स्नेह बड़ों का , प्रेम समान हृदय का | कर्त्तव्य में क्रिया प्रधान , प्यार में प्यार ही प्यार | - चेतना - 1287
  • बद्ध हो , नहीं तो वध सम्मुख है | - भक्ति की चेतावनी - 1287
  • मैं भी नर हूँ यदि प्यार में तुझे बानर बना कर न नचाऊँ तो मेरी हार | प्यार ही का भूखा है न , ले प्यार | - भक्ति - 1287
  • बुरा क्यों मानता है ? प्यार में भला , बुरा कुछ नहीं रहता | - भक्ति - 1288
  • इन कृतघ्नियों की क्या दशा होगी ? ये रोयेंगे , कलपते रहेंगे , फिर यहीं आयेंगे | - चेतना - 1288
  • दूध को जल में न मिला , सड़ जायेगा | नवनीत जल में है सड़ना गलना कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1288
  • भवन है मूर्ति कहाँ ? मूर्ति है प्रेम कहाँ ? प्रेम मूर्ति बनाता उसी में समा जाता | - भक्ति की चेतावनी - 1289
  • प्रत्येक भी एक को ही बतलाता है | एक के प्रति ( भाव ) प्रत्येक | “ हरेक “ भी , एक ही हरण करने वाला है , सुख-दुःख का भाव जताता है किन्तु दुनिया कहाँ मानती है ? अर्थ का अनर्थ करना ही शायद दुनिया का काम है | - चेतना - 1289
  • तू नारायण है तो मैं भी नर हूँ | पत्थर की पूजा भी तेरे नाम पर न करवा दूँ तो नर नहीं | - भक्ति - 1289
  • झगड़ मत , दुनिया हँसेगी कि ये कैसे भक्त और भगवान हैं | - भक्ति - 1290
  • उपकार और अपकार में प्रथम और पंचम अक्षर का भेद है | पंचम स्वर कोकिला है | कोयल बोली , जड़ में चेतन जाग्रत | उपकार महान | - चेतना - 1290
  • अग्नि जल को पाकर क्यों शान्त हो जाती है ? माता पुत्र की उपस्थिति से ही तृप्त , शान्त , आश्चर्य क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1290
  • उपेक्षा आज उत्सुकता बनी | जिन्दगी की ताजगी है या निरर्थक भ्रमण ? क्या उत्तर दिया जाये ? जिन्दगी जिन्दा दिली है | - चेतना - 1291
  • दौड़ती हुई घड़ी को देख कर कहा - घड़ी भर ठहर विश्राम कर लूँ ? विश्राम कैसा ? दौड़ता चला आ लक्ष्य दूर , समय कम | - भक्ति की चेतावनी - 1291
  • दुनिया की चिंता तू कर , क्योंकि तू भगवान है | मुझे तो तुझसे काम है | - भक्ति - 1291
  • शांत भी रह , इतना झगडा अच्छा नहीं | शांति किसी और को दे | यदि तू भी प्यार का भूखा है तो मैं भी तेरे प्यार का भूखा हूँ | - भक्ति - 1292
  • रिमझिम सावन की वर्षा आई | भाद्रपद ने कहा - भद्र पद पर अर्पण कर चिन्ता , अब प्रेम की वर्षा नयनों द्वारा होगी | - भक्ति की चेतावनी - 1292
  • क्रिया , क्रिया में बदली | कर्म , मर्म में बदला | किन्तु यह कैसा प्रकृति का खेल है कि बदल कर भी शांत न प्राणी और न प्रकृति | - चेतना - 1292
  • अदृश्य और दृश्य दो जगत हैं | अदृश्य पर अविश्वास और दृश्य पर कैसे अविश्वास करे | उस मनुष्य के विश्वास की क्या कीमत जो प्रतिक्षण शंका के झूले में झूलता है | - चेतना - 1293
  • संगीत - रीति , प्रीति , नीति को भुला हृदय तन्त्री बजा देता है | - भक्ति की चेतावनी - 1293
  • किसी से दिल की कहता हूँ तो दिल्लगी उड़ाता है | क्या तू भी दिल्लगी उड़ाता है ? बुरा क्या है ? दिल बहल जाता है | - भक्ति - 1293
  • विजय विजया गँवार को न दे | तो क्या होशियार को दूँ जो किसी को कुछ भी नहीं समझता ? - भक्ति - 1294
  • जहाँ अवतारी को भी शरीर छोड़ना पडा वहाँ साधारण व्यक्ति शरीर का क्यों मोह करता है ? क्या करे कीचड़ में पडा है विचारों के | मोह तो होगा ही | - चेतना - 1294
  • प्रिय का तार संसार | कर विहार , नहीं तो आया संहार | संसार का व्यवहार जिसे समझा व्यय हार | चिल्लायेगा कर बेड़ा पार , नैया मझधार | कर प्यार होगा पार | न है इस पार न है उस पार | कर प्यार प्यार प्यार | - भक्ति की चेतावनी - 1294
  • मुक्ति एक के लिये अनेकों से | एक में अनेक देख तो मुक्ति से मुक्त | - भक्ति की चेतावनी - 1295
  • माया को बदनाम करना व्यर्थ है | यह तो मानव प्रकृति का खेल है जिसे मानव माया कहकर उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता है | - चेतना - 1295
  • निस्तब्ध रात्रि में तेरे ओष्ठ हिले , प्राणों में नवीन स्फुरणा | तुम कौन हो जो नीरवता में प्रेम संदेश सुनाते हो ? ( तेरी उपासना ) - भक्ति - 1295
  • किसने मेरे प्राणों को स्पर्श किया ? ( तेरी साधना ) - भक्ति - 1296
  • मन आज नमन कर , तन आज स्वस्थ हो जा | आज संत आया है , बसन्त आया है | वह सन्त आया है जो अनन्त से मिला कर अनन्त तक साथ देगा | - चेतना - 1296
  • विवश है व्यक्ति यदि मन बस में न हो | प्रत्यक्ष है संसार अप्रत्यक्ष है प्रतिमा प्रीतम की , यदि मन में बसी तो विवशता विवश हुई विस्मृति में | - भक्ति की चेतावनी - 1296
  • व्याकुल है आकुल है | वह कूल यही है जहाँ मिट्टी सोना बनाती है | कूल समीप डूबने का भय त्याग कर | त्याग , कर का त्याग कर | - भक्ति की चेतावनी - 1297
  • एक चक्र है प्रकृति का , एक चक्र है मन का | रचनहार ने हार न मानी | बनाता जाता है , प्राणी लय होते जाते हैं | यह क्रम है सृष्टि का जो कम नहीं होता चलता ही जा रहा है | प्राणी हैरान है | - चेतना - 1297
  • हृदय में प्रकाश फैला | ( तेरा इष्ट ) - भक्ति - 1297
  • यह मिलन व्याकुलता क्यों ? ( तेरी वासना ) - भक्ति - 1298
  • सूर्य अस्त हो जाता है और चन्द्र घटता - बढ़ता जाता है | नक्षत्र कुछ विलीन होकर नवीन होते हैं | यह भी सृष्टि का चक्र है | इन चक्रों का खेल , खेल देखने तथा समझने वाले भी अति अल्प | वाह रे चक्रों का खेल | - चेतना - 1298
  • खुला हृदय - द्वार - हरी - द्वार | बन्द द्वार - बार-बार पुकार | खुलेगा , गुप्त धन मिलेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1298
  • जिधर देखता हूँ , मलिन मुख , निराश भाव | यह कैसा भव है जिसमें भाव नहीं - केवल रोना , कुछ भीतर , कुछ बाहर | खिले फूल दिखला कि शांति मिले | तेरी सृष्टि फिर विचारों से गन्दी क्यों ? - चेतना - 1299
  • द्वार एक जो दरिद्र के लिये भी सदा खुला रहता है | वह हरिद्वार - वहाँ भी भीख माँगता रहा तो धिक्कार है - धन , जन , तन के लिए | - भक्ति की चेतावनी - 1299
  • प्रेम को झूलन क्यों बनाया ? कभी आकाश दिखाता है कभी पाताल | - भक्ति - 1299
  • वर्षा के छींटे पड़े | बरसा कि छींटे पड़े | अब चलना दुश्वार | कौन सुने बेबस की पुकार | - भक्ति - 1300
  • कल जिसे याद करता था आज वह आया छद्म वेश में | काम हुआ किन्तु अहंकार तो बना ही रहा | - भक्ति की चेतावनी - 1300
  • ध्यान लगाने से लगता है यह कृत्रिम ध्यान है | ध्यान लगा हुआ है यह स्वाभाविक ध्यान है | - चेतना - 1300
  • प्रत्येक बात तू काटता रहता है तुझे शर्म नहीं आती ? दाँत से काटता इसी में भला समझो | इसका ( मनुष्य का ) अहंकार भयानक पशु है | दाँत का प्रयोग न कर बात से ही काटता है | - चेतना - 1301
  • प्रेम की जलन , जलन नहीं , वह जीवन है जिसका अभाव जीवन को जड़ बना देता है | - भक्ति की चेतावनी - 1301
  • चिनगारी ने ढ़ेर को जला दिया , फिर भी विश्वास नहीं कि प्रेम की चिनगारी पाप पुण्य के भाव को ही बदल देती है । - भक्ति - 1301
  • दर्शक बहुत आये , खिलाड़ी कम | लाड़ ने खिलाड़ी बनाया नहीं तो वह भी चलता फिरता नजर आता | - भक्ति - 1302
  • मछली में दुर्गन्ध है कि मछली खाने वाले में | खाने वाला दुर्गन्ध को बुलाता है , मछली दुर्गन्धपूर्ण हो भी तो प्रयोग न करने वाला क्यों चिन्तित ? - चेतना - 1302
  • शरीर को कष्ट देकर योगी बन सकेगा ? शरीर को भोग में लिप्त कर भोगी बन सकेगा ? योग , भोग प्राणों का , जहाँ अमरता है | - भक्ति की चेतावनी - 1302
  • पत्थर में भगवान किसने देखा ? भक्त ने | मानव में भगवान किसने देखा ? भक्त ने | अन्य क्यों नहीं देख पाते ? बुद्धि विद्या के अहंकार ने उनको अंधा बना दिया | - चेतना - 1303
  • भोग की जलन शांत न हुई , शरीर शांत हुआ | प्रेम में भी जलन है प्रकाशमय | - भक्ति की चेतावनी - 1303
  • हिमालय ! पहले तेरे पास योगी जाते थे अब भोगी | तेरे लिये दोनों ही समान | कोई आये , कोई जाये तू तो अपने प्रिय के ध्यान में लगा है | - भक्ति - 1303
  • तल्लीनता में ही आनन्द है चाहे विषय में हो , चाहे भगवान् में हो | - भक्ति - 1304
  • भीख भी सीख है | कैसे ? भीख महान से , सीख महान से | - भक्ति की चेतावनी - 1304
  • होश हो कहाँ से , अहंकार ने अच्छे-अच्छे विद्वानों को धूल चटा दी | यह अहंकार है जो किसी-किसी को प्रधानता देता है | - चेतना - 1304
  • भक्त भी क्या अहंकारी होता है ? हाँ , यदि भक्ति का मर्म न समझे | नकल असल से भयानक | स्वयं को धोखा देता और अन्य जन को धोखे में डालता | - चेतना - 1305
  • देने में आनन्द है या लेने में ? प्रथम दे - फिर ले | आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति की चेतावनी - 1305
  • जल नहीं पाता इसीलिये शांति कहाँ ? - भक्ति - 1305
  • जलते जलते जल आया आँखों में | अब शांति | - भक्ति - 1306
  • वासना में गंध देखी , प्यार में सुगन्ध पाई | - चेतना - 1306
  • दिल खोजा , दिल पाया | दिल खो बैठा , अब बेचैन | परिणाम ? नाम ले प्रभु का , परिणाम अच्छा ही अच्छा है | - भक्ति की चेतावनी - 1306
  • आदर्श रखा महापुरुषों का | आ , दर्शन दे की भावना न जागी | फिर गृहत्यागी , बैरागी की कथा मन बहलाने का साधन ही न बनेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1307
  • जब मैं इधर देखता हूँ तो भयभीत दुनिया दिखलाई देती है और उधर देखता हूँ तो प्रेम सागर लहरा रहा है | किसी को कहना तो विवादग्रस्त विषय बन जाता है | - चेतना - 1307
  • घृणा कर या प्यार किन्तु हूँ मैं तेरा | पापी नहीं , संतापी हूँ कि क्यों तुझसे बिछुड़ गया ? - भक्ति - 1307
  • रूप नहीं दिखलाता | शायद इतना भद्दा है कि भक्त तुझे पसन्द न करे या इतना सुन्दर कि वह दुनिया की ओर ही न देखे | - भक्ति - 1308
  • एक फक्कड़ को क्यों माना ? दिल ने कहा इस फक्कड़ की पकड़ बड़ी दृढ़ है | यदि पकड़ लिया इसने तो कुछ न लिया , सब कुछ दिया | - चेतना - 1308
  • दिल दे कर पछताया | किसी स्वार्थी से प्यार किया होगा | प्रेम , स्वार्थ परमार्थ से महान क्योकि वह महान में ही त्राण पाता है , प्राण पाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1308
  • जुगनू को चमकते युग बीते | न चन्द्र की शीतलता ली और न सूर्य का तेज | पागल ! तेरी चमक केवल अन्धकारपूर्ण रात्रि के ही लिए नहीं है | आज सूर्य का दर्शन कर , अहंकार विलीन हो | - भक्ति की चेतावनी - 1309
  • दो पैर हैं इन निंदकों के , एक अहंकार दूसरा क्रोध | दो चरण हैं भक्त के , शरणागति और प्रेम | - चेतना - 1309
  • तेरा कैसा आकर्षण है , आ कर सुन पुस्तकों की पुकार नहीं , हृदय की पुकार , जहाँ बड़े छोटे गए हार | - भक्ति - 1309
  • तान सुनी , मान देखा , अभिमान किया किन्तु तेरी शान अनोखी है जहाँ तान , मान , अभिमान झुक जाते हैं | - भक्ति - 1310
  • मौन से क्या लाभ ? निरर्थक वार्ता से उपराम | पूर्ण विश्राम मन का | तन का | - चेतना - 1310
  • साथी दे | साथ ही ले , प्रिय का नाम | जीवन यात्रा सुखद हो | - भक्ति की चेतावनी - 1310
  • मानव है तो मां नाम , नहीं तो मां के नव - नव उपहार न पा सकेगा | हार पर हार होगी , जिन्दगी बेकार होगी | - भक्ति की चेतावनी - 1311
  • निकट आया तो विकट क्यों सिद्ध हुआ ? तामसिक वृत्ति वाले ऐसे ही होते हैं . शिव का पुजारी रावण इसका स्पष्ट उदाहरण है | - चेतना - 1311
  • दिल में आग लगा कर कहने लगा मैंने तो दिल्लगी की थी | यों ही तुमने वियोग के आँसू बहाये | मैं , संयोग में था वियोग में था | - भक्ति - 1311
  • आना ही पड़ा , जब किसी ने पुकारा | जाना ही पड़ा जब किसी ने बुलाया | इसी का नाम जन्म , मृत्यु | - चेतना - 1312
  • चलते श्वासों के तार को न खींच - ऐसी चीख उठेगी , घबड़ा जायेगा | - भक्ति - 1312
  • पद-पद पर नमन , यह कैसा आगमन ? आवागमन से मुक्त होना है तो प्रथम नमन पश्चात् सानन्द गमन | - भक्ति की चेतावनी - 1312
  • दिल मिला था दिल्लगी के लिए या दिल लगी के लिए , जहाँ संयोग ही है वियोग नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1313
  • यह पसीना यह सीना , किसके लिये बेचैन ? जानने वाला ही जानता है | - भक्ति - 1313
  • सान पर चढ़ाया तो शान ( चमक ) आई | अभिमान कैसा ? - चेतना - 1313
  • देवता ! फूल ग्रहण करो | मुझे फूल नहीं , फूल सा दिल चाहिये | - भक्ति - 1314
  • माँगा था आनन्द और मिली चिन्ता यह किसका कुसूर ? सूर बना वस्तुओं के लिए , यह तेरा कुसूर | सुर मिलाता सुरों में , न रहता कुसूर , न होता सूर | - भक्ति की चेतावनी - 1314
  • इन कायरों को देख जिनके लिये काया ही प्रधान माया ही प्रधान | मौत से पद-पद डरते हैं | डरते हैं फिर वही करते हैं | कैसा खेल है | - चेतना - 1314
  • बलि दे उस अहंकार की जो बकरे से अधिक बलबलाता है , भैंसे से अधिक बलवान है | यह बलि , बलि का उपहास मात्र | - भक्ति की चेतावनी - 1315
  • तय यारी ( मित्रता ) है तो तैयारी है - नरक स्वर्ग की यदि कोई हो ( नरक , स्वर्ग ) | - चेतना - 1315
  • बता योगी बड़ा कि भोगी ? तू ही बता कमाऊ पूत अच्छा कि उड़ाऊ ? - भक्ति - 1315
  • शिव ने तुझे क्यों पसन्द किया ? दिल से पूछ तू ने पसन्द किया कि नहीं यह प्रश्न क्यों ? - भक्ति - 1316
  • हिंसा और अहिंसा , तामसिक और सात्विक बच्चों के लिए | मार कर खुश तम को हो , तो उत्तम | मां मां है , वह हिंसा और अहिंसा से परे है | - भक्ति की चेतावनी - 1316
  • संत पंथ ? शान्ति | संत पंथ नहीं बनाता वह तो बताता है वह पथ जो शान्ति का है आनन्द का है | पंथ बनाने वाले वे शिष्य हैं जो सत्य को न समझ , पंथ को ही प्रधानता देते हैं | - चेतना - 1316
  • विचार भाव नहीं मिलते | जिससे मिलते उसी से मिला | मिलाना ही नहीं आता | अहंकारी , निरहंकारी से कैसे मिले ? - चेतना - 1317
  • स्मरण कर तू मां की सन्तान है | यही महामंत्र | मां को भूल किस की गोद में सुख पा सकेगा ? - भक्ति की चेतावनी - 1317
  • कान थी जब कान्ह न था | कान थी जब तक मुस्कान पर मन न रीझा था | आज तो कान्ह ही कान्ह है | - भक्ति - 1317
  • किसी को प्यार न कर | मनुष्य क्या , भगवान को भी न कर , नहीं तो बिक जायेगा , छटपटायेगा | - भक्ति - 1318
  • बूँदें भूमि पर पड़ी मिट्टी | प्रियतम के चरणों पर पड़तीं तो अमर | - भक्ति की चेतावनी - 1318
  • शक्ति व्याप्त है किन्तु उसका रूप ? शक्ति का रूप नहीं होता , कार्य होता है | कैसे जाना ? अनुभव से | अनुभव किसने दिया ? शक्ति ने | मनुष्य प्रधानता देता है अपने को कि मैंने अनुभव किया | - चेतना - 1318
  • यह आडम्बर कैसा ? आडम्बर के बिना भोली चिड़िया ( मनुष्य ) फँसती नहीं | भ्रम में फँसा , जान कर हँसा , यह आडम्बर है | - चेतना - 1319
  • जब घट ही में है फिर विवाद क्यों ? पर लटपट रट लगाने वाला झटपट कैसे समझे ? - भक्ति की चेतावनी - 1319
  • भगवान का प्यार तो और भी मँहगा | भगवा पहना कर छोड़ेगा , भगवान जो है | कुसुमल साड़ी ? वह तो किसी भाग्यशाली को मिलती है ? - भक्ति - 1319
  • देख इसका संसार , जहाँ इसकी पूछ नहीं , और भक्त तो दुरदुराये जाते हैं , फिर भी इसे प्यार करने वाले आते ही रहते हैं | कैसा अनोखा खेल है ? - भक्ति - 1320
  • हठयोग ही क्यों ? हट हाट से ठाट बाट से , फिर बाट है प्रेम राजपाट है | - भक्ति की चेतावनी - 1320
  • बन जाते होंगे किसी युग में | यहाँ तो मठ बन रहे हैं , महल बन रहे हैं और शठ इकट्ठे हो रहे हैं | इन से तो घर ही अच्छा था | - चेतना - 1320
  • अनन्त का अन्त कैसा ? प्राणी के प्राणों का रूपान्तर है , अंत नहीं | शांत सन्त , भ्रान्त भवन | क्लान्त मन क्यों ? कांत के दर्शनाभाव में | - भक्ति की चेतावनी - 1321
  • एक बात देखी , इसे प्यार करने वाले अमर हो जाते हैं , इसी में समा जाते हैं | शायद इसीलिए इस अदृश्य प्रीतम का खेल चला आ रहा है | . - भक्ति - 1321
  • चाँद ने कहा - शीतलता ग्रहण कर | सूर्य ने कहा - ऊष्णता | संध्या ने कहा - मैं मिलन की उपासिका हूँ | मन मिलन का इच्छुक है | ऊष्णता , शीतलता कब बाधक हुई ? - भक्ति - 1322
  • करतार - जीवन तार जिसके कर ( हाथ ) में है | वही करतार ? फिर चिन्ता क्यों ? चिन्ता को चिता का रास्ता दिखा | - भक्ति की चेतावनी - 1322
  • ज्ञान अग्नि है मिथ्या विश्वास के लिए | ज्ञान प्रकाश है सत्य प्रकाश के लिए | किन्तु भक्ति वह योग है जो प्राणदाता में ही समाहित है | - भक्ति की चेतावनी - 1323
  • दुनिया के नशे में था नाश था | तेरा नशा तो उतरा ही नहीं | सड़ी वस्तुएँ पीकर मस्त था बेचैनी थी | आज हरी का हूँ | ताजा हूँ | - भक्ति - 1323
  • राह ने राहत दी | पनाह माँगता था , आह भरता था | तुमने राह दिखाई | अज्ञ हूँ , कृतज्ञ होऊँगा जब पूर्णता प्राप्त होगी | - भक्ति - 1324
  • ज्ञान सीमित , भक्ति असीम | ज्ञान विकास है भक्ति वास है प्राण पति का | - भक्ति की चेतावनी - 1324
  • ज्ञान आकृष्ट करता है विस्तृत विचारों को | भक्ति इष्ट में अस्तित्व हीन हो विलीन हो जाती है | - भक्ति की चेतावनी - 1325
  • लोचन तृप्त हुए जब सुलोचन , अलोचन का अवलोकन किया | आखों में समा गया , दिल में घर किया , अब साधना ? अब साध ना | - भक्ति - 1325
  • सियाराम कहूँ या पियाराम ? राधेश्याम कहूँ या प्यारे श्याम ? प्यार ने अमर बनाया राधा को , श्याम को | - भक्ति - 1326
  • ज्ञान जानकारी करवाता , भक्ति जान , प्राण न्योछावर करती है अपने इष्ट पर | - भक्ति की चेतावनी - 1326
  • ज्ञान ध्यान का समर्थक | भक्ति ध्यान से प्रवाहित | - भक्ति की चेतावनी - 1327
  • कोई आयेगा इसी आशा में भक्तों को जीवित रखा | आज आशा नहीं , प्राण व्याकुल | - भक्ति - 1327
  • खाली जीवन की प्याली | कोई भर दे , कोई सर दे | - भक्ति - 1328
  • ज्ञान में शान अभिमान का स्थान | भक्ति में न ज्ञान , न शान , न अभिमान | - भक्ति की चेतावनी - 1328
  • भक्ति - शक्ति है दीन की हीन की | ज्ञान के अधिकारी तो प्रवीण होते हैं विद्या में बुद्धि में | - भक्ति की चेतावनी - 1329
  • निर्मोही आज निरा मोही कैसे बना ? दिल दिया है , कीमत तो चुकाता ही | - भक्ति - 1329
  • काष्ठवत् होने की अभिलाषा करूँ , भूल होगी | मैं तो सूखा ही था आज हरि को पाकर सूखापन भूला | - भक्ति - 1330
  • भक्ति दासता नहीं , समर्पण है हृदय का | ज्ञान मस्तिष्क की महानता है वहाँ हृदय नहीं , मस्तिष्क ही प्रधान | - भक्ति की चेतावनी - 1330
  • रंगीन दुनिया शिकायत का स्थान नहीं , हरी भूमि , नीला आकाश | लाल-लाल आँखों के लिए नहीं | श्वेत श्याम रतनार आँखों के लिये है जहाँ प्रेम बरस रहा है | - भक्ति की चेतावनी - 1331
  • भक्त भ्रमर , स्वयं कमल , संसार कर्दम | भ्रमर कमल का रस पान करे तो संसार कर्दम क्यों चिल्लाये ? कर्दम कमल को पा कर भी कर्दम ही रहा | - भक्ति - 1331
  • सुप्त चेतना जागृत | अतृप्त भावना सन्तुष्ट | कैसे ? सुप्त जागा , भोग रोग भागा , संतुष्ट हुआ | - भक्ति - 1332
  • प्रतिमा प्रत्यक्ष है दीपक प्रज्वलित | सूक्ष्म प्रेम स्थूल में भी प्रकाश फैलाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1332
  • आवाज में गुंजन है , कम्पन है तो न जाने यह क्या गुल खिलायेगी ? यों पुकार निरर्थक तरंग | - भक्ति की चेतावनी - 1333
  • तुम मुझमें इतने घुल मिल गए की मैं भूल ही बैठा कि तुम भी मेरे साथ हो | जगत ने पुकारा मैं उसके पीछे दीवाना हुआ | अब मुझे ही तुझे पुकारना है | - भक्ति - 1333
  • शब्द हुआ , शब्द दिये | इनमें लीन हो जाऊँ या इनका वृथा प्रयोग करूँ | - भक्ति - 1334
  • प्यार का अधिकार सबको - निर्जीव को , सजीव को | प्यार में कौन छोटा , कौन बड़ा ? प्यार में बढ़ा वही बड़ा | - भक्ति की चेतावनी - 1334
  • प्राण और रस का आदान प्रदान अद्भुत है | प्राण है रस नहीं तो निष्प्राणवत् प्राणी | रस प्रेम , रस ब्रह्म | फिर भ्रम क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1335
  • दीवानों की दुनिया में मस्ताना गया | दीवाने हँसने लगे | मस्ताना मस्त , न गंभीर , न गमगीन | दीवाने खो बैठे थे मस्ताना अभी होश में था | भक्त कहूँ या ज्ञानी | - भक्ति - 1335
  • सुना है कि तू है | तुझ से पहिचान नहीं | मानने वाले को मैं मानता नहीं | समस्या ही बनी रही | - भक्ति - 1336
  • परहित - पर तो परमेश्वर है | हित अहित पर नहीं , परमेश्वर के हाथ | - भक्ति की चेतावनी - 1336
  • वह कौन था जिसने धरा को नरक समझा ? नर ने चरण धरा नरक स्वर्ग बना | पाप पुण्य की कथा समाप्त है | - भक्ति की चेतावनी - 1337
  • सफेद से काला हुआ , बरसने लगा शांति दी , बीज के बढ़ने में सहायक हुआ यह बादल है , संत है | - भक्ति - 1337
  • तू कौन है , प्रेम में सोने भी नहीं देता , रोने भी नहीं देता | केवल बेचैनी ? पागल | प्रेम में सोना रोना कैसा ? किसी का होना है | - भक्ति - 1338
  • आप्त क्यों हो रहा है जब सर्व व्याप्त का अभिशाप नहीं बल्कि वरद हस्त सर्वत्र कार्य कर रहा है | चिन्ता कैसी जब चिन्तन मणि तेरे हृदय में है | - भक्ति की चेतावनी - 1338
  • दुःख दर्द की दवा दया है | दया चाह , दया कर , दुःख दर्द अब कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1339
  • प्रेम अग्नि है जिसमें विचारों का हवन होता है | जलना तो शुद्ध होना है | - भक्ति - 1339
  • पाप किया तो जग में आया | नहीं , पाप के प्रायश्चित ने प्रभु से मिलाया | - भक्ति - 1340
  • द्वेष देश में फैला है | स्वदेश में नहीं | स्वदेश जन्म नहीं , भूमि नहीं , स्व है जहाँ आत्मा , परमात्मा का मिलन है | - भक्ति की चेतावनी - 1340
  • चित्कार क्यों करता है ? चित्त कर प्रभु की ओर चित्कार बंद हो | - भक्ति की चेतावनी - 1341
  • प्रतिमा पिता की , अन्तर आत्मा पुजारिणी , भिखारिणी दुनिया | पुजारी भी भिखारी - प्रेम का | किन्तु दुनिया तो आज भी सिर धुन रही है | - भक्ति - 1341
  • स्वर्ग की ईर्ष्या , नरक की यंत्रणा , विज्ञजन की मंत्रणा को बदल डाला प्रेम के प्रकाश ने | फिर प्रेम के स्थान के गीत क्यों ? प्रेम दाता , वासना भिक्षुक | - भक्ति - 1342
  • सबला मां भूख मिटायेगी तन की , मन की | - भक्ति की चेतावनी - 1342
  • संकल्प , विकल्प तो कल्प , कल्पान्तर तक खेल दिखलाते रहे | आज संकल्प कर मेरा कुछ नहीं , तेरा ही तेरा है | - भक्ति की चेतावनी - 1343
  • पुनः पुनः पाप के संताप ने जीवन को अभिशाप बनाया | अब आप , दिल साफ का समय दो मेरे प्रभो | - भक्ति - 1343
  • त्याग और वैराग किसके लिए ? तुम्हारे लिए | मुझे अनुराग चाहिये | अनुराग ही त्याग वैराग का मूल मंत्र है | - भक्ति - 1344
  • पाप पुण्य की कथा कब समाप्त होगी ? जब प्रेम हृदय को मथने लगेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1344
  • संग हटा तो संकट , संग हुआ तो प्रकट | - भक्ति की चेतावनी - 1345
  • प्रेम की अपूर्व मूर्ति देखी | प्रेमी गंगा में लीन हो गया , भक्त समुद्र में समा गया | रह गई उनकी गाथा जिसे गाते गाते अनेक को शांति मिली | - भक्ति - 1345
  • वर को दान किया प्राण , अब याचना कैसी ? वर का प्रेम मिला , लीन हुआ वर में | यही तो शुभ अवसर है | - भक्ति - 1346
  • समस्या तो अमावस्या है | समाधान तब जब सम हो या ध्यान हो , प्राणों में आवाहन हो या कान्ह हो | - भक्ति की चेतावनी - 1346
  • पार्श्वनाथ - नाथ पार्श्व में , हृद मन्दिर में फिर अनाथ क्यों , उदास क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1347
  • प्यार में भीख कैसी ? प्यार मिला भीख सीख में बदल गई | - भक्ति - 1347
  • झोली की जिस दिन होली हुई , मन ने कहा - अब ? बुद्धि ने कहा - होली सो होली अब कैसी झोली ? - भक्ति - 1348
  • किसे याद करूँ कि दुःख भूल सकूँ ? याद तो बाद की अवस्था है , प्रथम दर्शन तो कर आत्मदेव का | - भक्ति की चेतावनी - 1348
  • रथ पर चढ़ा , स्वार्थ का पाठ पढ़ा , पथ न पहचाना । पार्थ बन , स्वार्थ सिद्ध हो । - भक्ति की चेतावनी - 1349
  • तीन की वीण ऐसी बजी कि बजती ही आ रही है | त्रिगुणातीत अवस्था तो किसी की कृपा के बल पर ही संभावित है | - भक्ति - 1349
  • रज का राज्य , सजे साज , नहीं मोहताज | आज विश्व सरताज का सर पर हाथ है | - भक्ति - 1350
  • दूर गति - दुर्गति बनी | सहज गति - सुगति बनी | गति - मति बनी , यति बनी , रति बनी किन्तु पति को न पहचाना तो बनी जैसी न बनी | - भक्ति की चेतावनी - 1350
  • साधना बाहर की थी , भीतर की थी , किन्तु तरी न थी | क्यों ? सृष्टि को न समझा , स्रष्टा को न समझा | - भक्ति की चेतावनी - 1351
  • एक अग्र है , एकाग्र है चित्त और साधना ? सधा और साधना समाई साध्य में | - भक्ति - 1351
  • भक्त विलाप करते मिलाप के लिए | ज्ञानी , ध्यानी बने किन्तु अंतः के देवता कुछ जगा कि हमें भी मजा आये तेरी दुनिया का | - भक्ति - 1352
  • मोहान्ध सुने , धनान्ध सुने , धर्मान्ध देखे | प्रेमान्ध ? प्रेम न था , तभी अन्धकार था , अन्धे थे | आज प्रेम का राज्य है , सर्वत्र प्रिय का साम्राज्य है | किन्तु प्रेम भी राज है | - भक्ति की चेतावनी - 1352
  • सिर पर अहंकार का ताज था , तभी मोहताज था | ताज ताज , प्रिय भज , तू है प्रिय के चरणों की राज | बज उठेगा वीणा का तार , अब आप ही आप उद्धार , आप ही उद्धार | - भक्ति की चेतावनी - 1353
  • सवार पर सौ सौ वार होते रहे भीतर से बाहर से किन्तु सवार लक्ष्य की ओर बढ़ता ही गया | मिला अपने प्रीतम से , सुख दुःख वार दिये , वह भी सवार था | - भक्ति - 1353
  • कुछ ने कहा - मिलाप के लिए विलाप कर | कुछ ने कहा - मन से संलाप कर | कुछ ने कहा - प्रलाप ही प्रलाप है | अब तू ही बता तेरा मिलाप कैसे हो ? - भक्ति - 1354
  • हार मानूँ या हार पहनाऊँ । हार मानकर आया है , आज हार पहना दे | अब तेरी हार उसकी हार होगी | वह हारने वाला नहीं , हरण करने वाला है | पहले हर फिर हरि फिर ? हरिहर | - भक्ति की चेतावनी - 1354
  • “ मैं “ जला नहीं , क्या इसीलिये तू जला रहा है ? जलना - यह जलना कैसा ? अभी तो आँखों में जल है दुःख का | जब आँखों में सुख का जल आयेगा तो यह दुःख स्वयं बह जायेगा , फिर वह जायेगा ? जायेगा नहीं आयेगा | ऐसा आयेगा कि भगाने पर भी नहीं जायेगा | ये प्रेम के आँसू हैं | - भक्ति की चेतावनी - 1355
  • प्रकृति के वक्षस्थल में ममता है , स्नेह है , तभी तो आज भी उसका हृदय विदीर्ण करते हैं बच्चे किन्तु सहती है वह , कुछ भी नहीं कहती | बच्चे प्यार का मूल्य | - भक्ति - 1355
  • क्यों मुझे विचारों की वीथियों में भटका रहे हो - सरल मार्ग का दर्शन क्यों नहीं कराता ? - भक्ति - 1356
  • बन्दा है बन्दी नहीं , बन्दा है बन्दगी कर | बन्दा है गन्दा नहीं , जग है फन्दा नहीं , बन्दा है बन्दगी कर | बन्दा है , नभ का चन्दा है , बन्दा है शिव की गंगा है , बन्दा है बन्दगी कर | - भक्ति की चेतावनी - 1356
  • यह गाना है या रोना है वासना का ? यह हँसना है या फँसना है जगत का | जाग , प्रिय के संग खेल फाग , सुन अंतरात्मा का राग , खिल उठे जीवन बाग़ , नाच रहा मन नाग | सुख दुःख है विचारों के झाग , अब खेल फाग , सुन राग , राग अब बना अनुराग | - भक्ति की चेतावनी - 1357
  • मरू तू भी क्या भूमि है ? मरूँ उस देश , धर्म के लिए , मैं मरुभूमि हूँ | - भक्ति - 1357
  • मरुवा तू भी क्या फूल है ? रूप न सही , मरूँ , मै उस पर जो वाह की परवाह नहीं करता | - भक्ति - 1358
  • दुःख न झेल , कर ले मेल प्रभु से , प्रभु भक्तों से | - भक्ति की चेतावनी - 1358
  • बकता जा वास यहीं करना पड़ेगा | जिस दिन बकना बन्द होगा और होश में आयेगा , उस दिन तू मुझे पास में पायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1359
  • बरबस यदि वर वश में हुआ तो है न महान की कृपा | - भक्ति - 1359
  • क्या लेगा और क्या देगा , जब सभी लेन देन तेरी कल्पना है । देनेवाला वस्तु नहीं चाहता , बस तुझे चाहता है | - भक्ति - 1360
  • प्यार की बातें लिख , यह जगत का गोरख धन्धा है जो यों ही चला आ रहा है | तुझे प्यार चाहिये या तर्क ? प्यार कर , यह तर्क तेरे हृदय को तर न कर सकेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1360
  • शराबी शराबी में मस्त , कबाबी कबाब में | मेरा नाम शराब कबाब नहीं - जवाब है उनके लिए जो मेरे हैं | कैसा जवाब ? भूल बैठेगा यह शराब कबाब जब तू नाम लेगा | मेरा नाम लेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1361
  • तुझे गर पकड़ पाऊँ ? तो ? तुझ में समाऊँ | लाभ ? मस्ती का , हस्ती का इसी में है | - भक्ति - 1361
  • कुछ मुझे भी प्रकाश दे कि आँखें खुलें | मूल की भूल है , इसीलिये शूल है , त्रिशूल है | - भक्ति - 1362
  • चुम्बक नहीं , चुप , बक मत , रसास्वादन कर , आधार का अधर है , धर पकड़ नहीं , धर ऐसा पकड़ कि तुझे पकड़ने वाला भी चुम्बक बन जाये | - भक्ति की चेतावनी - 1362
  • रत न हुआ , सूरत न हुआ , सूरत देखना चाहता है ? ‘ मैं ‘ - रत कहीं सूरत देख पाया है ? वह खूबसूरत है | खूब रत न होगा तो खूबसूरत के लिये तरसता ही रह जायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1363
  • एक की दो सन्तान | दोनों ही प्रिय | मिलन के लिए व्याकुल | क्यों ? दोनों की एक ही से उत्पत्ति , समान धर्मी होने के कारण आकर्षण स्वाभाविक | साधु क्यों बुरा मानते हैं ? तन का मिलन वासना जनक , मन मिलन प्रेम का | - भक्ति - 1363
  • मिलन में लीन हो गया मन | और तन का भान ही न रहा | प्रकृति हर्ष से पुलकित हो उठी | यहाँ संयोग , वियोग कहाँ ? - भक्ति - 1364
  • अवसाद क्यों करता है ? अब शाद ( प्रसन्न ) हो जा प्रसाद सम्मुख | - भक्ति की चेतावनी - 1364
  • सरस में सरसता है , रस्ता है , हर्ष का विहार का | हार मान बैठे तो न रस्ता है न फरिश्ता | - भक्ति की चेतावनी - 1365
  • चेतना पूर्ण जागृत न हुई तो सेवा भाव भी अपूर्ण | भावना प्रभु की , कार्य शरीर का , यही स्वतः सेवा है | - भक्ति - 1365
  • यह कैसी वेदना है जो सोने नहीं देती ? यह वेद ना की वेदना है , प्राणों की वेदना है जो प्राण अर्पण कर ही समझ पायेगा | - भक्ति - 1366
  • आज जिन्दगी का वह साज बजा कि आवाज गूँज उठे त्रिभुवन में कि ( तू ) मुक्त है , युक्त है प्रभु चरणों में | - भक्ति की चेतावनी - 1366
  • अन्त तक तर न हो पाया , अन्तर के गीत गाता रहा | अन्तःकरण का कर्त्ता कौन ? कौन और क्या का उत्तर कर्त्ता है | - भक्ति की चेतावनी - 1367
  • भक्त झूमने लगता है प्रेम में , मस्ती में लोग उसे पागल कहते हैं | पा कर लगा रहा पागल हो गया | उसे दीन दुनिया की खबर नहीं | - भक्ति - 1367
  • प्रेम के आँसू , आँसू नहीं | आदान का प्रदान है | दिल देनेवाले को दिल दिया जा रहा है , आँसू तो ब्याज है प्रेम धन का | - भक्ति - 1368
  • विश्व उसकी ज्योति के कण मात्र से निर्मित हुआ , उस पर विजय ? उसकी जय जयकार से ही सम्भव हो सकता है | - भक्ति की चेतावनी - 1368
  • संयोग वियोग भी संयोग ही है | वियोग के लिये अश्रुपात क्यों ? गातधारी यदि आधार रहित तो क्या करे आँसू ही बहाये | प्रेमाश्रु की कथा निराली उनके लिये तो प्रभु भी तरसता है | - भक्ति की चेतावनी - 1369
  • कामिनी कांचन का त्यागी भी छटपटाता रहा प्यार के लिए | प्रथम भगवती के लिए , पुनः कांचन से हृदयवालों के लिए | प्यार अद्भुत है | - भक्ति - 1369
  • दो प्रेमी थे , दो प्रेमी हैं - एक भक्त एक भगवान | कहने को दो , यों एक | - भक्ति - 1370
  • भाव एक सुझाव है , अभाव ग्रसित के लिये | यह सुझाव यदि सुभाव बन जाये , स्वभाव बन जाये तो अभाव की गति कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1370
  • प्रीति की नीति नहीं होती , रीति नहीं होती , होती है शरणागति जो नीति रीति से दूर | दूर कब भरपूर ? दूर करे भावना को चकनाचूर | - भक्ति की चेतावनी - 1371
  • मन को कैसे वश में किया ? गुरू ने मंत्र बताया | मन ने मान लिया | अब तो बस गया जहाँ गुरू धाम है | - भक्ति - 1371
  • इतना आसान ? सान पर चढ़ानेवाले की कृपा | यह गुरू की शान है जहाँ मुश्किल ही आसान | - भक्ति - 1372
  • समर पूर्ण जब तक समर्पण नहीं - शत्रु मित्र की एक ही नीति | - भक्ति की चेतावनी - 1372
  • अश्रुमाला , पुष्पमाला में अन्तर है - अश्रु हृदय स्पर्शी , पुष्प हृदय उल्लासी - यदि प्यार के हों , अन्यथा दुःख , दिखावा है | - भक्ति की चेतावनी - 1373
  • एक दिन प्रेम के दीवाने से ज्ञान का दीवाना मिला | प्रेम ने ज्ञानको ललकारा नहीं , पुचकारा | ज्ञान प्रेम पर दीवाना हो गया | - भक्ति - 1373
  • तुमने किसे प्यार किया ? खिलौनों को | और तुमने ? कुम्हार को | क्या मिला ? आनन्द मिला , सृजन का | - भक्ति - 1374
  • श्याम की संध्या , राम का प्रभात | अब दिन और रात ? बात में गुजार या आघात में | बात प्रेम की , आघात संसार का | - भक्ति की चेतावनी - 1374
  • चरण रज न तज , तज मिथ्या भावना | भव में भाव भी , अभाव भी , देव भी दानव भी | तज मिथ्याभिमान भज प्रिय को , बज उठेगा सुप्त स्वर | - भक्ति की चेतावनी - 1375
  • कल क्यों बेचैन था ? संयोग के लिए | और आज ? वियोग के लिए | चैन कब ? जब प्राणों में प्रणय की , प्रणव की बाँसुरी बजे | - भक्ति - 1375
  • चन्द्र को नभ में देखा , मस्तक पर देखा , हृदय में देखा , मुख पर भी | अपभ्रंश चाँद बना | चाँदी बनी तब भी संतोष नहीं | चन्द्र की महिमा कम नहीं , जब उसपर कलंक की कल्पित कहानी कही गई | आज भी चन्द्र चमक रहा है | - भक्ति - 1376
  • रूप का अभिमान न कर राधे - अरूपी का रूप प्रेम है | - भक्ति की चेतावनी - 1376
  • कागज पर लिखा , दिल पर कब लिखा , तभी न पाप पुण्य की कथा कहता रहा | प्रभु भावना का भूखा है , पाप पुण्य तो तुम्हारी कल्पना है | - भक्ति की चेतावनी - 1377
  • धर्म शास्त्र उसे क्या समझायेगा , जिसने प्रेम गंगा को अपना सर्वस्व अर्पण किया | - भक्ति - 1377
  • प्रेरणा कहाँ थी ? प्रेम में थी , प्राण में थी | जगी जब दर्शन हुए | - भक्ति - 1378
  • हित केवल प्रत्यक्ष में ही नहीं , परोक्ष में भी है | प्रभु प्रत्यक्ष में ही नहीं , परोक्ष में भी है | प्रत्यक्ष विज्ञान , प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञान | - भक्ति की चेतावनी - 1378
  • प्रेम और वासना में आकर्षण किसका तीव्र ? वासना का किन्तु भोले प्राणी प्रेम चिरस्थायी | - भक्ति की चेतावनी - 1379
  • मान ? मां न बाप , न स्वयं का ज्ञान , फिर कैसा मान ? मान स्वतः उनका होता है , जो किसी को मानते है | - भक्ति - 1379
  • धूम्र ने उम्र भर अंधकार ही फैलाया | हे जाज्वल्यमान प्रकाश अब तो दर्शन दो | आँखों की अवस्था बुरी , दर्शन प्रकाश देगा | - भक्ति - 1380
  • शब्द , शब्दातीत , बीता अतीत , आया वर्त्तमान अब क्यों भयभीत ? भय से प्रीति ? भूला नीति , भूला प्रीति | भूला प्रीति , भूला रीति | अब भविष्य - भय जगत मय | निर्भय प्रेम वह भी शब्दातीत | - भक्ति की चेतावनी - 1380
  • दौड़ छोड़ , मन मोड़ , सर्वत्र माता का क्रोड़ . प्रौढ़ हुआ , होड़ न छोड़ी , संग्रह करता रहा कौड़ी - कौड़ी | - भक्ति की चेतावनी - 1381
  • अंत तक एक ही रंग रहे वह अंतरंग | जो दो शरीर धारण कर एक ही स्नेह की धारा में बहे वह अंतरंग | - भक्ति - 1381
  • कल काल से भयभीत था , आज अमरत्व की भी अभिलाषा नहीं | क्यों ? सत्य , संत , सती की कृपा | - भक्ति - 1382
  • वह कौन सा युग था जब युगल मूर्ति नृत्य करती थी ? आज भी नृत्य हो रहा है , वह भाव कहाँ ? भाव किसका बदला ? युग का | भाव है तो आज भी युग है | - भक्ति की चेतावनी - 1382
  • प्रसाद पाया , अब अवसाद क्यों , विषाद क्यों , विवाद क्यों , प्रमाद क्यों ? प्रसन्न चित्त हो , सत चित्त आनन्द में अवगाहन कर | - भक्ति की चेतावनी - 1383
  • अज्ञात का प्रेम अज्ञात | वासना के कार्य लौकिक , प्रेम अलौकिक | क्यों ? प्रेम धर्म कर्म से महान | सर्वस्व अर्पण कर प्रेम पथ का पथिक बनता है मनुष्य | - भक्ति - 1383
  • आनन्द के लिए क्रन्दन कैसा ? बन्दन कर आत्म देव का हृदय में नवीन स्पन्दन होगा निरर्थक बन्धन से मुक्त | - भक्ति - 1384
  • आश्रम था श्रम निवारण के लिये | भजनाश्रम को भोजनाश्रम बनाया , क्या पाया ? भोजन | यह तो प्रत्येक योनि में प्राप्त था | - भक्ति की चेतावनी - 1384
  • संतान की अभिलाषा पूर्ण न कर सके वह कैसा पिता ? जो पिता को न पुकारे न याद करे वह कैसा पुत्र ? उपालम्भ सहज , उपासना कठिन | - भक्ति की चेतावनी - 1385
  • मन चाहता है किसी को प्यार करूँ , प्रत्यक्ष तो स्वार्थी लोगों का दल है | तुमने आवरण धारण कर रखा है दिल कैसे शांत हो ? जरा शांत हो मुझे भी प्रत्यक्ष देख पाओगे विश्व के कण-कण में हूँ | - भक्ति - 1385
  • अवतार यदा कदा | अब तार की पुकार बार-बार | - भक्ति - 1386
  • अहंकार की चिंगारियाँ केवल अहंकार के लिए ही घातक नहीं अन्य भी जलते हैं इन चिंगारियों से | फिर रक्षा ? रक्षा उसी की जो अहं को सोऽहं में समर्पित करे | - भक्ति की चेतावनी - 1386
  • हार कर जाना पुनरागमन का कारण बनता है हार पहना कर जाता तो न आता और न जाता | - भक्ति की चेतावनी - 1387
  • एक क्षण के लिये भी याद कर | याद रख कि तू मेरा ही है | - भक्ति - 1387
  • श्वास - प्रश्वास के ताने बाने में बँधा जीव , मुक्ति को क्या जाने , प्रभु को क्या माने ? श्वास तेरा प्रश्वास मेरा | यही तेरा मेरा जीवन है | - भक्ति - 1388
  • किंचित् भी चित्त लगता सत् चित्त में तो आनन्द ही आनन्द रहता किन्तु कदाचित् ही ध्यान दिया हो सतचित की ओर तो आनन्द कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1388
  • नाम विश्वास है , श्वास है , मोद है , आमोद है | नाम लेकर देखो , फैलाकर देखो | - भक्ति की चेतावनी - 1389
  • निर्गुण सगुण का भेद कैसा ? दोनों ही कल्पना | आकार यदि आ कर न बताये , निराकार यदि भाव न जगाये तो बातें ही बातें हैं | प्रत्यक्ष अनुभूति है जो स्वतः होती है | - भक्ति - 1389
  • प्रार्थना वाणी या हृदय की ? वाणी ही प्रकम्पित कर देती है प्राणी को , तुम तो ध्यान भी नहीं देते | हृदय की वाणी ही हृदय को स्पर्श करती है , मौखिक कब स्पर्श कर पाई ? - भक्ति - 1390
  • तैयार - तय यार , तय प्यार , हो तैयार | - भक्ति की चेतावनी - 1390
  • व्याकुलता भी हृदय का नृत्य है , जहाँ प्रिय का संगीत गूँजता रहता है | मस्ती तभी आती है जब संगीत तथा नृत्य का समन्वय होता है | - भक्ति की चेतावनी - 1391
  • देना तो पाना है | मनुष्य कृतघ्नी हो सकता है किन्तु प्रकृति ? उसकी प्रकृति ही ऐसी है कि वह सौ गुना देकर भी नहीं अघाती | - भक्ति - 1391
  • नय , विनय , प्रणय | नय अहं को शांत करता , विनय मार्ग प्रशस्त , प्रणय प्रिय समावेश | अब न देश , न वेश , न क्लेश , न श्लेष , अवशेष तेरा प्रणय | - भक्ति - 1392
  • प्रेम की बातें ही बातें हैं | बातों से किया नाता , कहाँ सुख पाता ? प्रेम होता तो सर्वत्र प्रिय का दर्शन होता , बातें न होतीं | प्रेम प्रभु में , प्रेम प्राणी में , अज्ञात तार , जीवन में बहार लाता | - भक्ति की चेतावनी - 1392
  • हस्त रेखा क्या देखता है ? मस्त रेखा बता | मस्ती , रेखा को पार करने में है , दिलदार यार करने में है , नया संसार करने में है | व्यवहार में तो हार ही हार है | - भक्ति की चेतावनी - 1393
  • अग्नि भीतर रूप बाहर | भीतर बाहर बेचैनी | आग आज भी है कल भी थी | शांत तो प्रशांत में मिलकर होगी | - भक्ति - 1393
  • प्रेम की परिभाषा कहाँ ? दो प्राण एक महान की शक्ति से अनुप्राणित - अमर कीर्ति के साधन बने | - भक्ति - 1394
  • पत्थर भी पिघलता है दिल की आवाज सुनकर , प्यार भी न्योछावर होता है दिलदार पर | न प्यार कर सका , न पत्थर पिघला सका | प्यार करता तो पत्थर जैसा दिल भी पिघलता | - भक्ति की चेतावनी - 1394
  • महान क्यों नम्र होता है ? नम्रता ही महानता है | - भक्ति की चेतावनी - 1395
  • प्रेम प्रशंसा का प्यासा नहीं | अभिलाषा पूर्ण , प्रेमपूर्ण | - भक्ति - 1395
  • किसी के प्रति इच्छा प्रतीक्षा बनी | प्रतीक्षा कभी सफल कभी विफल किन्तु आज भी प्रतीक्षा प्रिय है | - भक्ति - 1396
  • मिट्टी ने रस को भी मिट्टी बनाया , निर्मलता का हरण किया | मिट्टी दूर कैसे हो ? रस अति मात्रा में हो तो मिट्टी नीचे प्रकृति में बैठ जायेगी , रस ही रस नजर आये | - भक्ति की चेतावनी - 1396
  • कण , क्षण में पूर्ण होना चाहता है | लगन हो तो वह भी क्षण आता है जब कण मगन हो जाता है | कण व्रण रहता है जब तक कि प्रण नहीं करता , प्राण प्रिय से मिलन का | - भक्ति की चेतावनी - 1397
  • होली खेली नहीं जाती कुछ दिल में हो तो रंग जाता है दिल , फिर कुछ भी हो दिल दिलदार में ही समा जाता है | - भक्ति - 1397
  • तन रंग , मन रंग , तर अंग तो तरंग | समुद्र तो स मुद हो | समुद्र बाहर स्थूल | भीतर अखंड समुद्र , आनन्द समुद्र | - भक्ति - 1398
  • विद्या और तर्क के बल पर हृदय नहीं बदलता | हृदय तर्क नहीं चाहता वह तर रहना चाहता है | तर तो तभी हो पाता जब प्रेम गंगा प्रवाहित होती रहती संत वाणी से | - भक्ति की चेतावनी - 1398
  • संस्कार को नमस्कार | कर पुकार की संस्कार बेकार हो जायें | होकर जाना ही तो संस्कार बना | - भक्ति की चेतावनी - 1399
  • नजर आया , नजराना चाहा | नजरों में बसों , है नजराना मंजूर ? - भक्ति - 1399
  • प्राणों का रस जब सुप्त प्राणों में प्रविष्ट हुआ | यह क्या हुआ ? निष्प्राण प्रफुल्लित हो रस प्रसार करने लगा | - भक्ति - 1400
  • सुन्दरता तन की या मन की | तन की रह न पायेगी , मन की ही उसको पायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1400
  • किसी ने मुक्ति की बात कही और किसी ने निर्वाण की | प्यार की बातें भी कहता तो आनन्द आता प्रिय से मिलाता | - भक्ति की चेतावनी - 1401
  • स्वाद इष्ट में है , प्रसाद प्रभु का | स्वाद इष्ट तो स्वादिष्ट | तेरा अभिष्ट मिष्ट है या इष्ट ? मिष्ट इष्ट है तो अभिष्ट पूर्ण | - भक्ति - 1401
  • एक बिन्दु का चमत्कार देखा जिसने सिन्धु को भी प्रेम बंधन में आबद्ध किया | धन्य बिन्दु या सिन्धु ? - भक्ति - 1402
  • खूबी सूरत की नहीं , सूरत देने वाले की है | भोली दुनिया खूब सूरत पर मरती है , देने वाले पर नहीं | क्योंकि वह छिपा है खूब , खूब सूरत में , बद सूरत में | - भक्ति की चेतावनी - 1402
  • मूर्ति पूजा कोई खिलौना नहीं | पूजा प्रधान , मूर्ति निमित्त | कही भाव की पूजा है , कही रूप की | विवाद कैसा ? - भक्ति की चेतावनी - 1403
  • रह-रह कर विरह ? वीर ही विरह सहे | पीर कुछ ऐसी है कि नीर बह कर भी पीर बनी रही | - भक्ति - 1403
  • चंचल चल , समीप है , फल - विफल , असफल सफल , फिर भी न कल , वाह रे चंचल ! प्रभु पाया तेरा बल , अब कहाँ विकल ? - भक्ति - 1404
  • जो ज्योति से खिलने वाला है ( हृदय कमल ) उसे अर्थ - पिपासु बनाते हो , मुरझा जायेगा , हाथ कुछ न आयेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1404
  • घर न छोड़ | धर प्रिय के चरण , बड़े कोमल है | उजड़ा घर बसेगा | आनन्द कानन बन जायेगा , प्रिय बस में हो जायेगा | मान , व्यर्थ अभिमान की बातें छोड़ , घर न छोड़ | - भक्ति की चेतावनी - 1405
  • हृदय सम्राट कहूँ या विराट ? यह तो प्रेम मिश्रित ज्ञान है | कहना , सुनना कैसा , अनुभव करना है | - भक्ति - 1405
  • रजा में मजा | अब तू सजा - मन मन्दिर | अब कहाँ कजा , कहाँ सजा ? - भक्ति - 1406
  • मोदक वस्तु भी , वाणी भी | वस्तु का प्रभाव क्षणिक वाणी अमर | आज भी वस्तु के इच्छुक प्राणी अधिक , वाणी के अति अल्प | क्यों ? उत्तर सरल भी , गम्भीर भी | स्थूल सूक्ष्म की उपासना | - भक्ति की चेतावनी - 1406
  • प्रकृति बाहर , प्रकृति भीतर | भीतर तर तो बाहर में बहार सदा बनी रहेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1407
  • जब जब प्यार की परीक्षा हुई पृथ्वी काँप उठी | आज वह प्यार कहाँ अदृश्य हो गया ? - भक्ति - 1407
  • परदेशी की प्रीति बुरी है | प्रतिवेशी का प्रेम क्या है ? भला या बुरा ? - भक्ति - 1408
  • माल है मालिक है , साहस नहीं | माल प्राप्त कर जप माला प्राप्त हो , मालिक प्रसन्न हो | - भक्ति की चेतावनी - 1408
  • कृतघ्न न बन , कृतज्ञ बन | ज्ञान नहीं तभी तो कर्त्ता को भूल बैठा | कर्त्ता उदार , केवल इतना मान , सब कुछ तेरा है | - भक्ति की चेतावनी - 1409
  • नाम का प्रकाश जन्म - जन्मान्तर का अंधकार मिटाता , सूर्य तो आधा ही है इसे कल का पता नहीं | - भक्ति - 1409
  • अमृत का पार्थिव रूप प्यार | झलकता है आँखों में दिल में | - भक्ति - 1410
  • तलाश है प्यास बुझाने के लिये | श्वास है प्रिय दर्शन के लिये | विश्वास है शान्ति निवास के लिये | कुछ पास है तो कुछ मिलेगा ही | पूर्ण तो उऋण होने में है | - भक्ति की चेतावनी - 1410
  • कसरत क्या करता है ? कस कर रत हो जा प्रभु प्रेम में जीवन सफल | - भक्ति की चेतावनी - 1411
  • प्रकाश की किरण शरीर पर , मन पर | सौंदर्य बन गया तन का , मन का | - भक्ति - 1411
  • इसे रोना न कह , यह तो आंसुओं की लड़ी में प्रेम को पिरोना है , भक्ति ज्ञान इसके सुमन है | - भक्ति - 1412
  • सम्पत्ति - पति को पहचाना ? सम भाव हुआ प्राणियों में ? यदि नहीं तो यह सम्पत्ति किस काम आई ? - भक्ति की चेतावनी - 1412
  • रक्त के कण-कण में वासना , फिर प्रेम के लिये स्थान कहाँ ? जल वाष्प बनेगा , वासना प्रेम बनेगी , जब भक्ति की अग्नि प्रज्वलित होगी | - भक्ति की चेतावनी - 1413
  • प्रेम दीपक कभी बुझता नहीं | वासना ही प्राणी की संगिनी बनी | वियोग जीवन को भार बना देता है | संयोग से योग होता है | - भक्ति - 1413
  • भावुक बुद्धि का सम्मान कब कर सका ? हृदय में प्रेम की लहर कल्मष को धो डालती है | - भक्ति - 1414
  • प्यार बुरा नहीं परिणाम बुरा नहीं यदि सच्चे से ( सत्य से ) सच्चा प्यार हो | - भक्ति की चेतावनी - 1414
  • परम गति - प्रेम से पद रज में रम कि आवागमन का भ्रम दूर हो | - भक्ति की चेतावनी - 1415
  • चरण , शरण , मरण किसका ? आवरण हटा तो कहा आमरण तेरा ही हूँ | - भक्ति - 1415
  • माया तेरी मैं भी तेरा | अब माया काया का खेल क्यों ? खेल को खेल समझ | मेरा मेरा ही रहेगा | - भक्ति - 1416
  • विकट और निकट - विकट प्रश्न है जीवन और मरण का | निकट है प्राणाधार , कहीं भी जाये प्राणी , प्राण चाहिये , आधार चाहिये | - भक्ति की चेतावनी - 1416
  • प्राणों का मोह प्राणी को फिर शान्ति कहाँ ? शान्ति निर्मोही को यह भी भ्रांति है | जहाँ प्रेम का राज्य वहीं समाप्त सब काज | - भक्ति की चेतावनी - 1417
  • चुप रहूँ कैसे ? तुम मुझे विकल जो किये हुए हो | - भक्ति - 1417
  • सुनाता हूँ उनको जिन्हें विश्वास नहीं , आश नहीं | सुनाता जा मार्ग कटेगा , भाव बढ़ेगा | अभाव की दुनिया से तू दूर | - भक्ति - 1418
  • करवट बदली हुआ सबेरा - कर तब बदला हुआ सबेरा | - भक्ति की चेतावनी - 1418
  • वियोग तीव्र स्मरण का भोग है , योग तल्लीनता का | स्मरण अनुकूलता , विस्मरण प्रतिकूलता | - भक्ति की चेतावनी - 1419
  • बुद्धि देता तो बुद्धिमानो को तेरी बातें सुनाता | बोध दिया , अब बुद्धि क्या करेगा ? इनके लिए चर्चा , तेरे लिए क्या बचा ? - भक्ति - 1419
  • भक्तों ने खोजा या खोया ? पहले खोजा फिर खोया | क्या ? दिल और दिमाग | - भक्ति - 1420
  • लजाना है कि ले जाना है दिल , मिले तो वाह-वाह नहीं तो ले आना है अपना दिल , लजाना क्यों ? - भक्ति की चेतावनी - 1420
  • आज दिल से छूता है कल हाथ से | हाथ मैले , दिल मैला इस मैल में कमल न खिलेगा , कुम्हला जायेगा , हाथ कुछ न आयेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1421
  • सूक्ष्म कण से मन बन बैठा और पत्थर से भगवान , यह क्या तेरे खेल ? सूक्ष्म और अदृश्य जब रूप धारण करते है तो महदाश्चर्य की सृष्टि होती है | - भक्ति - 1421
  • वह कौन था प्रथम पुरुष जिसने भगवान को पुकारा | वह भगवान ही था जिसने भक्त का रूप धारण कर जगत का अभिनय प्रारम्भ किया | - भक्ति - 1422
  • देख चन्द्र मन शीतल हो | देख सूर्य , मन हर्षित हो | हर्ष हुआ कर्ष मिटा , शीतलता आई | - भक्ति की चेतावनी - 1422
  • खेल कर देख , दुःख भूल जायेगा , रोना याद न आयेगा | रोने वाले रोते रहे | खेलने वाले खेल खिलाते , खिलखिला कर हँसते हुए चले गए | आज भी लोग रोने में ही लगे हैं | वाह रे रोने के खेल , तू तगड़ा है इसीलिये न प्रिय संसार झगड़ा है | - भक्ति की चेतावनी - 1423
  • स्वार्थी और परमार्थी दोनों ही आये | एक ने गंध फैलाई एक ने सुगन्ध | एक यहाँ की वस्तु संग्रह ही करता रहा , दूसरा जो पाया वही लुटाया | जिसने लुटाया वह लौट कर न आया | - भक्ति - 1423
  • बिन्दु प्राणदायक , प्राण मोहक - जब हृदय को स्पर्श करे | कहीं आँसू कहीं प्रवाह ( आनन्द का ) - भक्ति - 1424
  • यदि मन है बेईमान और है शैतान क्या होगा इसका परिणाम ? नाम ले प्रेमी का , प्रेम में पिघल जायेगा-परिणाम भला ही होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1424
  • चिर सुन्दर का उपासक रूप नहीं सुन्दरता का प्रेमी है | जीवन विलासिता के लिये नहीं , उपासना के लिये है | - भक्ति की चेतावनी - 1425
  • शुभ दृष्टि मांगलिक बनी - तन मन शांत और उद्वेलित | - भक्ति - 1425
  • गति काल की , हृदय की | काल दिल की कीमत नहीं करता | दिल को काल की कीमत करवा देता है | जब किसी को दे , प्रसन्न हो जाता है | - भक्ति - 1426
  • खोज में मौज है यदि खो गया और हो गया तेरा | न खोजा तो अब भी खोज , नहीं तो मौज कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1426
  • साख है तो नाक है नहीं तो जीवन भार | साख देगा , जीवन सखा | सखा नहीं तो जीवन व्यथा | - भक्ति की चेतावनी - 1427
  • प्रिय का दुलार कैसा ? वार कैसा ? प्रिय प्रिय है , प्रिय का अप्रिय वचन भी प्रिय | वचनबद्ध नहीं , प्राण बद्ध है | - भक्ति - 1427
  • अज्ञात है , अज्ञेय नहीं | अन्वेषण है , पिष्टपेषण नहीं | कहीं बादल बनकर बरसता है - कहीं पृथ्वी बनकर तरसता है | - भक्ति - 1428
  • बस करेगा या वश करेगा मन को | बुद्धि बल पर असम्भव | सम भाव हो तो असम्भव भी सम्भव | - भक्ति की चेतावनी - 1428
  • भव में आया सम न हो सका , शमन , दमन न हो सका | शरण में मन शमन , दम न ले जब तक सम न हो | - भक्ति की चेतावनी - 1429
  • तेरी याद कष्ट भुलाती , हृदय खिलाती | एक बार दर्शन दे की मुक्त हो जाऊँ इन बन्धनों से | - भक्ति - 1429
  • प्रेम द्वार खुला , आनन्द प्रवाहित | दुःख द्वन्द बन्द आनन्द ही आनन्द | - भक्ति - 1430
  • वस्त्रों ने दिल की दरिद्रता छिपाई | दिलदार ने परवाह न की वस्त्रों की दुनिया की | ये वस्त्र तुझे दिल का धनी न बना सकेंगे | - भक्ति की चेतावनी - 1430
  • तार भी लगा है जो तारीफ करता है | देखेगा तो उसी का हो जायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1431
  • चैन की वंशी बजी गोपियाँ मुग्ध हो शांत हो गई | सुना था गोपियाँ दौड़ पड़ती थी | हाँ , जब बाहर हरि था | - भक्ति - 1431
  • आकर सुन यह आकर्षण है जो शांत बैठने नहीं देता | इसका योग अपूर्व , वियोग हलाहल | - भक्ति - 1432
  • हरा भरा उद्यान , हरि का ध्यान भूल बैठा | अब सूखा ही सखा है , सुख नहीं , क्यों ? जहाँ हरि का ध्यान नहीं , वहाँ सुख कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1432
  • शिखा से कुछ सीखा ? जलते जलते शिखा बनी | प्रेम की अग्नि , ज्ञानाग्नि से कहीं अधिक तीव्र होती है | - भक्ति की चेतावनी - 1433
  • चींटी कण से प्रसन्न हाथी मन से | तू किससे प्रसन्न ? कण-कण में जो बसा हुआ है ( भगवान ) | - भक्ति - 1433
  • अविनाशी की सृष्टि में कण का भी विनाश नहीं , फिर तू क्यों हताश , हत हो गई आश इसीलिये हताश | ( आस थी दर्शन की ) | - भक्ति - 1434
  • जीवन भार , यदि न हो आधार | जीवन उपहार यदि हो सत्याचार | - भक्ति की चेतावनी - 1434
  • तन्मय हो जा , मन शांत हो | अन्यथा यों ही आयेगा , यों ही पछतायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1435
  • क्या मत है कयामत के लिए ? किया मत क़यामत कहाँ ? और लय-प्रलय ? प्रति क्षण लय फिर प्रलय का प्रश्न कहाँ ? - भक्ति - 1435
  • यह कैसा विरह ? आँखों का काजल गंगा , जमुना बनकर बह गया , तेरी याद बेतरह सताने लगी | ओंठों की लाली , पीली पड़ गई किन्तु फिर भी तेरी मूर्ती चमक रही है आँखों में | - भक्ति - 1436
  • आ ( मेरे ) देश यही आदेश | - भक्ति की चेतावनी - 1436
  • सन्तोष कैसे हो , जहाँ विश्वास का अभाव हो | अविश्वासी सदा विनाशी | - भक्ति की चेतावनी - 1437
  • दृश्य से दृष्टि पर आया किन्तु तू दृष्टिगोचर न हुआ तो दृश्य दृष्टि निरर्थक | - भक्ति - 1437
  • खिलता है तो मिलता है , मन , पराग , वाक , अनुराग | - भक्ति - 1438
  • राह ही हत तो राहत कहाँ ? - भक्ति की चेतावनी - 1438
  • शून्य में आवाज गूँज रही है | शून्य महल में प्रियतम का वास | शून्य का इतना महत्व क्यों ? शून्य बढ़ता गया , मूल्य बढ़ता गया यदि एक का ध्यान हो , ज्ञान हो | - भक्ति की चेतावनी - 1439
  • चरण स्पर्श किये , पदों में गति आई | परमपद प्राप्त हुआ | गति स्थिति बनी | - भक्ति - 1439
  • अहंकार ने चरणों की रज छुई , अहंकार रज कण बना | अब आनन्द ही आनन्द | - भक्ति - 1440
  • तुम प्रियतम हो फिर तम क्यों , गम क्यों , भाव कम क्यों , मृत्यु के पश्चात् यम क्यों ? निरर्थक दम्भ क्यों ? वासना है , प्रेम नहीं | प्रेम में इनकी गति नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1440
  • पद पद पर विपद , कहाँ निरापद ? पद स्पर्श कर , धूलि ले , पद धूलि ले , प्रभु के प्रियजनों की | अब कहाँ विपद , अब सम्पद है , सम पद है | - भक्ति की चेतावनी - 1441
  • योगी और भोगी की दौड़ में योगी ने शांति पाई और और भोगी ने अशांति | दौड़ जिन्दगी है और विश्राम तो प्रभु चरणों में है | - भक्ति - 1441
  • दर-दर भटके वह दरिद्र | दर पर आये भगवान वही भाग्यवान | - भक्ति - 1442
  • ‘ मैं ‘ ने माना , मैं नहीं मानता | जहाँ “ मैं “ है वहाँ मानना न मानना बेकार | ‘ मैं ‘ का परित्याग , शरणागति | - भक्ति की चेतावनी - 1442
  • प्रकृति पहचान न सकी | जड़ है | चेतन मानव भी यदि प्रकृति का दास बने तो वह भी जड़ है | जड़ है तो सड़ | कल्याण चाहता है तो पड़ और पकड़ उस चेतन के चरण कि प्रकृति तुझे जड़ न बना सके | - भक्ति की चेतावनी - 1443
  • पहाड़ की भी हार हुई जब वह फूट पड़ा झरने के रूप में | इस पत्थर हृदय में प्यार कहाँ छिपा था ? - भक्ति - 1443
  • मधुर वाणी या प्राणी या प्रिय की निशानी ? निशा आई प्राणी व्याकुल | क्यों ? प्रिय की खोज में ही दिवस बिताया ? - भक्ति - 1444
  • अवधि है आयु की कार्यो की | किन्तु ‘ धी ‘ ( बुद्धि ) नहीं तो अवधि का अन्त नहीं | पी कुछ ऐसा रस कि प्रिय की याद बनी रहे | - भक्ति की चेतावनी - 1444
  • पतवार तेरे हाथ में है | पत रखेगा या पत जायेगी | पत वार , पत रहेगी , पतन का भय न रहेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1445
  • तेरी चिड़िया ( भक्ति ) चहचहाई प्रभात हुआ | नहीं तो इस अंधकार निशा का कहीं अंत नहीं | - भक्ति - 1445
  • प्रेम के आँसू हृदय की कोमलता है या कालिमा प्रक्षालन ? जहाँ प्रेम है वहाँ कालिमा कहाँ , काल कहाँ , सवाल कहाँ , जवाब कहाँ ? - भक्ति - 1446
  • अब तक समझ न पाया , अब तक ( देख ) समझ पायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1446
  • यह कैसा ज्ञान है जिसमें कृतज्ञता का भाव भी नहीं | भक्ति अति महान | अहंकार ने व्यक्ति को अति क्षुद्र बनाया | मन की दरिद्रता ने केवल अहंकारी ही बनाया | - भक्ति की चेतावनी - 1447
  • हिमालय के हृदय में असीम प्रेम प्रवाह | शिव की साधना कहीं निरर्थक सिद्ध होती है ? पर्वत पुत्री पार्वती भी शिव दर्शन कर प्रेम विभोर हो जाती है | - भक्ति - 1447
  • पुष्प का अहोभाग्य कि वह देव के समर्पित हुआ | मुरझाना तो था ही | - भक्ति - 1448
  • दीप में यदि स्नेह न हो तो निरर्थक दीपक | - भक्ति की चेतावनी - 1448
  • तारक नाथ है तो मारक भी नाथ है | मार अनेक तार एक | - भक्ति की चेतावनी - 1449
  • राम बाम | दाम दाहिने | काम सम्मुख | हृदय राम के लिये | दाम दान के लिये | काम ? काम यही है | - भक्ति - 1449
  • मां में ममता , पिता में प्यार देखा , शरीर का भाव जाग्रत हुआ | एक ही में ममता , प्यार का दर्शन किया तो जीवन धन्य | - भक्ति - 1450
  • प्रभु की आन पर मर मिट कल्याण कल नहीं , आज ही होने वाला है | - भक्ति की चेतावनी - 1450
  • परलोक की बात करता है इस लोक को तो जान कि जान बचे | अन्यथा अन्य ( लोक ) व्यथा का कारण बनेगा , कथा का कारण बनेगा | जीवन बनेगा कि बिगड़ेगा , विश्वम्भर जानें | - भक्ति की चेतावनी - 1451
  • पीत वसन धारी | प्रीति दो और वसन धारण न करना पड़े | - भक्ति - 1451
  • बस न फिर भी बार-बार वसन धारण करने पड़ते है | अब बस न काया कल्पों से कलपती शांत हो | - भक्ति - 1452
  • गया था पूजा देखने पाया क्या ? ऊपरी आडम्बर | वर पाता तो आडम्बर न रहता | डर न रहता मृत्यु जीवन का | - भक्ति की चेतावनी - 1452
  • है और था ने ऐसा हाथ फेरा कि जन्म-जन्म के फेर में पड़ गया | गा भविष्य के गीत गा ताकि प्राणों का मीत मिले , जीवन संगीत मिले | - भक्ति की चेतावनी - 1453
  • यह धुँआ है (अग्नि का ) जिसे सब देखते हैं | यह भी धुँआ है ( प्रेमाग्नि का ) जिसे वह जाने जिसके लगी है | - भक्ति - 1453
  • रस सी रस्सी प्रेम की जिसे तोड़ना भी मुश्किल , जोड़ना भी मुश्किल | - भक्ति - 1454
  • दिल काला तो मां काली - मां की लाली हृदय की लाली | भर ले जीवन की प्याली मां के प्यार में | कह उठेगा मैंने पाली मां की शरण पा ली | - भक्ति की चेतावनी - 1454
  • मन ने जब बेहाल किया तो मनमोहन ने कहा - देख , मन का दास न बन , उदास हो जायेगा और कुछ न पायेगा | सुन मेरी बाँसुरी कि जीवन मुक्त हो जायेगा और कुछ ऐसा पाएगा जिसके लिए दुनिया तरस रही है | - भक्ति की चेतावनी - 1455
  • वाणी लासानी है जब प्राणी श्रवण मात्र से प्रेम विव्हल हो जाता है | प्राणों की वाणी अमर | - भक्ति - 1455
  • मिटाने वाला वही जो बनाने वाला है | मिटा दुःख हुआ सुख | - भक्ति - 1456
  • कितनी माला फेरूँ कि दिल का भार उतरे ? दिल वार कर देख , भार कहाँ , दिलदार नजर आये | - भक्ति की चेतावनी - 1456
  • गीता पढूँ कि गीत गाऊँ ? पढ़ नहीं पड़ उन चरणों में कि शीत , ग्रीष्म का कष्ट मिटे | - भक्ति की चेतावनी - 1457
  • अमर लोक वही - जहाँ अमर भाव की गंगा बही | - भक्ति - 1457
  • आशा लेकर आया | फिर निराशा को क्यों अपनाया ? अपना आया , अपनाया , अन्य भिन्न में क्यों सर खपाया ? - भक्ति - 1458
  • कर सके तो प्रेम कर | रख दे माला मरते समय काम आयेगी , व्यर्थ यों जान जायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1458
  • लगा रह और गाता जा एक दिन वह रह न सकेगा जिसने तुझे जिन्दगी दी है | - भक्ति की चेतावनी - 1459
  • कल ही कली खिलेगी | आज कली विकल हो रही है | - भक्ति - 1459
  • प्रिय के अवगुण भी गुण दिखलाई देते है , यह क्यों ? प्रेम ऐसा ही अंधा होता है | अंधे को दिखलाई दे तो वह कैसा अंधा | - भक्ति - 1460
  • दुनिया देती है गन्दगी - वह प्यारों को देता है बन्दगी | पसन्द तेरी | - भक्ति की चेतावनी - 1460
  • सृष्टिकर्त्ता ने ठीक ही कहा था - एक दिन तू मुझे भूल जायेगा | अरे निर्मोही , मोह करेगा उनसे जो तेरे मोह का अनुचित लाभ उठायेंगे | - भक्ति की चेतावनी - 1461
  • व्याख्या और आख्या बुद्धि पर सीमित किन्तु मन , मनमोहन से प्रस्फुटित होता है | बाहरी रंग शीघ्र ही बदरंग हो जाता है | - भक्ति - 1461
  • रस बरस - प्राण व्याकुल , मन बेचैन , तन शिथिल , संसार विकल | क्यों ? कल काल , मन बेहाल | - भक्ति - 1462
  • यह पत्थर की प्रतिमा नहीं , भाव की प्रतिमा है जो कहती है तू मुझे मां मां कह कर पुकार | तेरी नासमझी ने मुझे पत्थर बना डाला | - भक्ति की चेतावनी - 1462
  • सो , इतना सो कि सृष्टि का प्रलय हो जाये और फिर भी तेरी आँखें न खुलें | क्या यही तेरे जीवन का उद्देश्य था | जाग , अब भी जाग | लय हो जायेगा मुझ में , तेरे लिये प्रलय न होगी | - भक्ति की चेतावनी - 1463
  • पुरुष ने प्रकृति को देखा और मुस्कराने लगा - प्रकृति मोहित हो आत्म समर्पण कर रही थी | - भक्ति - 1463
  • प्रश्न भी तू उत्तर भी तू | तू माने तो प्रश्न ही उत्तर बन जाये | - भक्ति - 1464
  • मैं में हानि , महान को मही ने समझा फलती फूलती रही | नभ ने समझा प्रकाशपुंज बना और ये नक्षत्र तो उसकी छत्र छाया में हैं ही | - भक्ति की चेतावनी - 1464
  • यह कैसा यन्त्र बनाया जो यन्त्रणा देता रहता है और यह कैसा मन्त्र दिया कि मन क्षण भर के लिये भी शान्त नहीं हो पाता | भजे तब न जब कुछ तजे और चाहता है यों ही मजे | - भक्ति की चेतावनी - 1465
  • प्रिय कहूँ तो विरह सहूँ | कहना तो होना नहीं | हुआ , जब सब कुछ सहा | - भक्ति - 1465
  • प्रेम पागल बनाता , अंधा बनाता | फिर भी प्रेम दीवानों की पूजा ? आश्चर्य | प्रेम बिना सूना है संसार | - भक्ति - 1466
  • खुद राह बना सकेगा या कहेगा कि या खुदा , राह बता , नहीं तो खुदरा-खुदरा में जिन्दगी बीतेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1466
  • त्याग की पराकाष्ठा ? प्रेम , यदि मनुष्य समझ सके | त्याग करते करते एक दिन शरीर का त्याग सम्मुख आयेगा | प्यार कर प्रभु से उनके बन्दों से कि जिन्दगी सार्थक हो | - भक्ति की चेतावनी - 1467
  • मूर्ति में क्या देखा ? मूर्त प्रेम को | मूर्ति प्राणदायक , यह मेरे प्रिय की स्मृति है | - भक्ति - 1467
  • वस्तु लुभाती नहीं , दिल बहलाती है | बहलाना छूटा - सत्य सम्मुख , जिसकी खोज अनेक जन्मों से थी | - भक्ति - 1468
  • मद का ही रास हो रहा है , यह मद्रास है | मद न होता रास होता रहता आनन्द के भाव का तो समुद्र की तरंगों जैसी अवस्था होती | - भक्ति की चेतावनी - 1468
  • मेरे पैरों में छाले ( फफोले ) पड़े और हाथों में कर्मो की बेड़ी | दिल बेचैन - काल अनिश्चित | रात और दिन प्रकाश का अभाव | क्या ऐसी ही दुनिया पर खुश है ? मेरे प्रकाश स्तम्भ सन्त , जहाँ सदा दिवाली | कर भेंट उनसे , जीवन बदलेगा | शिकायत न रहेगी जिन्दगी से | - भक्ति की चेतावनी - 1469
  • प्रसून ! कुछ मेरी भी सुन | खिलना और मुरझाना क्या यही तेरा काम है ? नहीं , दृश्य से अदृश्य जगत में मिल जाना ही मेरा काम है | - भक्ति - 1469
  • दूध में उफान है , हृदय में तूफान है | कब शांत होगा ? जब शीतल जल मिलेगा , नभ का , सब्र का | - भक्ति - 1470
  • बैठ बैठ कर माला फेरी कुछ न हुआ | आँख बन्द कर ध्यान लगाया कुछ न हुआ | दिल में कुछ भी होता प्यार मेरे लिए तो शिकायत न होती | - भक्ति की चेतावनी - 1470
  • किसी का होकर देख | कुछ खोयेगा , कुछ पायेगा | खो बैठेगा अभिमान और पायेगा शान्ति | - भक्ति की चेतावनी - 1471
  • मां के सम्मुख मांस | मां का अंश ही तो मांस है | मां वैष्णवी है , पालनकर्त्री है | शास्त्र मनुष्य के , शस्त्र मां का | मां का शस्त्र मां ( शब्द ) जो मां को अति प्रिय है | - भक्ति - 1471
  • मन का बल मां , तन तो उसी का प्रसाद है | धन ? धन्य है वह जीवन जो मां के चरणों में समर्पित है | - भक्ति - 1472
  • अपनी कोमल ध्वनि से जग को जगाया फिर भी मनुष्य समझ न पाया की यह ध्वनि किसकी है | सन्तोष शान्ति मिले कैसे ? - भक्ति की चेतावनी - 1472
  • अनेक तो एक के अभाव में है | यदि एक का विश्वास , प्राणी न होता निराश | - भक्ति की चेतावनी - 1473
  • महिमा क्यों न गायेगा महान की ? मही ( पृथ्वी ) यहीं रही | महिमा मिली महान से | - भक्ति - 1473
  • मां की महिमा मां जाने | संतान तान में ही खुश , मान में खुश , शान में खुश , अभिमान में खुश | - भक्ति - 1474
  • पूजा विश्वास चाहती है न कि कर्म का प्रदर्शन | यदि कर्म ही प्रधान , पूजा वहाँ बेजान | - भक्ति की चेतावनी - 1474
  • कुछ पृष्ठ , धार्मिक पुस्तकों के देखे जहाँ यथार्थ का अभाव , आदर्श का पलड़ा भारी , वहाँ भ्रान्ति अधिक , शांति नाम मात्र | दिल की पुस्तक प्यार चाहती है प्रभु का , आदर्श की बातें नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1475
  • मेघ शब्द न कर विरही के प्राण व्याकुल यहाँ न बरस , यों ही नयन बरस रहे हैं | - भक्ति - 1475
  • जल सम्मुख | जल आँखों में | जला है दिल , मिलन ही शांत करेगा जलन को | - भक्ति - 1476
  • पतंगे ! जलन है रूप के लिये , जल जायेगा | अंग अंग का पतन होगा ज्वाला में | अरूपी का रूप तेरे हृदय में | हृदय को टटोल , मोल कर जीवन का | यह अमूल्य है | - भक्ति की चेतावनी - 1476
  • व्यवहार तेरे लिये भूमि है , लक्ष्य की ओर चल | लक्ष्य की ओर लाखों में कोई एक चलता है और पहुँचता है | - भक्ति की चेतावनी - 1477
  • दिल मानता क्यों नहीं ? माने कैसे ? मनाने वाला अदृश्य हो गया है | ये उपदेश क्या देश दिखलायेंगे प्रिय का | - भक्ति - 1477
  • लड़खड़ाते चरण का आधार ? चरण , शरण | - भक्ति - 1478
  • जिन्दा रहना है तो जिन्दगी का आनन्द ले | बन्दगी करेगा तो अधिक आनन्द पायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1478
  • किन किन को तू , तू है तू है कहता रहेगा | किन्तु एक ही है तू जो सर्वव्यापी है और तुम में छिपा है | - भक्ति की चेतावनी - 1479
  • तेरा कहूँ कि मेरा ? तेरा मेरा मिटाने के लिए , अहंकार को गिराने के लिये , तेरा ही ठीक | - भक्ति - 1479
  • काला ही रखवाला फिर उपेक्षा क्यों ? घृणा क्यों ? राधा गौर वर्ण ? फिर काले की उपासिका क्यों ? भीतर बाहर उज्ज्वल | - भक्ति - 1480
  • सु राही होता तो सुर होता , सुरा का बेसुरा आलाप न करता | सुराही का ठंडा जल पी - प्राण प्रिय को पुकार कर मस्त हो जा | - भक्ति की चेतावनी - 1480
  • तर रह , तरह तरह की बातें न बना | निराश और हताश तो मनुष्य होता ही रहता है | - भक्ति की चेतावनी - 1481
  • प्यार किया नहीं जाता हो जाता है | जब होता है तो जाता नहीं | क्यों ? वही उसका आधार है | - भक्ति - 1481
  • उसी दिल पर कुछ चित्र अंकित हो जाते हैं जो मिटाये मिटते नहीं - उसी पर ये चित्र हैं जो हटाये हटते नहीं | - भक्ति - 1482
  • दर-दर भटकने वाले की कद्र कैसी | दरवाजा एक , खटखटा उसको , दिल का खट्टापन दूर हो | - भक्ति की चेतावनी - 1482
  • आज मुझे प्यार कर ले , हँसता जायेगा , नहीं तो रोता रहेगा , मजा कुछ न पायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1483
  • विभोर हुआ , भोर हुई | सन्ध्या हुई मिलन हुआ | रजनी सजनी बनी | - भक्ति - 1483
  • मां तम से दूर कर मातम ( दुःख ) आ रहा है | - भक्ति - 1484
  • काल का चक्र देख , जहाँ दिन नहीं , रात नहीं | प्रिय का धाम देख , जहाँ रात नहीं , प्रभात नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1484
  • यह घृणा तो नरक है | प्यार कर स्वर्ग की कल्पना भी न करनी पड़ेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1485
  • हाथ फैलाया क्या पाया ? मांगने के लिये नहीं , प्रीति जोड़ने के लिए फिर भी दुनिया न समझ पाई | - भक्ति - 1485
  • भक्ति की शक्ति , भक्त जाने या भगवान | अन्य अन्न को भजते है , शरीर यों ही तजते हैं | - भक्ति - 1486
  • जहाँ घेरा , वहाँ अन्धेरा | कब होगा आनन्दमय सबेरा ? प्रभु ही जाने | सब्र कर , सबेरा भी होगा | - भक्ति की चेतावनी - 1486
  • दे और ले | एक ही आवाज गूँज रही है | दुनिया ही नहीं , भक्त और भगवान की भी यही पुकार है | - भक्ति की चेतावनी - 1487
  • प्यार के द्वार प्रिय , प्रवेश कर आवेश शांत , अब मिला कांत | - भक्ति - 1487
  • प्रिय को लुभाना अपने को भुलाना है | प्रेम लुभाता है , जग को भुलाता है | - भक्ति - 1488
  • क्यों प्यार की बातें करता है , जब यार का ही पता नहीं ? ‘ लुक छिप ‘ के खेल का नाम ही दुनिया है | कहाँ छिपा है तेरा यार , सतर्क होकर खोज | - भक्ति की चेतावनी - 1488
  • खोज में मौज है फिर रोज-रोज क्यों रोता है ? - भक्ति की चेतावनी - 1489
  • दिल पाना कोई दिल्लगी नहीं | दिल में लगी तो दिल्लगी भूल बैठा | आज आँख में आंसू कल पुष्प वृष्टि | - भक्ति - 1489
  • सदन मिट्टी का न था , बनाया निरर्थक भाव ने | सदन हरा भरा रहे यदि हरी का ही गुणगान हो | अहंकार का नाम निशान न हो | - भक्ति की चेतावनी - 1490
  • ये गम की तरंगे हैं या गंगा की तरंगे ? मन हुआ चंगा तो बह निकली प्रेम गंगा | - भक्ति - 1490
  • यह आदान है या प्रदान , आदान प्रदान कैसा ? जिसकी (वस्तु ) थी , उसी ने ले ली | - भक्ति - 1491
  • है भक्त के लिये | सख्त पाना है दुनियादार के लिये | वक्त मिला है पाने के लिये | न खो इसको , यह बड़ा अनमोल है | - भक्ति की चेतावनी - 1491
  • सोच और शौक | शौक से मुझे पायेगा और सोचते-सोचते , मर जायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1492
  • जब मैं तेरी दुनिया में आया - अनाथ था | जब तुम मेरी दुनिया में आये मैं सनाथ हुआ | - भक्ति - 1492
  • एक रंग जब दुसरे में मिला तो रंग ही बदल गया | फिर तुम्हारा रंग कैसा है , जो रंग बदलने ही नहीं देता ? यह वह रंग है , जब चढ़ता है तो दूसरा रंग चढ़ने ही नहीं देता | - भक्ति - 1493
  • “ मैं “ जाये तो मजा पाये | दिल मँजा , दिल में जा , दिलदार दिल दिल के भीतर | - भक्ति की चेतावनी - 1493
  • “ कर “ ने खर ( गदहा ) बनाया और लाद दिया कर्त्तव्य का भार | क्या करे ? पद ग्रहण करता प्रभु का तो क्यों ऐसी अवस्था होती ? - भक्ति की चेतावनी - 1494
  • देव कहूँ या दैव ? दैव अकर्मण्यता का परिचायक है और देव तो वह महादेव है जो क्षुद्रता को महानता में बदल देता है | - भक्ति - 1494
  • प्रीति में रीति नहीं , नीति नहीं , भीति नहीं , जीती जागती प्रणव की प्रतिमा है | - भक्ति - 1495
  • भक्तो ने प्रतीक्षा की और परीक्षा दी | “ मैं “ क्या करूँ ? “ मैं “ छोड़ वह तेरा ही है | - भक्ति की चेतावनी - 1495
  • दुष्ट और शिष्ट | दो इष्ट तो दुष्ट , एक तो शिष्ट | - भक्ति की चेतावनी - 1496
  • काली का खप्पर कब खाली ? मां कह कर पुकारा , खप्पर खाली , मां काली मां काली | संसार की कालिमा ली | काली माँ , काली माँ संसार पुकार उठा | - भक्ति - 1496
  • गौर कर यह गौरी है शिव की गौरी , जीव के लिये भोरी ( भोली ) है - भोले की भोली है , उसी की होली है | - भक्ति - 1497
  • नाच और ऐसा नाच कि दुनिया तुझे नाचती नजर आये तू नहीं | अपने नाच से दुनिया को नचा जा | भाव की गंगा बहा जा | - भक्ति की चेतावनी - 1497
  • कितने पुष्प अर्पित करेगा प्राणी प्रस्फुटित हो जा पुष्प की तरह कि तेरा हृदय देख इष्ट ही खिल उठे | - भक्ति की चेतावनी - 1498
  • हरि हर , चिन्ता हर , दुःख हर , पाप की भावना हर | अब तू हर क्योंकि तू मेरा है | अभी सबेरा - संध्या कर्मो की बंध्या | रात ? अब होगी तेरी मेरी बात और प्रभात ? प्रभात में प्रभा फैलेगी तेरी और मेरी क्योंकि तू मेरा है | - भक्ति - 1498
  • अंजलि , अंग जली बन रही है , पुष्प बिखर रहे हैं | देव , अंग जलने के पूर्व , प्रेमांजलि स्वीकार करो | - भक्ति - 1499
  • गीत में गति है शब्द की , राग की , भाव की | प्रयोग योग के लिये है या प्रदर्शन के लिये | सोच और समझ , नहीं तो ये गीत प्रीति न दे सकेंगे , प्रिय की | - भक्ति की चेतावनी - 1499
  • सप्त स्वर चौदह भुवन में स्वर है , ईश्वर है , यह बात साढ़े तीन हाथ का बुद्धि प्रधान प्राणी क्यों नहीं समझता ? प्रधान यदि प्रदान करता अपने अभिमान को तो सब कुछ समझ पाता और पाता ऐसी दृष्टि की स्रष्टा नजर आता | - भक्ति की चेतावनी - 1500
  • ध्यान यदि धान पर है , धन पर है , तन पर है , जन पर है , रण पर है , ब्रण पर है तो मन कब शांत ? ध्यान धन्य , जब प्रिय चरण पर है , शरण पर है , मरण नहीं अमर पर है | - भक्ति - 1500
  • द्वार पर नाथ खडा , स्वागत न कर पाये तथाकथित पुजारी | क्यों ? पहचानते न थे | - भक्ति की चेतावनी - 1501
  • ऊँचा पहाड़ था , नीचा समुद्र | ऊँचा गर्म होता रहा , पिघलता रहा , किन्तु नीचे ने उस प्रेम जल की वृष्टि की कि प्राणी प्रसन्न हो गया , वह उसका जीवन था | - भक्ति - 1501
  • अजन्मा का जन्म भक्त के लिए | अज्ञेय का ज्ञान भक्त के लिए फिर भक्त दीन कैसा , वह तो मीन है अमृत सागर की | - भक्ति - 1502
  • पूजा भाव की या तन की ? तन का पतन है , भाव अमर है | - भक्ति की चेतावनी - 1502
  • करुण लोचन देख , पद्मलोचन ने कहा - शांत हो तेरी चिंता अब मेरी चिन्ता | करुण अब पद्मलोचन होगा केवल याद ही असम्भव को सम्भव बनाती है | - भक्ति की चेतावनी - 1503
  • भाव भीनी , दिल छीनी बात , बात नहीं रहती , दिल पर छा जाती है | जाती नहीं , रह जाती है अंतिम श्वास तक | - भक्ति - 1503
  • चर और अचर - अचर यदि चरण की महिमा न जाने क्षम्य है | चर यदि चरणों को न पहचाने तो रण सम्मुख है | उऋण वही जो चरण रज बन जाये अहंकार शून्य हो , अहं में मिल जाये , जिसे लोग सोऽहं कहते हैं | - भक्ति - 1504
  • कण-कण में प्राण | प्राण की भी शान यदि शांत हो - प्रिय मिलन का आवाहन हो | - भक्ति की चेतावनी - 1504
  • क्यों उदास क्यों हताश ? जरा विचार | आधार कोई कल्पना नहीं - आधार सहारा - मन का | - भक्ति की चेतावनी - 1505
  • दिल और दिमाग दिया तो दुनिया ने दीवाना कहा | दीवाना है क्योंकि इसने उसको दिया जिसे दुनिया देख न पाई | - भक्ति - 1505
  • मनुष्य का रूप आँखों का , भक्त का रूप हृदय का | आँखें बदलती रहती है , हृदय कभी कभी बदलता है | हृदय की आँखें दिखलाई नहीं देतीं , आँखों का हृदय बाहर भी , भीतर भी | - भक्ति - 1506
  • आनन्द की वृष्टि होती आ रही है | भक्त हृदय में भक्ति और प्रेम की बेल लहलहाती रही किन्तु भोली दुनिया के लोगों ने आनन्द की वृष्टि का न अनुभव किया और न भक्ति प्रेम का | - भक्ति की चेतावनी - 1506
  • तू क्या प्यार करेगा जब भोग से ही तृप्त न हो सका | प्यार तृप्ति देता है , प्रिय से मिलाता है | - भक्ति की चेतावनी - 1507
  • वर्ष अब बरस कि शुष्क प्राण सरस हो | बरसता आता तो ( मन ) तरसता न रहता | - भक्ति - 1507
  • प्यार दीदार में है | दुनिया पतवार और मझधार के गीत गाती है | - भक्ति - 1508
  • सूरत क्या देखता है ? ‘ सु ‘ में रत होता तो सूरत क्या ‘ सुर ‘ में भी रत होता और सभी कार्य का मुहूर्त किसी से न पूछना होता | - भक्ति की चेतावनी - 1508
  • जीवन संध्या तक यदि ज्ञान दीपक प्रज्वलित न हुआ तो अँधेरी रात में क्या देख पायेगा ? देख , पायेगा अपने प्रियतम को यदि भक्ति तेरा साथ दे , भाव तेरा चाव बढ़ाये । - भक्ति की चेतावनी - 1509
  • अम्ब , अब विलम्ब ? अविलम्ब अवलम्ब चाहिये , जीवन जीवन न रहेगा , यह जीव न रहेगा | - भक्ति - 1509
  • कातर स्वर ने भीतर बाहर की जलन मिटाई | अश्रु जल पुत्र की आँखों में , माँ की आँखों में सच्चा प्यार , अद्भुत संसार | - भक्ति - 1510
  • प्रेम पूर्ण शब्द का भंडार कहाँ ? जहाँ तेरा प्यार रहता है | यह दुनिया तो राग द्वेष में संलग्न है और मग्न है ' तेरा मेरा ‘ में ‘ मैं‘ में | प्यार की दुनिया में प्यार की ही झंकार है , ‘ तेरा मेरा ‘ बेकार है | - भक्ति की चेतावनी - 1510
  • दिल दिखलाने की वस्तु नहीं और न समझने की | दिल की भाषा - मौन , जिसे अति अल्प व्यक्ति ही समझ पाये | - भक्ति की चेतावनी - 1511
  • पाई पाई जोड़ते जब शांति न पाई , खाने लगा राम दोहाई , देने लगा सफाई . अब सफाई क्या काम आई ? - भक्ति - 1511
  • व्याकुल मन खोज रहा है प्रिय को - प्रिय प्यार में छिपा था और प्यार को प्राणी समझ न रहा था | अवस्था डगमग | - भक्ति की चेतावनी - 1512
  • काव्य का प्रारम्भ कब हुआ ? जब मनुष्य ने क ( जल रस ) समझा , ब ( बह ) निकला - रूप धारा में बदला - प्रवाह रुके न रुका | - भक्ति - 1512
  • तान में अभिमान कैसा ? नाम ले प्रिय का कि आनन्द आये | - भक्ति की चेतावनी - 1513
  • कब कब वह आता है ? आ ( आनन्द का तीव्र अभाव ) ता तामसिक वृत्तियों का भयंकर प्रहार होता है | - भक्ति - 1513
  • रसना और रसना के लिये तरसना ? यह कैसी विडम्बना है | प्रिय का नाम ले , रसना रसमय हो जायेगी | - भक्ति की चेतावनी - 1514
  • प्रेम अमूर्त्त , उसकी पहचान ? धूर्त न जान पाये प्रेमी अमूर्त्त में समाये | - भक्ति - 1514
  • समय आया तो समा गया | कौन किसमें ? प्रेमी प्रेम में , ध्यानी ध्यान में , कर्मी कर्म में , मर्मी मर्म में | - भक्ति - 1515
  • बन और जा , वन में न जा | तुझे फिर आना न पडेगा | तेरा तू है | तेरा तरा और यों ही आया और यों ही मरा | - भक्ति की चेतावनी - 1515
  • आया है और तेरे दर पर खड़ा है , दरवाजा खटखटा रहा है | खोल दरवाजा और मिल ले प्रिय से | ऐसा अवसर फिर न मिलेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1516
  • तैराक तर्क नहीं करता , पार करता है , प्यार करता है , प्रभु कृपा महान | - भक्ति - 1516
  • प्राण प्रभु के , त्राण सर्वदा , परित्राण प्यारो का सदा ही होता आया है | भक्त विभक्त नहीं होता , सदा ही चरणों से संयुक्त | - भक्ति - 1517
  • पहचानूँ कैसे ? मनुष्य को भगवान कैसे मानूँ ? न पहचान और न मान यह तो तेरा ही है और तरा ही रहेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1517
  • बना सका ? न बना और न सका | किसी का बनता तो बना बनाया था , सकने का प्रश्न ही न होता | - भक्ति की चेतावनी - 1518
  • जीव कहाँ जायेगा , कहाँ भटकेगा , कहाँ अटकेगा ? प्रिय का द्वार - द्वारिका , वह दर दर क्यों भटकने लगा ? - भक्ति - 1518
  • आशीर्वाद देव , दानव , मानव सभी क्यों चाहते हैं ? आशीर्वाद मानसिक बल है सबके लिये चोर के लिये साहु के लिये | - भक्ति की चेतावनी - 1519
  • संसार का चक्र उनके लिए जो चक्रधारी को न जानें न मानें | सीधे के लिए न वक्र है न चक्र है | - भक्ति - 1519
  • खिलते को देखकर खिल न सका , हँसते को देख कर हँस न सका | सदा मुरझाता रहा , रोता रहा | तुझे क्या पता , संत आया है , बसन्त आया है , तुझे खिलाने के लिये , हँसाने के लिये | - भक्ति की चेतावनी - 1520
  • सेवा हृदय हीन न कर सका | विश्व प्रेम , सेवा में रूपान्तर हुआ | सेवा हीन नहीं , दीन नहीं - प्रेम श्रद्धा का मधुर सम्मिश्रण | - भक्ति - 1520
  • अरे ओ काले कलूटे तेरे प्रेम ने मुझे मोहित कर रखा है , नहीं तो मैं तुझे फूटी आँखों भी न देखती | - भक्ति - 1521
  • प्राण में प्रिय की अनुभूति नहीं तो भाव में कैसे आयेगा ? ये जो आँखों में आँसू हैं , ये तो वक्ता की वाणी का प्रभाव है | भाव कुछ और ही अवस्था है , कहने की बात नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1521
  • मुख मलिन क्यों ? दिल चिन्ता से घिरा है , क्या करे ? कुछ ऐसा करे कि मुख मलिन न रहे | - भक्ति की चेतावनी - 1522
  • कोयल कोयला बनी किसी के वियोग में | उसकी आवाज बसंत में सुनाई दी , बस अंत में | - भक्ति - 1522
  • दरिद्र नारायण की मूर्ति देखी वृन्दावन में | जहाँ नर दरिद्र , प्रतिमा नारायण , अलंकृत | - भक्ति - 1523
  • चक्र कौन मिटाये ? चक्रधारी , बाँसुरी बिहारी , सदाचारी | यह दिल की क्यारी , दुनिया की ख्वारी , मन की सवारी से मुक्त न हो सकेगा जब तक कह न सकेगा हे बनवारी ! अब तो बाँसुरी बजा भाव की कि चैन से जीवन बीते | - भक्ति की चेतावनी - 1523
  • रात आई विश्राम के लिये | दिन आया काम के लिये | तू ने ऐसा काम किया कि विश्राम भी न ले सका | अब जीवन भार | - भक्ति की चेतावनी - 1524
  • धरा धर्म , धाम धन धन्य | धरा धन , धाम धर्म नगण्य | धरा चरण , ली शरण , मिटा भ्रम , श्रम , विकर्म | - भक्ति - 1524
  • दर्शन दुर्लभ था अभाव में | भाव तो दर्शनीय बना देता है भक्त को , भगवान को | - भक्ति - 1525
  • कहीं है | तो मिला भी या यों ही चर्चा मात्र है | सुना है , देता है अपना भाव , अपना बना कर | तो मिल उससे कि वेद शास्त्र की चर्चा से मुक्ति मिले | - भक्ति की चेतावनी - 1525
  • उधार मांगना क्या शराफत है ? उध्दार की पुकार तो शराफत है | - भक्ति की चेतावनी - 1526
  • तन की सुधि , मन की क्षुधा , प्राणों की आकुलता कहाँ , जब प्राण धन पाया | - भक्ति - 1526
  • धुन अंधी , लगन शांत | धुन पागल बनाती , लगन कांत से मिलाती | - भक्ति - 1527
  • वरदहस्त देखना चाहता है ? किस रूप में ? वरद हस्त के कार्य प्रत्येक क्षण हो रहे हैं | तेरी दृष्टि कहाँ है ? देखना सीख | - भक्ति की चेतावनी - 1527
  • मनुष्य के बुद्धि बल का अभिमान न केवल दूसरे मनुष्यों को कष्ट देता है बल्कि उसकी मान्यताओं को कुचलता आया है किन्तु वह क्या सफल हो सका ? एक कीट प्रकृति की शक्ति को क्या जाने ? - भक्ति की चेतावनी - 1528
  • यह पुकार है या पुकार का उपचार है | पुकार हिला देती है दिल , पुकारने वाले का , पुकार सुनने वाले का | - भक्ति - 1528
  • संसार सागर में नव द्वीप ? श्री गौरांग ने नृत्य करते-करते नव बनाया , नाव बनाई नाम की | आज भी कीर्तन है , तन मन लगा है प्रभु नाम में | - भक्ति - 1529
  • मुझे क्या देखता है ? मेरे काम देख , वाणी सुन , शान्ति पायेगा ? नहीं तो भक्त-भक्त कह कर समय गँवायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1529
  • संकीर्त्तन कर परमानन्द का , संकीर्ण भाव क्यों रखता है ? ऐसा रखना ही खता ( अपराध ) है | संग चल प्रकृति के फलना , फूलना सीख | - भक्ति की चेतावनी - 1530
  • भक्त का रक्त कैसा होता है ? रक्त में भक्ति का बीज रहता है जो भक्त हृदय को आह्लादित करता रहता है | - भक्ति - 1530
  • मन दर-दर भटकता था | मन मन्दिर में आया दर-दर भटकना छूटा | कर्म का बन्धन टूटा | - भक्ति - 1531
  • भक्त की पूजा भगवान की पूजा है यदि यह शुभ विचार है , भक्त के भक्त का तो ठीक है | किन्तु भक्त और भगवान में अन्तर देखने वालों का अन्तर कौन मिटाये ? भक्त या भगवान | - भक्ति की चेतावनी - 1531
  • पुकार में ही चार प्रकार के भक्तों का भाव छिपा है | कौन ज्ञानी ? जिसे ज्ञान का अभिमान न हो | - भक्ति की चेतावनी - 1532
  • सर ने कमल दिया , सरस्वती ने कलम | खिलना , लिखना सरस्वती की कृपा है | - भक्ति - 1532
  • प्रेमी ने भक्त कहा - भगवान हँसने लगा | सांसारिक लोग भगवान का प्रेमी सुनना क्यों पसन्द करते | प्रेम सुप्त अंतरात्मा तृप्त | - भक्ति - 1533
  • आरती तो आर्त्तजन का कष्ट हरण करती है और प्रसाद देता है प्रसन्नता | इस मर्म को न समझ व्यर्थ ही लोग कर्म में लीन | - भक्ति की चेतावनी - 1533
  • ( प्रेम के आँसू ) गिर जायें तो मोती हैं | बिखर जायें तो शबनम हैं | ( ओस ) - भक्ति की चेतावनी - 1534
  • यह शीतलता यह ऊष्णता प्रकृति का धर्म है | तेरा धर्म तो प्रेम है | जहाँ शीतलता तेरे नाम में और उष्णता तेरे वियोग में | - भक्ति - 1534
  • किसे समझाऊँ , मन को या तुमको | मन ही नहीं मानता तुम तो कृपालु हो | - भक्ति - 1535
  • कुछ दिल की कथा सुनाओ | तुम भी तो दिल लगाओ , तो मजा आये कहने सुनने का | ज्ञान , ध्यान की बातें लोग केवल कहते ही हैं , न करते और न तल्लीन होते | - भक्ति की चेतावनी - 1535
  • यह भक्ति है ? यह प्रेम है ? जहाँ माँग है , स्वाँग है | भक्ति में शरणागति प्रधान , प्रेम में आत्म बलिदान | ग्रहण कर सका तो जीवन महान | - भक्ति की चेतावनी - 1536
  • दीप्ति प्रभु की , तृप्ति मन की , अभिव्यक्ति भावों की , संतप्ति संसार की | संत दृष्टि समन्वय करती , व्यथा की , कथा की | - भक्ति - 1536
  • स्थल , जल से घिरा फिर भी भूमि की उष्णता शांत न हुई जब तक जल की वृष्टि न हुई - प्राणी भी प्रभु से आबद्ध है | - भक्ति - 1537
  • दुर्दमनीय काम है यह धारणा आज भी अमान्य नहीं करते लोग , आंशिक यह ठीक है किन्तु राम की शरणागति उससे भी कठिन है | - भक्ति की चेतावनी - 1537
  • प्रकृति से युद्ध नहीं करना है , अपनी ही भावना शुद्ध करना है | झगड़ा क्यों करता है , प्यार कर कि जीवन का आनन्द आये | - भक्ति की चेतावनी - 1538
  • जल की जलन तीव्र थी | कभी बहना चाहता था कभी उड़ना | बहना तो बहाना मात्र था , वह मिलना चाहता था असीम से | - भक्ति - 1538
  • पथ भी है , पाथेय भी है किन्तु शांति नहीं | भ्रांति ने पथ भुलाया , पाथेय छीना अब क्या करूँ ? शांत हो पथ भी मिलेगा , पाथेय भी | - भक्ति - 1539
  • एक नजर इधर भी | उधर न देख , धर पकड़ है दुनियादारी की | नजर में नजर मिला उससे जिसकी नजर में दुनिया कुछ भी नहीं | - भक्ति की चेतावनी - 1539
  • जिस भूमि पर पैर रखा वही फिसलनी नजर आई | पैर क्यों रखता है ? पैरों पर पड़ उस कर्त्ता के जिसने भूमि बनाई | - भक्ति की चेतावनी - 1540
  • कौन सुनेगा तेरी बात ? यहाँ मैं का बाजार गर्म है | धर्म कर्म की बातें बेकार है | किन्तु तेरे प्यारे तो तेरी ही बातें कहेंगे कोई सुने या न सुने | - भक्ति - 1540
  • कुछ गड़ा है ( दिल में ) तभी तो झगड़ा है | कुछ चुभा है दिल में तभी तो विरह के गीत गाता है | - भक्ति - 1541
  • रहता है इसी दुनिया में और बात करता है उस दुनिया की जो दिखलाई नहीं देती | दे कैसे इसने तो ले ( ग्रहण ) ने की धुन लगा रखी है | देता श्रद्धा , भक्ति तो प्रत्यक्ष होता अदृश्य संसार | - भक्ति की चेतावनी - 1541
  • देना तो अति कष्ट कर है तो पाना तो अति-अति कष्ट कर | बेचैनी प्राप्त करने की , सर्वस्व लुटा देती है | - भक्ति की चेतावनी - 1542
  • प्रेम विवाद नहीं चाहता वह चाहता है हृदय , जिसमें प्रेमी का ही वास हो | - भक्ति - 1542
  • विवाद तो एक प्रकार का प्रमाद है | प्रेम प्रमाद नहीं चाहता , प्रेमी चाहता है | - भक्ति - 1543
  • यदि मैं नाचूँ ? ‘ मैं ‘ सब को नचाता है | “ मैं “ रहित होने का सरल पथ शरणागति | - भक्ति की चेतावनी - 1543
  • हमें भी रास्ता बतलाओ | रस लो इष्ट के पूजन में | रास्ता स्वयं इष्ट बतलायेगा | - भक्ति की चेतावनी - 1544
  • मंदिर मस्जिद का भी भगवान है , दिल का भी भगवान है | अन्तर ? अन्तर्यामी जानें| जिसने जहाँ खोजा उसने वहीं पाया | - भक्ति - 1544
  • शक्ति क्षीण , मन बेचैन , अब शांति ? शांति में बड़ी शक्ति है वह क्षीण मलिन को भी नवीन और प्रवीण बना देती है | - भक्ति - 1545
  • मद से बड़ा कोई उन्माद नहीं | दम छूटे , मद न छूटे जब तक शरणागति का भाव न ले | - भक्ति की चेतावनी - 1545
  • प्रवाह पर की वाह - वाह की परवाह नहीं करता | बहना और बहाना उसका काम | बहाना न वह सुनता है और न बनाता है | - भक्ति - 1546
  • कोई आता है , शांत हो जा | भीतर से या बाहर से ? भीतर बाहर का द्वन्द मिटाने वाला आता है | नया संसार बसायेगा , तुझे अपनायेगा , फिर कहीं आयेगा न जायेगा | - भक्ति - 1547
  • कुछ मेरी भी सुनो | तेरी क्यों सुनूँ तू भ्रम है | कुछ मेरी भी सुनो | तेरी ही सुनता आया हूँ तू मेरा प्रण है , प्राण है | - भक्ति - 1548
  • यार का दीदार मिला , आँखें सफल | उसकी बातें सुनीं कान काम के न रहे | क्यों ? ऐसी रस भीनी बातें कौन सुनाये ? - भक्ति - 1549
  • हृदय में अति उत्साह पद थिरकने लगे | हृदय की आनन्द लहर संगीत बनी | वाणी अटपटी गान बनी | प्रथम दुनिया हँसने लगी , जब अच्छा लगा तो भजन बन गया | - भक्ति - 1550
  • अकिंचन के पास दीनता के अतिरिक्त था ही क्या ? दीनता दीनबन्धु ने उपहार स्वरुप स्वीकार की , अकिंचन प्रसन्न था | लोग आश्चर्यचकित थे , भगवान भी कैसा भोला है ? - भक्ति - 1551
  • आज मैं तुम्हें क्या दूँ , मैं अति प्रसन्न | तू मुझे ' मैं ' दे , तुम बन जा | - भक्ति - 1552
  • ये खिलौने मेरे हृदय को खिला न सके | ये बातें रिझा न सकीं , इन ग्रंथों में बुद्धि और भक्ति की बातें हैं | अब तू ही बता मैं क्या करूँ ? अकर्त्ता बन , यह संसार तेरा उद्यान बनेगा | - भक्ति - 1553
  • नीँद आये भी कैसे , किसी की याद सोने नहीं देती ? देती कहाँ तरसाती है , तड़पाती है | अच्छी मुसीबत है | प्यार का अर्थ यह तो न था कि प्राणी छटपटाता रहे | छटपटाता है , झटपट आता नहीं | - भक्ति - 1554
  • क्यों कहूँ कि लाज रख ? लाज गई तो तेरी , रही तो मेरी | तेरा भी नाम क्या बदनाम न होगा ? - भक्ति - 1555
  • मजा भी , कुछ तजा भी किन्तु मजा तो तेरी रजा में है | सजा न दे , सजा दे कि मजा ही मजा रहे | दुनिया सिर धुनती रहे और तेरा , तेरी धुन में लगा रहे | - भक्ति - 1556
  • रंग है चित्रित करने के लिए | हृदय की तरंग है किसी को प्रिय रंग में रंगने के लिए | यही प्यार की आदि कथा है | - भक्ति - 1557
  • जीवित रहने के लिये श्वास चाहिये , हृदय में प्रिय का वास चाहिये , नहीं तो विनाश है , हताश है | - भक्ति - 1558
  • उग्रता प्रेमी हृदय को प्रसन्न न कर सकी | फल उष्णता से पके किन्तु सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी कोमल स्पर्श चाहता है वाणी का | उग्रता तो उसे व्याकुल बना देती है | - भक्ति - 1559
  • प्रेम की भिक्षा न माँग . प्रेम तेरा जन्म सिद्ध अधिकार | अपने रूप को पहचान , भिक्षा भेंट बन जायेगी | - भक्ति - 1560
  • जल में पत्थर फेंक कर लहर पैदा करने वाले नादान , लहर मृदुल वायु पैदा करती है आघात नहीं , कोमल स्पर्श हृदय का ही प्रेम लहर का कारण है | - भक्ति - 1561
  • व्यतीत तो अतीत भी हुआ किन्तु प्रीती तो उसका प्रसाद ही है | नहीं तो अवसाद और अपवाद में ही जीवन व्यतीत होता | - भक्ति - 1562
  • पवित्र उसका नाम जिसने अपवित्र को भी पवित्र बना महा पवित्र बनाया | पवित्र वाणी हुई , भावना हुई जब उसकी दया हुई | - भक्ति - 1563
  • जय - जय करता जा माल तेरा , जय माल तेरी | - भक्ति - 1564
  • भावना की मुरली बजी मन मोहित हो गया , स्वयं लीन | - भक्ति - 1565
  • चित्र ही जब हृदय में हलचल पैदा करता है तो मिलन पर क्या हाल होगा ? अन्तर्यामी ही जाने | - भक्ति - 1566
  • ये उद्गार है या उद्धार है संसार के व्यवहार से | आज उद्गार , कल उद्धार | - भक्ति - 1567
  • कृष्ण कहते हैं - मेरे आगे गायें हों , पिछे गायें हों , दायें , बायें गायें हों | बीच में मैं रहूँ | भक्त कहते हैं - मेरे आगे गोपाल हों , बीच में मैं न रहे | - भक्ति - 1568
  • संयोग - सम भाव हुआ , योग्य हुआ , योग हुआ , संयोग हुआ | - भक्ति - 1569
  • मंदिर में पूजा करने चला तो पुजारियों को भय हुआ | क्यों ? कहीं उनकी बाहरी पूजा प्रकट न हो जाये | - भक्ति - 1570
  • निष्ठा , प्रतिष्ठा नहीं चाहती , वह तो अपने इष्ट की उपासिका है | प्रतिष्ठा बाधक , साधक के लिए | - भक्ति - 1571
  • मिलन वियोग का अंत करता है तो वियोग मिलन का | किन्तु अनन्त में अंत कहाँ ? अंत हुआ जब अनन्त का मिलन हुआ | कैसा वियोग , मिलन का खेल है जहाँ अन्त अनन्त एक हो जाते हैं | - भक्ति - 1572
  • शुष्क भूमि भी कभी हरी भरी होगी | यह आशा भी कभी न कभी फलवती होगी | यही आधार भक्त हृदय के लिए सम्बल है | - भक्ति - 1573
  • कीट भी किरीट बना | शरणागति का ऐसा ही प्रभाव और महत्व है | नाम लिया , नाम हुआ | शुद्ध अन्तःकरण की पुकार विशुद्ध आनन्द में लीन | अब कीट हुआ किरीट | - भक्ति - 1574
  • यह धुँआ नहीं जो किसी की आँखों से अश्रुपात का कारण बने | यह किसी के वियोग की आह है जो अश्रुपात ही नहीं हृदय में तडफन भी उत्पन्न करेगी | - भक्ति - 1575
  • खो गया विचारों में , प्रकृति प्रसन्न | खो गया ऐसा कि विचारों का भी विचार न रहा , पुरुष प्रसन्न | उपासक प्रभु का था , प्रकृति सिर धुनती रही | - भक्ति - 1576
  • ये रश्मियाँ रसमय हैं जहाँ प्रकाश है , विकास है , सन्यास है , विनाश नहीं - आत्म ज्योति का प्रेम प्रकाश है क्योंकि अमिट विश्वास है | - भक्ति - 1577
  • चरण का रण अनोखा , चलता है दलन करता हुआ , भटकता है आश्रय के लिए , विश्राम पाता है शरण में | - भक्ति - 1578
  • तम दूर कर , तू मेरा प्रियतम है ? अब तक तम ही प्रिय बना रहा क्योंकि प्रियतम न आया था | प्रिय आया तम दूर | - भक्ति - 1579
  • खिलौना बनाते बनाते भगवान भी खिलौना बन गया | भक्त इसी खिलौने से खेलते आये | खिला दिल , खिलौना आया नहीं तो रोना आया | - भक्ति - 1580
  • क्रम है , विक्रम नहीं | प्रदान है , परिश्रम नहीं | - भक्ति - 1581
  • बिस्तर विषवत् हो गया , तर हो गया वियोग के आँसुओं से यह हूक थी , मूक थी | - भक्ति - 1582
  • नजर उठा कर देखा तो नजर न आया | दिल में छिपा , बाहर क्यों दिखलाई देता ? - भक्ति - 1583
  • श्रद्धा में प्रेम , स्नेह में प्रेम , प्रेम में प्रेम | प्रेम में प्रेम सर्वग्रासी ऐसा किसी व्यक्ति का कथन है | प्रेम सर्वग्रासी नहीं - पूर्ण समर्पण | ग्रासी तो निगल जाता है - समर्पण अर्पण में भूल जाता है स्वयं को नैन , तरल | - भक्ति - 1584
  • मैं रंगरेज नहीं , अंगरेज हूँ | वस्त्र का रंग ना ? बस तर होना है | भीतर बाहर तो एक ही रंग है , रग रग में वही रंग है जो मिटता नहीं , मिटाता है राग-द्वेष | - भक्ति - 1585
  • देवी तेरी अनुकम्पा है अणु अणु में कम्पन जीवन , विलीन तो लीन होना है | - भक्ति - 1586
  • प्रण - प्रणय भी देता है प्राण भी | जीवन मरण उसकी दृष्टि में विशेष अर्थ नहीं रखते , रखता है प्रण जिसके लिए वह मर मिटता है | - भक्ति - 1587
  • मन दर-दर भटकता रहा जब तक मंदिर में प्रवेश न किया | अब भी भेष की लाज सता रही थी | भेष शेष जब मूर्ति मन में बसी | - भक्ति - 1588
  • होती है पहिचान , नहीं रहता है अभिमान | मनुष्य से या प्रभु से | फिर यह ज्ञान ? पुस्तकों का तो भार है , पहिचान का तो हार है | - भक्ति - 1589
  • कैसा चमत्कार ? चमत्कार के लिए आकर्षण न रहा | दुनिया करती चमत्कार को नमस्कार | यहाँ चमत्कार बेकार | - भक्ति - 1590
  • मिलन शुभ घड़ी जब आँखें मिलीं | भूल बैठा कब खुलीं , कब मिलीं | - भक्ति - 1591
  • झगड़ा बुद्धि का है विचारों का है , दिल का नहीं | दिल मिला वाद-विवाद कहाँ ? - भक्ति - 1592
  • अरे प्रेम , तेरा भी तिरस्कार ? मुझे किसने समझा ? जिसने समझा वह मेरा ही हो गया | - भक्ति - 1593
  • वैराग जब राग में लीन हुआ तो वैराग समझ पाया | - भक्ति - 1594
  • यह हवा मुझे प्रिय है | प्राण प्रिय इसका संचालक जो ठहरा | उसकी पुकार में हवा बेकार | अब प्राण प्रिय में जा बसे | - भक्ति - 1595
  • परीक्षा की इच्छा तो न थी | यदि तुम्हारी इच्छा है तो ले लो परीक्षा किन्तु रक्षा तुम्ही न करोगे ? अब परीक्षा मेरी नहीं , तुम्हारी ही होगी | - भक्ति - 1596
  • प्रथम दर्शन यदि हृदय स्पर्श न कर सका तो दर्शन की अभिलाषा कुंठित | प्रथम दर्शन यदि मन हर्षित कर सका तो नव जागरण आरम्भ | - भक्ति - 1597
  • प्रेम में विकार , मोह वासना का शिकार | प्रेम पर बौछार , सृष्टि सार , सृष्टि सार | - भक्ति - 1598
  • अंतरंग कौन ? अंत तक रँगता रहे हृदय की कलियों को | रंग पक्का अंतरंग पक्का | कच्चा कब हुआ सच्चा ? - भक्ति - 1599
  • तेरा अब मेरा हुआ | झंझट दूर | झंकार तेरी , गूँज मेरी | - भक्ति - 1600
  • सुना है भगवान के भक्त निर्धन होते आये | यह भी सुना भगवान भक्त के बस में होते आये | निर्धन के बस में भगवान ? भगवान ही उनका धन था इसी लिये वे धन्य | - भक्ति - 1601
  • स्नेह में यदि जलन न हो तो प्रकाश कैसे देगा ? - भक्ति - 1602
  • प्रतीक्षा - व्याकुलता भी है , परीक्षा भी है धैर्य की | किसकी और क्यों यह विचारणीय है | - भक्ति - 1603
  • कल कल कहते काल आ पहुँचा | अब छुड़ा कलाई ( पहुँचा ) | मौत कल आई | आज मौज का दिन है | कल की खुदा जाने | - भक्ति - 1604
  • आदर्श-आदर्श दे , दर्शन दे , आदर करूँ , रस पान करूँ | - भक्ति - 1605
  • निशान - शान है उसके लिये जो पंथ का अनुयायी है | निशा नहीं प्रभात है जिसने प्यार को अपनाया , पंथ विशेष को नहीं | - भक्ति - 1606
  • आनन्द उसके लिये जिसने आन पर न्योछावर किया प्राण | नदी नहीं , नद बना , और समुद्र में जा मिला , अब आनन्द ही आनन्द है | - भक्ति - 1607
  • पूजा तो प्रेम है - आंतरिक भक्ति कहना तो भक्ति की महिमा बढ़ाना है | - भक्ति - 1608
  • अनेक तीर्थ का भ्रमण किया किन्तु मां की गोद के समान कोई तीर्थ नहीं | - भक्ति - 1609
  • देखना क्या अब तो मिलना है , भेंट करना है वह दिल जिसके लिये वह बेचैन था | मैं बेचैन था | - भक्ति - 1610
  • रस तेरा , तू तेरस वाला , मन तेरा तू सदा निराला | - भक्ति - 1611
  • क्रिया की धूम मची , धुआँ फैला . प्रणय की कली खिली , मुआ ( मरा ) मैला | - भक्ति - 1612
  • मैं ला ला कहता गया मैला आया ( वस्तुओं के लिये ) मैंने ला ला कहना छोड़ माला पहनाई भाव की , मन शांत | - भक्ति - 1613
  • दिन एक एक बीत रहा था , दिल पर भार था | दिल ने एक को माना , भार हार में बदला , दिल खुश | - भक्ति - 1614
  • अच्छा पाया दिल का मीत - जिसने सुनाया जीवन संगीत | संग ही गाता , दिल को रिझाता , अब दिल कहीं नहीं जाता | - भक्ति - 1615
  • भूखा और सूखा क्या करे ? हरि को भजे , हरियाली का आव्हान करे | - भक्ति - 1616
  • वाणी मेरे प्राणों की ध्वनि | मैं न गरीब और न धनी | सुनी अनसुनी कर , पाई ध्वनि | - भक्ति - 1617
  • किधर देखूँ तेरी छवि अनोखी | किसी ने तो देखी होगी | तेरी मूर्ति आत्मा के रूप में | - भक्ति - 1618
  • उलट पलट शंका सब जारी - यह तेरी यारी जो प्राणों से प्यारी | - भक्ति - 1619
  • मदहोश में था , बदहोश में था | था तब था - अब नहीं , अब नहीं | - भक्ति - 1620
  • नींद कहाँ ? प्रिय की गोद में | प्रिय कहाँ ? जहाँ मैं न था | - भक्ति - 1621
  • मंदिरों पर खुदा देखा - मंदिरों में खुदा देखा - देखा जैसा न देखा | अब तक खुदा ही आ रहा है - किसी ने तुझे राह दिखाई है तभी तो राहत पाई है | - भक्ति - 1622
  • मैं दूर तो मदुरा आया , मीनाक्षी के खेल अनोखे , आँखे मछली की तरह व्याकुल हैं दर्शन के लिये | - भक्ति - 1623
  • कुछ खाया , कुछ पाया | गम खाया , संतोष ने रूप दिखाया | - भक्ति - 1624
  • पैर तुच्छ हाथ अच्छे | हाथ मिलाया प्रिय से और पैर तो चलते चलते थक चले थे | - भक्ति - 1625
  • पैर अच्छे क्योंकि शरणागति ली थी महान की | हाथ तुच्छ क्योंकि कर्मकाण्ड में ही लगे थे | - भक्ति - 1626
  • राधा की तरह प्यार कर कि कृष्ण तेरे पद सेवन में आनन्द पाये | - भक्ति - 1627
  • दो हाथ और एक दिल | हाथ जो विलग थे एक हो गये और दिल एक है और एक के लिये ही है | - भक्ति - 1628
  • कृतज्ञता को कृतघ्नता ने कहा - तू अज्ञ है इसीलिये कृतज्ञ बनी | मुझे देख मैं सबको ठेंगा दिखाती हूँ किसी के उपकार को क्यों मानूँ | कृतज्ञता नम्र , वह निरर्थक अहंकारी की बकझक पर क्यों ध्यान देती | - भक्ति - 1629
  • कुछ सुनेगा तो कुछ करेगा | कुछ न करूँ सुनाता जा | तुझे सुनाने में मजा आता है और मुझे सुनने में | करना धरना कैसा ? - भक्ति - 1630
  • जब कभी सोचा - सोच में पड़ा बाल नोचने लगा | अब न सोच है और न लोच है | लचकना तो रिझाने वाले जानते हैं | यहाँ तो अब कोच है फिर सोच की थकावट ही क्यों हो | - भक्ति - 1631
  • बाल्मीकी ने कहा - बाल भर भी सोच न कर सब का सहायक राम है | कर्मकाण्डी ने कहा - कि क्या हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाऊँ ? उत्तर था अरे पागल , राम की सहायता के बिना तेरा एक काम भी न बनेगा | - भक्ति - 1632
  • अब हुआ ग्यारह ( १० + १ ) दुनिया से हुआ न्यारा | प्रभु का बना प्यारा , जिसका लिया सदा सहारा | - भक्ति - 1633
  • बुलाती है दुनिया चक्कर में डालने के लिये तू क्यों नहीं बुलाता है कि दुनिया के चक्कर से छुटकारा मिले ? - भक्ति - 1634
  • मौत का आना और बुलाना कोई अर्थ नहीं रखता | तेरा बुलाना अर्थ अनर्थ रहित है | तू कृपण नहीं , कृष्ण है न , तो आकृष्ट कर अपने जन को | - भक्ति - 1635
  • परीक्षा किसकी , मनुष्य की या भगवान की ? मनुष्य असफल ही अधिक | भगवान तो स्वयं परीक्षक है उसकी परीक्षा कैसी ? - भक्ति - 1636
  • वे भी भक्त थे जिन्होंने तुझे नचाया और ये भी भक्त हैं जो नाच रहे हैं तुझे प्रसन्न करने के लिए | इन भक्तो में तेरे प्रथम ही प्रथम हैं और ये द्वितीय तो किसी दिन प्रथम हो सकेंगे जब तेरी महर की नजर होगी | - भक्ति - 1637
  • कैसे काटेंगे अब जीवन के दिन | क्यों ? कौन साथी ? ये स्वार्थी तो इसी दुनिया के खेल में लगे है | मेरी दुनिया तो तुम हो और तुम्हें पुकारने वाले अनेक , मेरी पुकार कौन सुने ? - भक्ति - 1638
  • न होती यह दुनिया और न होता तू तो कैसा होता ? अज्ञान में अन्धेरा , ज्ञान में स्वयं | - भक्ति - 1639
  • पूर्व दिशा की लालिमा मेरे प्रिय की | पश्चिम में लय | उत्तर और दक्षिण जागतिक व्यवहार | - भक्ति - 1640
  • मुझे पाप पुण्य की कथा न सुना - यदि प्रभु पद प्यार है तो प्यार की बातें स्मरण करा | प्यार ही पार लगायेगा | - भक्ति - 1641
  • हे बदरी के नाथ ! यात्रा है तेरी , दया की छतरी फैला कि यात्रा सुगम हो | - भक्ति - 1642
  • ये छोटी-छोटी बातें बेहाल क्यों कर देती हैं ? दिल छोटा न कर , बातें बातों में समा जायेंगी और तू खुश हाल रहेगा | विश्वास कर किसी का | - भक्ति - 1643
  • मैंने जिसे देखा नहीं उसे प्यार कैसे करूँ ? क्या देखकर प्यार किया जाता है ? प्यार तो परमात्मा का प्रसाद जिसे साधारण प्राणी समझ भी नहीं पाता | - भक्ति - 1644
  • कथन तो समर्थन नहीं - समर्थन तो समर्थ के बल पर ही सम्भव है | यदि अर्थ सम हो , अनर्थ की ओर ध्यान न हो तो समर्थन ही समर्थन है | - भक्ति - 1645
  • साथी ऐसे दे कि स्वयं प्रसन्न हो उत्साह बढ़ायें न कि ऐसे जो स्वयं अवसन्न हो हताश बनायें | - भक्ति - 1646
  • दिल दरिया | अब कैसी क्रिया ? बहती जा , समुद्र समीप | - भक्ति - 1647
  • चाह ने राह दिखाई | प्रेमी ने आँखे बिछाई | - भक्ति - 1648
  • मत बोल | ये मतवाले चिल्ला उठेंगे | रस घोल दिल में की अनेक जन्म की प्यास मिटे | - भक्ति - 1649
  • आँसू आकर्षण थे प्रिय के लिये | ये दुःख के नहीं , वियोग के है | - भक्ति - 1650
  • तड़फड़ाना केवल शरीर का न था , मन का था | क्यों ? तू नजर न आ रहा था | - भक्ति - 1651
  • मेले में प्रिय को न पाया , झमेला मन का प्रारम्भ | जगत मेला , तेरे बिन मैं अकेला | - भक्ति - 1652
  • किसी ने ध्यान की विधि बतलाई और किसी ने ज्ञान की बातें सुनाई | किन्तु मन को सन्तोष न मिला | क्यों ? अब तक मन को मनमोहन न मिला था | - भक्ति - 1653
  • मन मोह में मनमोहन के दर्शन कैसे हों ? मन का हनन होने लगा | मनमोहन कहाँ ? मनमोहन मन में , तन में सर्वत्र था किन्तु कोई दरश कराने वाला न मिला था | - भक्ति - 1654
  • मेरे कपड़े ( विचार ) छीन , मुझे विचारों से दिगम्बर कर दे और दे ऐसा भाव की करना धरना कुछ न पड़े | - भक्ति - 1655
  • साधना के भी स्तर हैं और भक्ति के भी | प्यार का स्तर प्रिय का हृदय है | साधना कैसी ? स्तर कैसा ? ' स्व ' तो तर ही है - बतलाने वाले की यदि महर हो | - भक्ति - 1656
  • एक ने शून्य की शक्ति का रहस्य बतलाया | यदि एक न होता तो सब शून्य ही शून्य था | - भक्ति - 1657
  • दिल की आँखें बड़ी चतुर | दिलदार को खोजती , खोजती और दर्शन करते करते ही संकोच वश बन्द हो जातीं यही तो प्रिय का ध्यान है | - भक्ति - 1658
  • तेरी करुणा महान किन्तु मैं तो तेरा प्यार चाहता हूँ | प्यार पर वार संसार , वार बार-बार | - भक्ति - 1659
  • अच्छा है दुनिया की दृष्टि ही मुझ पर न पड़े | मेरी पूजा ? मेरा इष्ट | - भक्ति - 1660
  • ' भक्तन रखवारे ' तो क्या भगवान भी स्वार्थी है ? नहीं | अन्य जन न भगवान को मानते हैं और न रक्षा चाहते हैं | अपने ही बल का अभिमान , वहाँ कहाँ भगवान ? - भक्ति - 1661
  • भोग में योग , योग में भोग है | यह रहस्य योग्य के लिये सरल , अयोग्य को मिला भी तो कहाँ जान पाया कि यह योग है कि भोग | - भक्ति - 1662
  • कुमुद तू क्यों मुद ( प्रसन्न ) ? मोद मेरे हृदय में , गोद में | शोध कर प्रतिशोध की भावना को किसी ने शुद्ध किया | - भक्ति - 1663
  • पैसा न दिखा , दिखा कुछ ऐसा कि जो ऐसा वैसा न हो | तो कैसा हो ? मुझ जैसा हो , पैसे का दास न हो | - भक्ति - 1664
  • कुछ बदली है , कुछ बदला है | नीयत बदली , दिल बदला | बद को नेक बनाने वाला दिल में बसा है | - भक्ति - 1665
  • ( मन ) मैला , मेल में बदला , जब साफ हुआ किसी की सफाई से | - भक्ति - 1666
  • चल तू उस दुनिया में चल - जहाँ विश्वास की कीमत है - मत-मतान्तर नहीं | - भक्ति - 1667
  • प्यास कौन बुझाये ? प्याऊ वाला ? कहाँ पाऊँ उस प्याऊ वाले को ? तृप्त से पूछ | - भक्ति - 1668
  • गुण और अवगुण , फूल और काँटा किसे भेंट करूँ ? - भक्ति - 1669
  • हार विहार में बदली , जब संहार का भय न रहा | न रहा शोक और न रही चिन्ता | अब कान्त और एकान्त | शान्ति रूपी कान्ता आ रही है कान्त के मिलन के लिए | - भक्ति - 1670
  • हर घड़ी हर ( शिव ) की , न तेरी न मेरी | न जगत की फेरी और न हेरी फेरी | - भक्ति - 1671
  • अनन्त क्या है ? भगवान | नहीं , अनन्त मेरी चाह - अनन्त के मिलन की चाह | - भक्ति - 1672
  • गुरु जानकार - शिष्य यदि हो होनहार तो लाभ उठाये उसकी जानकारी का | - भक्ति - 1673
  • मनुष्य की शक्ति दिखलाने में नहीं , शक्ति को प्रणाम करने में है | प्रणाम का परिणाम सदा सुखदायक रहा है | - भक्ति - 1674
  • प्रेम वासना नहीं | शरीर की उपासना वासना | हृदय का उल्लास प्रेम | - भक्ति - 1675
  • राधा ने कृष्ण को क्या दिया ? प्रेम | कृष्ण ने राधा को क्या दिया ? प्रेम की अमरता | कैसे ? पहले राधा पीछे कृष्ण | भगवान ही भक्त का सम्मान करता है , दुनिया के लोग नकल | - भक्ति - 1676
  • रंग का भी अपूर्व सम्मलेन है अंग-अंग में , रोम-रोम में | ओम शब्द ने रोम रोम में ऐसी तरंग उत्पन्न की कि अंग तर हो गया और रंग ऐसा छा गया हृदय पर कि अब कहना क्या , सुनना क्या ? - भक्ति - 1677
  • प्रिय का नाम न ले , हृदय में हूक उठ रही है | ऐसी बेचैनी में प्रिय अलग नहीं रह सकता | उसकी अनुभूती ही सच्चा प्यार है | - भक्ति - 1678
  • नित नये खेल दिखलाता है तू बड़ा खिलाड़ी है | खिला और मिला | खेल बन्द | - भक्ति - 1679
  • क्यों ज्ञान का गुमान ? अब भी मान कि " तेरा सांई तुझ में " यह ज्ञान नहीं भक्त की अनुभूति है | - भक्ति - 1680
  • तुम हो न , ली तुम्हारी शरणागति | हो ली , यह आत्मा तुम्हारी हो ली | - भक्ति - 1681
  • किसी ने प्राण कहकर पुकारा , किसी ने जीवन सर्वस्व | सर्व बस में एक ही के है जो तेरे प्राणों में बसा है | - भक्ति - 1682
  • बस आ तेरे बिन जीवन कैसा ? प्रभु बिना दास कैसा ? पति बिना प्यार कैसा ? सती बिना सत्य कैसा ? - भक्ति - 1683
  • विवेचन करने वाला मैं कौन ? किसी की कृपा जिसने भिन्नता में एकता का दर्शन कराया | - भक्ति - 1684
  • ये मूर्तियाँ जीर्ण शीर्ण हो जायेंगी , ये मान्यताएँ बदल जायेंगी , ये विज्ञान के कौतुक न रहेंगे किन्तु हे सत्य तू सदा अमर रहेगा , यह भक्त का विश्वास है | - भक्ति - 1685
  • तुझे संत इतना प्रिय क्यों ? क्या उत्तर दूँ | तुम भी प्यार करके देखो संत से , स्वयं अनुभव कर सकोगे | - भक्ति - 1686
  • तेरी जीवन संगिनी कौन ? भक्ति | और जीवन रागिनी ? भाव | भक्ति क्यों करेगा ? हृदय की सख्ती कैसे मिटे ? तुम्हीं बताओ | - भक्ति - 1687
  • झुक कर देखा , मुड़ कर देखा , पीछे देखा , आगे देखा कहीं न दिखलाई दिया | क्यों ? दिल में छिपा था | - भक्ति - 1688
  • एक न सुनी , एक न मानी , अब एक क्या करे ? एक करे एकाकार , तभी हो जीव का उद्धार | - भक्ति - 1689
  • संगी गीत गाता नहीं , संगीत मन को रिझाता नहीं , मन कैसे प्रसन्न हो ? एक प्राणों का संगी है जो मूक है , हृद तन्त्री वादक है | अति अल्प ही उसे जान पाये | - भक्ति - 1690
  • जिधर देखता हूँ मलिन मुख निराश भाव | यह कैसा भव है जिसमें भाव नहीं - केवल रोना , कुछ भीतर , कुछ बाहर | खिले फूल दिखला कि शांति मिले | तेरी सृष्टि फिर विचारों से गन्दी क्यों ? - भक्ति - 1691
  • ध्यान विचलित हुआ , प्राण व्याकुल | क्यों ? ध्यान प्राण प्रिय का था | - भक्ति - 1692
  • देख दरवाजे पर कौन खड़ा है ? जो मेरा है , उसके लिये दरवाजा कब बन्द ? - भक्ति - 1693
  • मिठाई दो | मीठे बनो , सब जगह मिठाई मिलेगी | - भक्ति - 1694
  • देख - वह पगडण्डी है प्रेम की जहाँ दंडी स्वामी भी चलने में घबड़ाते हैं किन्तु यदि तू सत्य का प्रेमी है ( सच्चा प्रेमी है ) तो यह ' पगडण्डी तेरे लिए प्रशस्त मार्ग बन जायेगी | तेरी भी बन जायेगी प्रभु के पथ जाने से | - भक्ति - 1695
  • ललकार कर काम को किसने जीता ? जिसने प्रभु पद का स्पर्श किया भाव से , काम वहाँ स्वयं पराजित हो गया | - भक्ति - 1696
  • नजर ने अमर बनाया क्योंकि वह नजर आया जो अमर है | - भक्ति - 1697
  • देखे कपड़े ? क्या देखूँ रंगे हुए हैं | अरे देख दिल भक्त का रंगा हुआ नहीं , रंग में मिलकर अभंग हो गया है , असंग हो गया है | - भक्ति - 1698
  • कृष्ण के प्यार में गोपियाँ पागल हो गई कि गोपियों के प्यार ने कृष्ण को भगवान बना दिया , अमर बना दिया | - भक्ति - 1699
  • कृष्ण की गीता ने अमर बना दिया कृष्ण को | नहीं जी , यदि गोपियों का प्यार कृष्ण को न मिलता तो वह भक्ति , ज्ञान , कर्म के गीत कैसे गाता ? - भक्ति - 1700
  • आभास है तो आश है कभी दर्शन भी होंगे उसके जिसने जीवन दिया है , जिसके लिये जीवन है | - भक्ति - 1701
  • कौन आ रहा है प्रीति का उपहार लिए ? कोई प्रेमी होगा | होगा नहीं , है | तो आने दे , प्रीति जताने दे | - भक्ति - 1702
  • गुरु को क्या देगा ? उपालम्भ | क्यों ? अब तक अपना जैसा क्यों न बनाया | - भक्ति - 1703
  • सध गया सिद्ध हो गया , लग गया ( मन ) भक्त हो गया , पा गया पागल हो गया | दुनिया ने कहा - वह गया , वह गया , बह गया , बह गया किसी के प्यार में | - भक्ति - 1704
  • तार लगना , उद्धार होना , भव सागर पार करना क्या है ? यह है मनुष्य की मान्यता | जिसने माना , उसी ने जाना कि कुछ है जो बोधगम्य नहीं , स्वतः अनुभूति है | - भक्ति - 1705
  • शंख ने जगाया , कल्पना के पंख ने उड़ाया तो क्या नजर आया ? वही नजर आया जिसकी युगों से तलाश थी | यह तो कल्पना है | कल्पना ही सही - क्या बुरी है ? - भक्ति - 1706
  • प्रेम सूर्य है जिसका सम्पर्क हृदय रूपी कमल को खिला देता है | अद्भुत शक्ति है इस प्रेम में जो शरीर का उपासक नहीं | - भक्ति - 1707
  • रोम-रोम में राम | सुबह शाम में श्याम , रात और दिन की जिन्दगी | बन्दा किसकी करता है बन्दगी ? उसी की जिसने विचारों के बन्धन से मुक्त कर दिया | - भक्ति - 1708
  • आ सुन , किसके लिये हैं ये आँसू ? जो मुझे दिन रात प्यार की आग में जलाता , फिर भी नजर नहीं आता | देख पायेगा तो क्या आँसू न बहायेगा ? नहीं , आँसू रहेंगे हर्ष के , प्यार के | तुझको समझाना बेकार | - भक्ति - 1709
  • वर्षो से तेरे प्यार में झूमता रहा , अब ये प्राकृतिक खेल मुझसे खेलना चाहते है अवसान नहीं चाहता - चाहता है दिल अब सान तेरे तत्वों में और परेशान न कर | - भक्ति - 1710
  • भजन तो मंजन है मन का न कि जन का | जन का मन खुश करना भजन दिखला कर मान भंजन का कारण बनेगा किसी न किसी दिन | मनोरंजन तो किसी ऐसे से होगा जिसने गुरु चरणों की रज से मन मुकुर स्वच्छ किया | - भक्ति - 1711
  • अज्ञात का प्यार अनोखा , वहाँ धोखा नहीं , प्रेममय जीवन बन जाता है तथा समय पाकर अज्ञात प्रत्यक्ष होता है भाव में | - भक्ति - 1712
  • भाव मिला , प्रभाव पड़ा | प्रभाव यदि जीवन की समस्या हल कर सका तो स्थायी अन्यथा क्षणिक | क्षणिक प्रभाव भी क्षण सुखदायक | - भक्ति - 1713
  • आँखों में भाव आया कहाँ से ? प्रभु प्यार में आँखें सदा मतवाली | - भक्ति - 1714
  • एक चक्र गोलाकार जिसे चकरी कहते है | अन्य चक्र झूले की तरह ऊपर नीचे होता रहता है | छोड़ इस चक्र को चक्रधारी की कृपा के बल पर | आनन्द ले , चक्र में आनन्द नहीं | - भक्ति - 1715
  • बहन है ( माया ) तो बहने दे तेरे प्यार में | शरीर का सम्बन्ध प्रधान नहीं | - भक्ति - 1716
  • और भाई है ( काम ) तो बड़ा ही है तेरे प्यार में | अब क्या कहना ? अब न सतायेगा | - भक्ति - 1717
  • " बे पिये ही मुझे मस्ताना बना देते हैं " यदि सच्चा प्यार हो प्रभु से | - भक्ति - 1718
  • आँखे बन्द नहीं , आनन्द आ रहा है आनन्द का | यह मस्ती सत्य की है प्रदर्शन नहीं | - भक्ति - 1719
  • कली ने कहा - मैं कब खिलूँगी ? उत्तर था तेरी बेकली ही तुझे खिलायेगी | - भक्ति - 1720
  • व्याकुल मन क्यों ? कूल किनारा कहाँ मिला ? मिलता तो शीतल होता | - भक्ति - 1721
  • अब तक जान न पाया राम बड़ा कि काम ? काम से आया , काम बनाया | अब काम का क्या काम ? राम ही राम , राम ही अभिराम | - भक्ति - 1722
आगामी उत्सव ( 3 महीना )
चिड़ावा,श्री आनन्द मातृ  सत्संग का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-2010)   -   कार्तिक सुदी अष्टमी
09/11/2024 - शनिवार - चिड़ावा, -
वृजधाम (कोलकाता),श्री महिला सत्संग भवन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-01/11/1995)   -   कार्तिक सुदी नवमी
10/11/2024 - रविवार - वृजधाम (कोलकाता) -
अँधेरी, श्री आनन्द सत्संग सदन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-17/11/1972)   -   कार्तिक सुदी एकादशी
12/11/2024 - मंगलवार - अँधेरी (मुंबई) -
आनन्दमयी माँ (श्रीमती गंगादेवी सराफ) का जन्म दिवस (13-11-1929, कराची)   -   कार्तिक सुदी एकादशी
12/11/2024 - मंगलवार - बांद्रा,भाईंदर,(मुंबई), -
झुंझनू , श्री आनन्द सत्संग सदन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-30/10/1990)   -   कार्तिक सुदी एकादशी
12/11/2024 - मंगलवार - झुंझनू -
श्रीमती नानी बाई शर्मा (माताजी) का जन्म दिवस (04/11/1911, कोलकाता)   -   कार्तिक सुदी तेरस
14/11/2024 - गुरूवार - कोलकाता -
हैदराबाद,श्री आनन्दघन सत्संग भवन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-24/11/2004)   -   कार्तिक सुदी तेरस
14/11/2024 - गुरूवार - हैदराबाद -
सरदार शहर सत्संग भवन का  वार्षिकोत्सव-(उदघाटन-14/11/2016)   -   कार्तिक पूर्णिमा
15/11/2024 - शुक्रवार - सरदार शहर -
बांद्रा (मुंबई) श्री आनन्द सत्संग का वार्षिकोत्सव (उदघाटन- कार्तिक पूर्णिमा- 25/11/1977)   -   कार्तिक पूर्णिमा
15/11/2024 - शुक्रवार - बांद्रा (मुंबई) -
खंडेला सत्संग भवन का  वार्षिकोत्सव-(उदघाटन-16/11/2016)   -   मंगसिर बदी दूज
17/11/2024 - रविवार - खंडेला -
भाईंदर (मुंबई),श्री आनन्द मातृ सत्संग का वार्षिकोत्सव-(उदघाटन-25/11/2008)   -   मंगसिर बदी तेरस
29/11/2024 - शुक्रवार - भाईंदर (मुंबई) -
श्री बाबा बलदेव दास का जन्म दिवस (06-12-1877 , नरहड़ )   -   मंगसिर सुदी दूज
03/12/2024 - मंगलवार - सब सदनो में -
जैसीडीह,आराम भवन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-06/12/2005)   -   मंगसिर सुदी पंचमी
06/12/2024 - शुक्रवार - जैसीडीह -
घाटशिला, श्री आनन्द सत्संग सदन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन   -   मंगसिर सुदी षष्ठी 
07/12/2024 - शनिवार - घाटशिला, -
आनन्दमयी माँ (श्रीमती गंगादेेवी सराफ) का निर्वाण दिवस (16/12/1990)- पोष अमावस्या   -   पोष अमावस्या
30/12/2024 - सोमवार - बांद्रा (मुंबई) -
  -   Happy new year 2025
01/01/2025 - बुधवार - All world -
दिल्ली, सन्त श्री नन्दलाल सत्संग भवन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-05/01/1998)   -   पौष सुदी नवमी
08/01/2025 - बुधवार - दिल्ली -
रामगढ,आनन्दघन सत्संग केन्द्र का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-06/01/2001)   -   पौष सुदी एकादशी
10/01/2025 - शुक्रवार - रामगढ -
मलसीसर, सत्संग सदन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-22/01/1978)   -   पौष सुदी तेरस
12/01/2025 - रविवार - मलसीसर -
श्री नन्दलाल शर्मा (सतगुरु आनन्दघन) का  जन्म दिवस--- (4-01-1909, मलसीसर)   -   पौष सुदी तेरस
12/01/2025 - रविवार - सब सदनो में -
कोटा,सन्त श्री नन्दलाल सत्संग भवन का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-1994)   -   माघ बदी दूज
15/01/2025 - बुधवार - कोटा -
श्रीमती नानी बाई शर्मा (माताजी) का निर्वाण दिवस (27/01/1978, कोलकाता)   -   माघ बदी तृतीया
16/01/2025 - गुरूवार - कोलकाता -
पालम,दिल्ली(विद्यालय) ,सन्त श्री नन्दलाल सरस्वती विद्या मंदिर का वार्षिकोत्सव (उदघाटन-11/01/1985)   -   माघ बदी षष्टी
18/01/2025 - शनिवार - पालम,दिल्ली -
आगामी उत्सव हिंदी तिथि के अनुसार दिये गयें है कृपया अंतिम जानकारी सबंधित सदनों से लें |(Year-2022-2023.) (Email :- info@bhavnirjharini.com)
भाव निर्झरिणी (Help File-Click Download PDF)
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